लालकृष्ण आडवाणी के पास सीमित प्रतिभा है, यह संघ को शुरू से पता है
दिवाकर
राष्ट्रपति चुनाव ख़त्म हो जाने के बाद भी लालकृष्ण आडवाणी को लेकर नरेन्द्र मोदी की व्यापक आलोचना हो रही है. कहा यह जा रहा है कि मोदी ने आडवाणी को गुरु दक्षिणा नहीं दी.
भाजपा में नेताओं का जो वरिष्ठता क्रम बना है, उसमें आडवाणी के राष्ट्रपति बनने को लेकर क़यास लगाया जाना उचित ही था. वैसे, मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही आडवाणी को राष्ट्रपति बनाए जाने के क़यास लगाए जा रहे थे, लेकिन न तो मोदी और न ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस बारे में कभी कोई औपचारिक–अनौपचारिक घोषणा की.
मोदी ने आडवाणी का नाभ भी इस पद के लिए विचार लायक क्यों नहीं समझा. इसके पीछे तीन कारण हैं. वैसे, इनमें से दो कारण तो बहुत साफ़ हैं —एक, अयोध्या मुक़दमे को लेकर हाल में हुए घटनाक्रम ने आडवाणी की राह में रोड़ा अटकाया. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जिस तरह मुक़दमा चलाए जाने की प्रक्रिया तेज़ हुई, उसके बाद स्वभावतः आडवाणी के लिए रास्ता कठिन हो गया. इस मुक़दमे में उमा भारती भी आरोपी हैं और उन्हें ढोना मोदी के लिए पहले से ही मजबूरी है. कोई नया सिरदर्द मोल लेना मोदी के लिए उचित नहीं होता.
दो, आडवाणी के सिर ताज पहनाकर मोदी अन्य बुजुर्ग नेताओं की उम्मीदों को हवा देना भी नहीं चाहते. मुरली मनोहर जोशी अपने को आडवाणी के समकक्ष बताने से क़तई परहेज़ नहीं करते, बल्कि यह दावा भी करते रहते हैं कि उन्होंने आडवाणी से ज्यादा त्याग–तपस्या की है.
अटल बिहारी वाजपेयी ने इसका भरपूर फ़ायदा उठाया और आडवाणी को जब भी कमतर दिखाने की ज़रूरत महसूस हुई, जोशी का उपयोग किया. इस मामले में मोदी चतुर हैं. वे जोशी को तवज्जो ही नहीं देते. हां, यह ज़रूर है कि जोशी ख़ेमा अब भी अपने नेता की मान–मर्यादा की बात कहता रहता है. वैसे, दोनों ही ख़ेमे के लोग मोदी की चरण वंदना अधिक करते दिखते हैं क्योंकि अब अपने–अपने नेताओं से उन्हें कुछ मिलने की उम्मीद तो है नहीं.
लेकिन असली वजह तीसरी है जिस ओर लोगों का ध्यान सबसे कम गया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आडवाणी को अब ज़रा भी तवज्जो देने के हक़ में नहीं है. भले ही यह आम धारणा हो कि आडवाणी को आगे बढ़ाने में संघ की अहम भूमिका रही है, लेकिन सच्चाई यह है कि संघ को भी आडवाणी की सीमित प्रतिभा का पूरा अंदाज़ा रहा है और इसीलिए उसने एक बार छोड़कर आडवाणी पर कभी दांव नहीं लगाया. एक बार उसने उस वक़्त दांव लगाया जब उसके पास और कोई विकल्प था ही नहीं.
संघ को लेकर बहुत सारे मिथ हैं. उनमें यह भी एक है कि उसकी इजाज़त के बिना पूरे परिवार में तो पत्ता ही नहीं हिलता, लेकिन जब–जब उसके कार्यकर्ता मेहनत करते हैं, भाजपा के पक्ष में ज्वार बहा देते हैं.
यह कितना सही या ग़लत है, यह विचार का अलग विषय है. लेकिन इन्हीं तर्कों के आधार पर यह समझना ज़रूरी है कि आडवाणी पर संघ का भरोसा क्यों और कैसे नहीं है. राम मंदिर के नाम पर सुविचारित हिंसक आंदोलन के समय आडवाणी की क्षमताओं का पूरा उपयोग किया गया. लेकिन संघ को अंदाज़ा था कि इससे आगे के काम के लिए आडवाणी कम उपयोगी हैं. इसीलिए उन्हें साफ़ संदेश दे दिया गया और खुद आडवाणी ने प्रधानमंत्री–पद के लिए वाजपेयी का नाम आगे किया.
