अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) : छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाक़े में चौथे खंभे की हालत बेहद ही दयनीय है. नक्सली इलाक़े में जान-जोखिम में डालकर रिपोर्टिंग करने वाले ये पत्रकार दोनों ही ओर से निशाने पर होते हैं. नक्सली इन्हें खुद के प्रचार-प्रसार और पुलिसिया-तंत्र से मुख़बिरी की ख़ातिर इस्तेमाल करते हैं, तो वहीं पुलिस भी उनका जमकर शोषण करती है. ऐसे में पत्रकारों की मजबूरी होती है कि वो पुलिस को नक्सलियों के तंत्र की एक-एक ख़बर पहुंचाएं. इस बीच कभी नक्सिलयों को लगता है कि पत्रकार उनको धोखा दे रहे हैं, तो वो उसे हमेशा के लिए मौत की नींद सुला देते हैं. इधर पुलिस भी इसी थ्योरी पर अमल करते हुए इनका जीना दुभर कर देती है.
सुकमा ज़िले के कोंटा इलाक़े के पत्रकार असलम का कहना है कि –‘एक तरफ़ रस्सी है तो दूसरी तरफ़ बन्दुक की गोली और मौत दोनों ही पहलू में है.’ दोरनापाल से आईबीसी-24 से जुड़े राजा राठौर भी यही बात बताते हैं. उनका भी कहना है कि यहां हम अपना जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता करते हैं.
सुकमा ज़िले में नवभारत से जुड़े पत्रकार सलीम शैख़ का कहना है कि –‘मुसीबतें दोनों तरफ़ से हैं. नक्सलियों के ख़िलाफ़ लिखो तो वो हमेशा के लिए निपटा देते हैं. पुलिस वालों के ख़िलाफ़ लिखो तो वो फ़र्ज़ी मामलों में फंसाकर जेल भेज देती है. ऐसे में यहां की जो वास्तविक समस्याएं हैं, उन्हें यहां के पत्रकार कभी लिख ही नहीं पाते. यानी ग्रामीणों व आदिवासियों की समस्याएं सरकार तक कभी पहुंच ही नहीं पाती.’
पत्रिका अख़बार से जुड़े छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार सोनी जी का कहना है कि –‘छत्तीसगढ़ के पत्रकारों की दयनीय स्थिति के लिए काफी हद तक ज़िम्मेदार यहां के मीडिया संस्थान हैं. ये वो मीडिया संस्थान हैं, जो शाषण द्वारा पालित व पोषित हैं. ऐसे में यहां बहुत कम मीडिया संस्थान हैं जहां पत्रकारों को लिखने की आज़ादी होती है.’
सोनी जी बताते हैं कि –‘लेकिन आप सबको एक साथ नहीं तौल सकते. यहां बहुत सारे मीडिया संस्थान हैं जो बेबाकी के साथ दमदार तरीक़े से पत्रकारिता कर रहे हैं और उनके पत्रकार संघर्षरत हैं और डटे हुए हैं. सरकार इन मीडिया वालों को दुश्मन के तौर पर देखती है.’
सोनी जी एक लंबी बातचीत में कई आंकड़ें पेश करते हैं. वो बताते हैं कि –‘छत्तीसगढ़ में 4 पत्रकारों की हत्या कर दी गई. तो वहीं कई पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया. कई अभी भी जेल में हैं. एक पत्रकार संगठन द्वारा आरटीआई से निकाली गई सूचना के मुताबिक़ 210 के आसपास पत्रकार ऐसे हैं, जिनको या उनके परिवार वालों को पुलिस वालों द्वारा किसी न किसी मामले में फंसाया गया है.’
राजकुमार सोनी जी पर भी एक ऐसा ही मुक़दमा चल रहा है. वो बताते हैं कि उन्होंने अपने एक लेख में किसी एक नेता के लिए ‘बड़बोला’ शब्द लिख दिया था. बस इसी ‘जुर्म’ में उनपर आईटी एक्ट के तहत मुक़दमा चल रहा है. यानी छत्तीसगढ़ में बोलने की आज़ादी को सरकार ख़तरा के तौर पर देखती है और यहां ‘असहमति’ को कोई सम्मान नहीं है.
दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां के पत्रकारों की तन्ख्वाहें या तो बेहद कम है या है ही नहीं. ऐसे में यहां के अधिकतर पत्रकार पत्रकार कम, ठेकेदार ज़्यादा बन चुके हैं. तेन्दू पत्ते से लेकर ज़मीनों, रिहाईशी इमारतों, सड़कों व पुलिया तक के ठेके इनके नाम हैं.
यहां मुझे जितने भी पत्रकार मिलें, सबकी कुछ न कुछ कहानी थी. दोरनापाल के राजा राठोड़ को इन दिनों एक पुलिया की ठेकेदारी मिली हुई है. लेकिन वो इस ठेके से ज़्यादा खुश नहीं हैं. पता करने पर मालूम पड़ता है कि नक्सलियों को किसी गांव में पुलिया का बनना पसंद नहीं है.
कोंटा के असलम के पत्रकार बनने की कहानी भी काफी दिलचस्प है. वो पहले इलेक्ट्रिशियन थे, लेकिन अब एक स्थानीय अख़बार के सीनियर पत्रकार हैं. दसवीं पास असलम को तक़रीबन 12 साल से पत्रकारिता करने का अनुभव है.
वो बताते हैं कि जब वो इलेक्ट्रिशियन का काम कर रहे थे, तब उन्हें सलवा-जुडूम में शामिल होने के लिए दबाव डाला गया. लेकिन वो शामिल होना नहीं चाहते थे. ऐसे में पत्रकार बनना उन्हें एक अच्छा विकल्प लगा. बस यहीं से उनके पत्रकारिता जीवन की शुरूआत हो गई.
कोंटा के ही ओलम नागेश भी दसवीं पास हैं. यह यहां बतौर युवा पत्रकार उभर रहे हैं. किसी ने इनके ख़िलाफ़ पुलिस में एक झूठी शिकायत कर दी तो पुलिस ने उन्हें थाने बुला लिया. अब उनकी हर गतिविधी पर ख़ास नज़र रखी जाती है.
एक और पत्रकार नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर बताते हैं कि –‘वो अब पत्रकारिता से ऊब चुके हैं. लेकिन चाहकर भी इस पेशे को छोड़ नहीं सकते. अगर बाहर से कोई रिश्तेदार भी उनके घर उनसे मिल आ गया तो पुलिस उसकी इंक्वायकी शुरू कर देती है.’
कोंटा के ही एक पत्रकार के बड़े भाई इन दिनों जेल में हैं. पेशे में यह भी पत्रकार ही हैं. पुलिस ने उन्हें नक्सिलयों का समर्थक बताकर जेल में डाल दिया है. हालांकि यहां के स्थानीय लोगों का कहना है कि पुलिस ने इन्हें झूठा फंसाया है.
सच पूछे तो छत्तीसगढ़ के इन बेहद दुर्गम व पेचीदा नक्सली इलाक़ों की रिपोर्टिंग दिल्ली में बैठे मीडिया के बस की बात नहीं है. ये वही कर सकता है जो यहां के हालातों की बारीकियां समझ सकता है या खुद इसी का हिस्सा है. ऐसे में ये स्थानीय पत्रकार लगभग तबाह हो चुके इस भूभाग को फिर से खड़ा करने व विकास की नई रोशनी देने में बेहद ही महत्वपूर्ण भूमिका सकते हैं. मगर इस भूमिका पर किसी का ध्यान नहीं है. इन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने-अपने स्वार्थों के लिए शोषण का औज़ार बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है. ये सिलसिला न सिर्फ़ लगातार जारी है, बल्कि हर बीतता दिन इसे और भी धार देता जा रहा है. इस बीच यहां के पत्रकारों की मांग है कि सरकार ‘पत्रकार सुरक्षा क़ानून’ बनाए, जिससे छत्तीसगढ़ के पत्रकारों का दमन बंद हो. इसके लिए यहां ‘पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति’ संघर्षरत है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इनका संघर्ष एक दिन रंग ज़रूर लाएगा और छत्तीसगढ़ के पत्रकार भी अपने पत्रकारिता धर्म का सही रूप में पालन कर सकेंगे.