‘अल-क़ायदा चीफ़’ के घर का आंखों देखा हाल…

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

सम्भल : सम्भल का दीपा सराय मुहल्ला… इसकी साफ़-सुथरी चौड़ी सड़क से अभी-अभी मजलिस के उम्मीदवार का काफ़िला गुज़रा है. पास ही एक कमरे में बैठकर यहां के मुस्लिम मियां किसी चुनावी विश्लेषक की तरह मुझे यहां के चुनावी समीकरण को समझाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन उनके इस ‘ज्ञान’ में मुझे इस वक़्त कोई ख़ास मज़ा नहीं आ रहा है. मेरा ध्यान इस ओर अधिक है कि कैसे अल-क़ायदा के तथाकथित ‘चीफ़’ के घर जाकर देखा जाए कि अल-क़ायदा वालों ने अपने भारतीय चीफ़ के जेल जाने के बाद कैसे मदद की है.


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दरअसल, ये दीपासराय वही इलाक़ा है जहां के दो लोगों को 2015 के दिसम्बर महीने में जांच एजेंसियों ने आतंकी समूह अल-क़ायदा से जोड़ा था. पुलिस का कहना था कि दीपासराय में ही अल-क़ायदा के दक्षिण एशिया के प्रमुख मौलाना आसिम उमर उर्फ़ सनाउल हक़ का भी घर है. वहीं दीपासराय के मो. आसिफ़ को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने दिल्ली में यह कहते हुए गिरफ़्तार किया था कि आसिफ़ अल-क़ायदा के भारतीय उपमहाद्वीप के संस्थापकों में से एक है.

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यहां यह भी बताते चलें कि सम्भल के दीपासराय को देख किसी पॉश कॉलोनी के होने का अहसास होता है. यहां पतली ही सही मगर साफ़-सुथरी पक्की सड़कें हैं, जो आमतौर पर अन्य मुस्लिम इलाक़ों में नज़र नहीं आतीं. आलीशान मस्जिद व मदरसे, इलाक़े का पूरा आसमान मिनारों से भरा पड़ा है. सड़कों पर नक़ाबपोश बच्चियां व औरतें लेकिन ज़्यादातर बच्चियों के कंधों पर किताबों का बैग या हाथों में किताबें ही नज़र आ रही हैं. शायद यही सम्भल के इस मुहल्ले की अपनी पहचान है, लेकिन अचानक एक ‘झटके’ ने इस पहचान को पीछे धकेल दिया है. अब ये मीडिया जगत में तो अल-क़ायदा चीफ़ के मुहल्ले के नाम से ही अधिक मशहूर है.

खैर, मुस्लिम भाई मुझे आसिफ़ के बड़े भाई सादिक़ के घर ले जाते हैं. इस वक़्त दिन के 12 बजे हैं. लेकिन सादिक़ अभी भी सो रहे थे. घर में जैसे ही दाख़िल हुआ तो देखा कि आसिफ़ के बुजुर्ग अब्बा अताउर रहमान खड़े होकर चुल्हे के पास ही खाना खा रहे हैं. पता नहीं क्यों, वो अपने खाने की प्लेट मुझसे छिपाने की कोशिश में लगे हुए थे. लेकिन इसमें वो कामयाब नहीं हो सके. उनकी प्लेट में सब्ज़ी नदारद थी. चावल के साथ सिर्फ़ दाल थी और वो भी उस चावल में काफी कम पड़ रही थी.

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सादिक़ मियां, अभी भी नींद में ही लिहाफ़ से सर निकाल कर झांक रहे हैं. जैसे ही मैंने परिचय दिया वो तुरंत उठकर बैठ गए और कहने लगे कि सम्भल वाली आपकी रिपोर्ट मैंने पढ़ी है. प्रिन्ट आउट निकलवा कर रखा हूं.

मैं उनसे माफ़ी के साथ पूछता हूं —आपकी लेडिज टेलर वाली दुकान कहां गई? आप अभी तक सो रहे हैं, तबीयत तो ठीक है ना…?

वो बोलते हैं —तबीयत बिल्कुल सही है भाई. मेरी रात की ड्यूटी होती है ना, इसलिए दिन में सोता हूं. अभी ही तो सुबह के 10 बजे सोया हूं.

ड्यूटी? हां, वो लेडिज टेलर वाली दुकान तो उसी वक़्त बंद हो गई थी. अब काम ले लो और न करो तो ग्राहक ख़राब हो रहे थे. और महीने में 4-5 बार दिल्ली जाना पड़ता है. इस भाग-दौड़ में कहां काम हो पाता है. अब एक ट्रांसपोर्ट कम्पनी में काम करता हूं. गाड़ी व सामान की देख-रेख करना होता है.

