जी हाँ! मैं कन्हैया का बड़ा भाई हूं!

Nasiruddin Haider Khan for TwoCircles.net

एक टीवी कार्यक्रम में बड़ी पार्टी के प्रवक्ता की आवाज़ सुनाई देती है… आपके लिए उमर ख़ालिद और इशरत ही बेटा-बेटी हैं… फलां-फलां कुछ नहीं हैं. हालांकि उनकी जुबां से भी जो नाम निकले वे रोहित वेमूला, कन्हैया, आशुतोष या नागा जैसों के नहीं थे. वे जिनका नाम ले रहे थे, उनसे किसी को भी एतराज नहीं था. लेकिन वे महज़ इसलिए फलां-फलां नाम ले रहे थे, ताकि दो विचारों को नहीं, दो मज़हबी पहचान को आमने-सामने खड़ा कर दिया जाए. उन्होंने विमर्श को नाम के पहचान में मोड़ने की पूरी कोशिश की. मगर ऐसा हो नहीं पाया. दुआ है, ऐसा न हो पाए.


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हां, ये सुनते हुए ज़रूर ख़्याल आया कि क्या अब सगा होना भी जुर्म के दायरे में आ गया है? वैसे, इसमें बुरा क्या है, अगर कुछ लोगों के लिए उमर खालिद बेटा जैसा है. वैसे बताऊं, कन्हैया मेरा सगा है. पिछले कई दिनों से मैं सोच रहा था कि आख़िर उसकी गिरफ्तारी से मैं क्यों परेशान हूं? क्यों मुझे लगता है कि वह जो कह रहा है या करता है, राष्ट्रद्रोह नहीं है. तब अहसास हुआ कि शायद यही सगापन है.

जी, मैं कन्हैया का बड़ा भाई हूं. पूरे होशोहवास और ज़िम्मेदारी के साथ यह कह रहा हूं. जी, मैं जानता हूं कि उस पर और उसके दोस्तों पर क्या इलज़ाम हैं. मैं यह भी जानता हूं कि इस इलज़ाम ने इनके लिए ढेरों ख़तरे पैदा कर दिए हैं. फिर भी मैं यह कहने की हिम्मतम जुटा रहा कि मैं कन्हैया का बड़ा भाई हूं.

जी, वह मेरी मां जाया भाई नहीं है. रिश्ते का भाई भी नहीं है. हां, मैं उसी राज्य का हूं, जिस राज्य का कन्हैया है. मैं उसी ज़िले में पैदा हुआ, जिस ज़िले में कन्हैया पैदा हुआ…

और हां, मैं भी उसी की तरह यक़ीन करता हूं कि भूख, नफ़रत, बेरोज़गारी, छूआछूत से आज़ादी मिलनी चाहिए. महिलाओं को बराबरी मिलनी चाहिए. मेरा भी यक़ीन है कि इससे बेहतर दुनिया मुमकिन है. कन्हैया को भी लगता है कि एक ऐसा समाज बनाया जा सकता है, जिसमें गैर-बरा‍बरियां नहीं होंगी.

मुझे भरोसा है कि वह भी भगत सिंह की इस बात में यक़ीन करता है कि ‘पिस्तौल और बम इंक़लाब नहीं लाते. बल्कि इंक़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है… हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं. हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का उपभोग करेगा.’

मुझे यह भी भरोसा है कि उसे भगत सिंह की हैट वाली फोटो ही पसंद होगी. उनके लम्बे लेख, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ को वह मेरी ही तरह, एक अहम दस्तावेज़ मानता होगा. यानी वह मेरा विचार जाया भाई है. हम दोनों की उम्र में लगभग दो दशकों का फ़र्क़ है. इसलिए वह मेरा छोटा भाई ही हो सकता है.

जब मैं कन्हैया को छोटा भाई कह रहा हूं तो उसमें रोहित वेमूला और उसके दोस्त भी शामिल हैं. और हां, मुमकिन है इनकी कई बातों से मैं सहमत न रहूं और यह भी तय है कि मेरी कई बातों से वे असहमत होंगे. असहमति के साथ सह-अस्तित्व ही तो लोकतंत्र की बुनियाद है. लेकिन असहमति का मतलब इन्हें सूली पर चढ़ा देना तो नहीं हो सकता?

हालांकि कन्हैया का क़द मुझसे कई गुना बड़ा है. उसने जो झेला, वह मैं नहीं झेल पाता. उसने जैसी बहादुरी दिखाई, शायद मैं नहीं दिखा पाता. इसे मंजूर करने में मुझे शर्मिंदगी नहीं है. इसलिए बस टुकुर-टुकुर देख रहा हूं.