यह सोचने वाली बात है कि संघ अगर सचमुच उतना ही क़द्दावर है जितना उसे बताया जाता है, तो उसकी इच्छा या उसके निर्देश के बिना आडवाणी यह बात कह सकते थे? तर्क यह दिया जाता है कि आडवाणी ने तथाकथित सेकूलर छवि और जनता से संवाद की बेहतर क्षमता की वजह से वाजपेयी का नाम आगे किया.
आम तौर पर यह तर्क गले के नीचे उतरता भी है. लेकिन यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि वाजपेयी ने जिस तरह अपने को राम मंदिर आंदोलन से अलग दिखाने की सार्वजनिक कोशिश की थी, उसके बाद संघ उन पर क्यों दांव लगाना चाहता? यह पहला उदाहरण है कि संघ नेतृत्व का उस वक़्त भी आडवाणी पर भरोसा नहीं था.
संघ ने दूसरी बार आडवाणी का तब इस्तेमाल किया जब जिन्ना प्रकरण हुआ. संघ के लाडले माने जाने वाले आडवाणी अचानक ही जिन्ना के बारे में सद्वचन का उद्गार नहीं कर रहे थे. वाजपेयी का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था. भाजपा में ऐसा कोई चेहरा नहीं था जिसे आगे किया जा सके. जोशी का क़द आडवाणी की तुलना में सब दिन कम रहा है. ऐसे में संघ को वाजपेयी का फ़ौरी विकल्प चाहिए था. आडवाणी ने पाकिस्तान में जिन्ना की मज़ार पर जाकर जो बातें कहीं, उसके पीछे उन्हें वाजपेयी–जैसा बनाने की चाहत थी.
आडवाणी के साथ–साथ संघ को भी मालूम था कि इससे विवाद होगा. और वह हुआ भी. जसवंत सिंह जैसे इक्का–दुक्का नेताओं को छोड़कर कोई उनके साथ नहीं आया. आडवाणी को सभी पद छोड़ने पड़े और लोगों को लगा कि आडवाणी ने अपने पैरों को खुद ही कुल्हाड़ी पर दे मारा है. अब भी कई लोग उसी रूप में इस घटना को याद करते हैं. लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि बमुश्किल चार साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की तरफ़ से प्रधानमंत्री–पद का उम्मीदवार कौन था. जिन्ना प्रकरण के समय भाजपा से तमाम पद छीनने के पीछे अगर संघ का निर्देश था, तो आडवाणी को फिर उसने कैसे और क्यों आगे आने की इजाज़त दे दी?
हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद का माहौल बनाकर मोदी को आगे करने से पहले आडवाणी पर दांव लगाने का कारण संघ के पास कोई विकल्प नहीं होना था. मोदी को भाजपा में उभारने के साथ ही वह मजबूरी ख़त्म हो गई. समय–समय पर जब–तब नाराज़ हुए आडवाणी को शांत करा दिया गया, लेकिन उन्हें उससे अधिक कभी तरजीह नहीं दी गई.
भले ही डेढ़ साल से जब–तब आडवाणी का नाम राष्ट्रपति–पद के लिए उपयुक्त और सबसे मज़बूत उम्मीदवार के रूप में लिया जाता रहा, जब भाजपा में इस पर वास्तविक रूप से विचार–विमर्श आरंभ हुआ, वे रेस में कहीं नहीं थे.
संघ को सब दिन अंदाज़ा रहा कि आडवाणी उसके प्रति निष्ठा तो रखते हैं लेकिन उनके पास सीमित प्रतिभा है. उनका जितना उपयोग किया जा सकता था, किया जा चुका है. वे अब सभा–समारोहों में शो पीस लायक भर ही हैं. इससे अधिक उनकी ज़रूरत नहीं है. इसलिए आडवाणी को कुछ नहीं मिल पाया. दरअसल, उन्हें कुछ मिलना था भी नहीं.
(लेखक दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं. इनसे [email protected] पर सम्पर्क कर सकते हैं.)