कितना मिलता है? भाई, 7 हज़ार रूपये महीना है. रोज़ थोड़ा ओवरटाईम कर लेता हूं तो 100 रूपये अलग से मिल जाता है. मिलाकर 10 हज़ार हो ही जाता है.

आसिफ़ के केस के बारे में पूछने पर बताते हैं कि अभी भी सिर्फ़ तारीख़ ही मिल रही है. तारीख़ पर भी कभी जज साब छुट्टी पर होते हैं तो कभी हमारे केस का नंबर ही नहीं आता.

आपके वकील कौन हैं? इस सवाल के जवाब में सादिक़ कहते हैं कि जमीअत वालों ने इस केस में वकील रखा है. एम.एस. खान साहब इस केस को देख रहे हैं. वो आगे यह भी बताते हैं कि वकील का तो पैसा नहीं देना पड़ता है, लेकिन दिल्ली आने-जाने का खर्चा तो हम खुद ही उठाते हैं. पिछले एक साल में 50 से अधिक बार दिल्ली जा चुका हूं.

आप लोग तो जानते ही हैं कि हम पत्रकार बहुत मतलबी होते हैं. मैंने भी अपने मतलब का ध्यान रखते हुए कहा कि भाई अगर नाराज़ न हो तो आसिफ़ की बीवी से भी मिला देते. यहां बताते चलें कि आसिफ़ की बीवी आफ़िया परवीन पास के ही एक मुहल्ले में रहती हैं.

सादिक़ बेचारे आंख मलते हुए बिस्तर छोड़ते हैं और वैसे ही चलने को तैयार हो जाते हैं. मैं कहता हूं कि भाई कम से कम आंख पर पानी तो मार लो. इतने में देखता हूं कि पिता अताउर रहमान खाना ख़त्म करके पास में ही मायूस से बैठे हैं. मैंने उनसे बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. इतने में सादिक़ ने कहा कि मत पूछिए, वो परेशान हो जाते हैं. फिर वो सो भी नहीं पाएंगे.

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सादिक़ जैसे ही मेरे साथ घर से बाहर निकलते हैं, सामने के घर में बैठे एक शख़्स इशारों-इशारों में पूछते हैं कि कहां? सादिक़ का कहना था कि सब ठीक है. ये जानने वाले हैं.

फिर सादिक़ खुद ही मुझे बताते हैं कि क्या है कि कल हमारे मुहल्ले में गुजरात एटीएस आई थी. इसलिए सामने वाले ने पूछा. क्या पता उन्होंने आपको भी एटीएस का आदमी समझ लिया हो. इतना बोलकर मुस्कुराते हैं और फिर बोलते हैं कि मुहल्ले के लोगों का सपोर्ट तो मिलता है, लेकिन मदद के लिए खुलकर सामने नहीं आते.

बात करते-करते हम वहां पहुंच जाते हैं, जहां आसिफ़ की बीवी आफ़िया परवीन रहती हैं. आफ़िया अभी अपने बेटे के लिए दवा लेने के लिए निकल रही थीं, लेकिन हमारे पहुंचने के कारण रूक गईं.

किसके लिए दवा लेने जा रही हैं? आपकी तबीयत तो ठीक है? जी भाई, मैं तो बिल्कुल सही हूं. मेरा बेटा बीमार है. उसके किडनी में पथरी हो गई है.

तो उसका इलाज कहां कर रही हैं? पास में ही डॉ. मुजीब हैं. वो इसकी फ़ीस नहीं लेते और उनके यहां दवा भी सस्ती है. बस 30 रूपये की दवा देते हैं.

बच्ची के बारे में पूछने पर वो बताती हैं कि स्कूल गई है. कायनात स्कूल वालों ने उसकी भी फ़ीस माफ़ कर दी है. लेकिन मेरे बच्चे की पढ़ाई छूट गई.

बताते चलें कि आफ़िया के दो बच्चे हैं. एक बेटा जो 11 साल का है और एक बेटी जो अब 8 साल की हो गई है. पैसे के तंगी की वजह से आफ़िया ने अपने बेटे की पढ़ाई छुड़वा दी थी. लेकिन बच्ची को पढ़ाना ज़रूरी समझा. तब से बेटा आज तक स्कूल नहीं गया.

