अनिल मिश्र
शोक के वक़्त कोई खटराग शोभा नहीं देता. ख़ामोशी ही सबसे उचित लहज़ा होती है. लेकिन जब जीवन के उत्सव और उसके मूल्यों में भी कुछ लोग आडम्बर का चोला ओढ़ाने लगें तो कोफ़्त को ज़ाहिर करना चाहिए और महाश्वेता देवी दी की जनपक्षधरता का, दोहराव का ख़तरा मोल लेकर भी, बारंबार उल्लेख किया जाना चाहिए. यह उल्लेख, सच्चे लोकतंत्र और राजनीति की अपनी परंपरा और विरासत की दावेदारी का न सिर्फ अहम उत्तरदायित्त्व बन जाता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भूलभुलैया की अंधेरी खोह से बचाने के लिए ज़रूरी है.
बतौर व्यक्ति नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज और अमित शाह की श्रद्धांजलि, पता नहीं क्यों एक सांस्कृतिक सलीके की तरह नज़र नहीं आ रही है. बस्तर, सारंडा, जंगलमहल में ‘जंगल के दावेदारों’ को अभी भी विकास विरोधी, नक्सली, आतंकवादी बता कर उनकी जीवन शैली और उनके पेड़, पहाड़ों और नदियों को ख़त्म किया जा रहा है. ठीक उसी तरह, जैसे हज़ार चौरासी की माँ में महाश्वेता दी ने बताया है कि व्रती, सूमो और उनके साथियों को सत्तर के दशक में कलकत्ता की गलियों में घेरकर मारा गया था.
रोहित वेमुला को इन जंगल के दावेदारों के क़त्ले-आम का विरोध करने पर ‘राष्ट्र-विरोधी’ क़रार दिया गया और यह उनकी सांस्थानिक हत्या के लिए पहला चरण था.
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क्या प्रधानमन्त्री, विदेश मंत्री और सत्तारूढ़ दल के अखिल भारतीय अध्यक्ष और बंगाल की मुख्यमंत्री महाश्वेता दी की लेखनी और उनकी जीवन-राजनीति का लिहाज़ और वास्तविक सम्मान करते हुए जल, जंगल और ज़मीन की हिफ़ाज़त के लिए संघर्ष कर रहे लोगों, समूहों और समुदायों को बेदखल करने, उन्हें घेरकर सामूहिक नरसंहार करने की कॉरपोरेटीकरण की योजना का तिरस्कार कर सकेंगे?
नहीं. बिलकुल नहीं. मैं इतने यक़ीन से इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि हाल ही में जब इरोम शर्मिला ने अपना अनशन ख़त्म करने की घोषणा की तो बात-बात पर हमारे सबसे बड़े लोकतंत्र की शेख़ी बघारने वाले नुमाइंदों को रत्ती भर भी शर्म नहीं आई.
सोचा जाए तो कितना बुरा और अपमानजक लगता है एक इंसान का 16 सालों तक अपनी भूख बर्दाश्त करने के बेइंतिहा सब्र को संघर्षशील राजनीति का एक औज़ार बना लेना. सिर्फ़ इसलिए कि उसके अपने लोगों की मात्र शक के बुनियाद पर हत्या कर दी गई. बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं तक को संदेह की बिना पर मौत के घाट उतार दिया गया. जबकि, क़ानून के राज्य में तो हम संदेह का लाभ देने को प्राकृतिक न्याय मानते हैं.
गौरतलब है कि महाश्वेता दी ने इरोम शर्मिला के जीवन संघर्ष पर दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा की किताब की भूमिका लिखी है.
और, हम यहां कश्मीर घाटी में, राष्ट्र हित में, सैकड़ों की तादाद में आंखों की रोशनी छीन लिए गए अभागे बच्चों, नौजवानों और नवयुवतियों का उल्लेख नहीं करेंगे.
ऊना में, मंदसौर में पीटे गए दुखियारों और निर्धनों के बारे में बात करने से भी मुंह चुरायेंगे.
बहरहाल, हम इन नुमाइंदों से यह अपेक्षा तो कर सकते हैं कि अगर वे नरसंहार नहीं रोक सकते तो न सही, अपने ऑनलाइन गुंडों को महाश्वेता दी के उपन्यास पढ़ने को कहें. शायद, अपने मनुष्य होने का अहसास कर सकें.
मुझे याद है कि 2002 में अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी और नरौदा पाटिया में घेरकर ज़िंदा जला दिए गए लोगों (हमारी राष्ट्रवादी स्कीम की डायरी की शब्दावली के मुताबिक़, ‘दूसरे दर्ज़े के नागरिक’, मुसलमान जो थे ‘कटुए’, ‘पाकिस्तान परस्त’) के लिए महाश्वेता दी शोकाकुल थीं और नागरिक चेतना द्वारा प्रतिरोध के स्वर की सबसे मुखर आवाज़ थीं.
लालगढ़, सिंगूर और नंदीग्राम में जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा के लिए और पुलिसिया अत्याचारों और बलात्कार के ख़िलाफ़ महाश्वेता दी अपनी नरम, मुलायम आवाज़ और हांफती सांसों से प्रतिरोध के आंदोलन की अगुआई कर रही थीं. तापसी मालिक का चेहरा या नाम याद है, जिसके बलात्कार और हत्या के बाद कलकत्ता की सड़कों पर वे नारे बुलंद कर रही थीं.
माटी और मानुष की गरिमा का हनन करने वाले हमारे हुक्मरानों से ठीक इस शोकाकुल वक़्त यह एक असहज करने वाला सवाल क्यों न पूछा जाए कि मां, माटी और मानुष की हर सांस को जीवन देने वाली महाश्वेता दी की रचनाओं और उनकी रचनाओं के किरदारों के क़त्ले-आम की परियोजनाओं पर क्या वे रोक लगाने जा रहे हैं?
अगर उनका जवाब नहीं है तो क्या हम महाश्वेता दी के असली वारिसों बिरसा और चोट्टी मुंडा के तीर-कमान को हसरत भरी निगाहों से प्रतिरोध का प्रतीक गढ़ने के सिलसिले में शामिल न हो जाएं!
[डॉ. अनिल मिश्र हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. जयपुर में रहते हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]