शाह आलम
यह मेरी ‘चम्बल संवाद यात्रा’ का बारहवां दिन था. जालौन जिले के मुख्यालय उरई से 66 किलोमीटर की दूरी पर महेवा ब्लॉक में उरकरा कला गांव है. यह गांव लोन नदी के किनारे बीहड़ में बसा है.
मेरी साईकिल इस गांव में आते ही खुद-ब-खुद रूक जाती है. मैं यहां कई लोगों से मिलता हूं. सबकी अपनी-अपनी कहानियां हैं. सच तो यह है कि सरकारी योजनाएं व अधिकारी अभी तक इस गांव में अपनी पहुंच नहीं बना पाए हैं. सबकी बातें दिलों को झकझोरने वाली हैं. लेकिन राबिया की हालात व बातों को मैं अभी तक भूल नहीं पाया हूं.
राबिया मेरी मां से भी ज़्यादा उम्र की हैं. घर पर दो बच्चों के साथ बैठी हैं. उनके 48 साल के पति भूरे तीन साल से बीमार चल रहे हैं. आज अस्पताल ऑपरेशन के लिए गए हैं
राबिया का घर छप्पर का है. घर पर पानी की कोई सुविधा नहीं है. पानी काफ़ी दूर से भर कर लाना पड़ता है. घर में शौचालय भी नहीं है. जो जमीन है, वो बीहड़ में मिट्टी के पहाड़ों के बीच है.
राबिया बताती हैं कि उनके पचि अब मज़दूरी नहीं कर पाते हैं. राबिया ने किसी तरह से अपनी चार बेटियों की शादी कर दी है.
राबिया बताती हैं कि हम फ़क़ीर हैं. पहले लाल कार्ड था. लेकिन सबसे परेशानी वाली बात यह है कि नए प्रधान ने हम लोगों का नाम अब काट दिया है और पुराना लाल कार्ड निरस्त कर दिया है. ‘सरकारी सूखा राहत’ आज तक नहीं मिला है.
चम्बल के लोगों का मुख्य व्यसाय पशुपालन होता है, लेकिन राबिया के पास भैंस का सिर्फ़ एक बच्चा मात्र है. राबिया कहती हैं कि पति बीमार है. उनका इलाज चल रहा है. घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है.
राबिया को सबसे अधिक टीस इस बात की है कि रमज़ान का महीना है. उनके घर में न सहरी के लिए कुछ है और न इफ़्तार के लिए.
उम्मीद है कि राबिया के चूल्हों की तस्वीर देखने के बाद आप कल जब इफ़्तार के लिए दस्तरखान पर बैठेंगे तो एक बार राबिया व उसके परिवार के बारे में ज़रूर सोचेंगे. और सच तो यह है कि राबिया जैसे कई परिवार बग़ैर सहरी व इफ़्तार के ही इस रमज़ान में रोज़ रख रहे हैं.
[शाह आलम स्वतंत्र पत्रकार हैं और इन दिनों चम्बल के बीहड़ों में जीवन की तलाश कर रहे हैं.]