कुछ लोग कह रहे हैं कि यूनिवर्सिटी में कर-दाताओं के पैसे पर मौज हो रही है. इनका इलज़ाम है कि रोहित और कन्हैया जैसे लड़के-लड़कियां उनके पैसे पर ‘राष्ट्र विरोधी’ काम में जुटे हैं. वैसे, ये सवाल कितने लोगों से लोग पूछ पाते हैं? कन्हैया और उसके दोस्त देश और देश के लोगों का क़र्ज़ ही चुकाने की बात करते हैं.

उन्हें इस बात का अहसास है कि उन जैसे लोग यहां बड़ी मशक्क़त से पहुंचे हैं. ऐसा मौक़ा सबको नहीं मिल पाता है. इसलिए उन्हें लगता है कि इस मुल्क का क़र्ज़ चुकाया जाए. हां, क़र्ज़ चुकाने का उनका तरीक़ा कुछ और है. वे चाहते हैं कि ऐसा मुल्क बनाया जाए, जहां सभी को पढ़ने का मौक़ा मिले. रोटी-कपड़ा और मकान मिले. हर भारतीय को इंसान समझा जाए. सब बिना डरे अपने ख्यालों को इज़हार कर सकें.

वे इस मुल्क की सूरत, सतरंगी बनाने का ख्वाब देखते हैं. वे संविधान में गारंटी की बराबरी के मूल्यों को हक़ीक़त बनाना चाहते हैं. वे लड़ते हुए पढ़ते हैं. पढ़ते हुए लड़ते हैं…

और देश महज़ नक़्शा तो नहीं है. देश, नक़्शे के अंदर रहने वाले सवा अरब लोगों से मिलकर है. वे कुछ लोगों की नहीं, बल्कि देश के तमाम आबादी के बारे में बात करते हैं. इससे बड़ी देशभक्ति क्या होगी? कन्हैया और उसके जैसे नौजवान लड़के-लड़कियां देश के आमजन से मोहब्बत करते हैं. इसलिए उनकी देशभक्ति कुछ लोगों को ‘राज’ से ‘द्रोह’ लगती है.

तब सवाल है कि कन्हैया को क्यों मुजरिम की तरह दबोच कर ले जाया गया? क्यों रोहित वेमूला को जान देनी पड़ी? इनकी यही खता है न कि वे अपने हिसाब से सोचते हैं. उन्हें इस दुनिया में कई चीजें गड़बड़ लगती हैं. ये नौजवान लड़के-लड़कियां, सिर्फ उनका विश्लेषण कर चुप नहीं रहना चाहते. वे बदलाव में शामिल होने की बात करते हैं.

सवाल है, इतिहास में क्या, यह काम कन्हैया और उसके साथी पहली बार कर रहे हैं? क्या समाज में बदलाव की सोच पहले नहीं पनपी है? राममोहन राय, ईश्वरा चंद्र विद्यासागर और ज्योतिबा फुले बदलाव के लिए समाज से टकराए, मगर इन सबके तरीक़े अलग थे.

महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, सुभाषचंद्र बोस, डॉ. भीमराव अम्बेडकर बदलाव के लिए ही लड़े, लेकिन इन सबकी सोच भी एक जैसी नहीं थी. जिस उम्र में हमारे घरों के पुरखे कुछ और कर रहे होंगे, तब 23 साल के भगत सिंह ने विचारों की सान को तेज़ करते हुए, जान न्योछावर कर दिया. उनके विचार और रास्ते बाकियों से अलग थे.

इसका यह भी तो मतलब है कि कन्हैया जैसे नौजवान जो कह रहे हैं, उसके बीज इन सारे बदलावों के विचार में छिपे हैं. उनके तरीकों से असहमति हो सकती है, पर उनकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता.

क्या हम कन्हैया और उनके दोस्तों को उसी पीड़ा से गुजारना चाहते हैं, जिस तकलीफ़ से उनके अग्रज गुजर चुके हैं? क्या हम उनकी आवाज़ को ‘राष्ट्रद्रोह’ का जामा पहना कर चुप करा देंगे? क्या उनके सवाल करने और जवाब तलाशने को ‘राज’ के खिलाफ़ ‘द्रोह’ क़रार दिया जाएगा? तो क्या इतिहास का पहिया अब पीछे घूमेगा?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस समय वे स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं. खासकर वे महिला से जुड़े मुद्दों पर लिखते रहे हैं.)

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