आगे आसिफ़ से मुलाक़ात के बारे में पूछने पर आफ़िया बताती हैं कि आज फिर ढ़ाई बजे दिल्ली निकलना है. कल की तारीख़ है. इसके बाद वो बताती हैं कि उनसे तो एक साल में सिर्फ़ 15 बार ही मिल पाई हूं. जेल से हर सोमवार व जुमेरात को 5 मिनट के लिए उनका कॉल आता है. बच्चों से ज़्यादा बात करते हैं. फिर बच्चों से बात करके रो देते हैं. अब उस 5 मिनट में मेरा बाकी टाईम तो उनको समझाने में निकल जाता है. वो भी घर के खर्च को लेकर परेशान ही रहते हैं…

तो आपके घर का खर्च कैसे चल रहा है? इस सवाल पर वो बोलती हैं —मेरा भाई थोड़ा-बहुत मदद कर देता है. ये घर मेरी बहन का है तो वो किराया नहीं लेती. वो होते तो अब तक घर बन गया होता. अब हमारा घर तो पता नहीं कभी बन भी पाएगा या नहीं.

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इतने में उनका 11 साल का बेटा नहाकर आता है. अम्मी के सहारे पैंट पहनता है. तभी अचानक उसकी नज़र मेरे सामने ही रखी उसके अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट पर पड़ती है और वो गुस्से में उसे उठाकर फेंक देता है.

ये पूछने पर कि आपको गुस्सा क्यों आया? वो ख़ामोश रहता है. आफ़िया उसे प्यार से पुचकारते हुए कहती हैं कि बेटा, गुस्सा नहीं करते. फिर वो मुझे बताती हैं कि हर वक़्त ऐसे ही गुस्सा करता रहता है. इसको गुस्सा इस बात पर आता है कि अब्बा वापस क्यों नहीं आ रहे हैं.

इतना बोलते ही उसकी आंखें डबडबा जाती हैं. अपने आंखों के आंसुओं को पोंछते हुए बोलती हैं कि आज बच्ची के स्कूल में पैरेंट्स मीटिंग में पैरेन्ट्स को बुलाया गया था. अब मुझे अकेले जाना अच्छा नहीं लगता. आज तो मेरी बच्ची भी रो रही थी… ये बोलते ही अब वो पूरी तरह से रो पड़ती हैं. कुछ देर के लिए मेरे आंखों से भी आंसू के चंद क़तरे निकल आते हैं. लेकिन तभी अपने पत्रकारिता धर्म को याद करते हुए आंखों से आंसू पोछता हूं और अपना अगला सवाल दाग़ देता हूं.

क्या उम्मीद लगती है आपको? इस सवाल पर वो अपने आंखों के आंसुओं को पोंछते हुए कहती हैं कि जब वकील से मिलती हूं तो काफ़ी उम्मीद दिखती है कि वो जल्द ही घर लौट आएंगे. लेकिन कल अख़बार में देखा तो… इतना कहते ही फिर से वो रोने लगती हैं.

लेकिन मैं भी एक निर्दयी पत्रकार की तरह फिर अपना अगला सवाल दागता हूं. —अख़बार में क्या आया था? वो फिर आंसुओं को पोंछते हुए कहती हैं कि जा बेटा बग़ल वाली आंटी से कल का पेपर मांग कर ला दे…

इतने में सादिक़ आ जाते हैं. मैंने थोड़ा सा उस ग़मगीन माहौल को बदलने की मक़सद से अपना टॉपिक बदलने की सोची. इस बार चुनाव में वोट किसको देंगी?

मेरे इस सवाल पर आफ़िया अचानक से भड़क जाती हैं. गुस्से में बोलती हैं —वोट तो मैं किसी को भी नहीं दुंगी. जब हमें हक़ ही नहीं मिल रहा है तो हम वोट क्यों दे? फिर आगे बोलती हैं कि —सब दोगले नेता हैं. कभी कोई नहीं आया. शुरू में बर्क़ साहब ने आवाज़ उठाई लेकिन अब वो भी खामोश ही नज़र आ रहे हैं…

मैं आफ़िया की इन बातों को सुनकर सोचने लगा कि इन्हें कैसे बोलूं कि आज सुबह ही शफ़ीक़ुर रहमान बर्क़ से मिला था और मेरे एक इंटरव्यू में इस मसले पर सवाल पूछने पर उनका कहना था कि बच्चे जेल में हैं, इंशाअल्लाह छूट जाएंगे…

आफ़िया ने अभी बोलना बंद ही किया था कि सादिक़ ने कहा —चंद भेड़ियों को चुनने के लिए भेड़ों को आज़ादी होती है. अपने-अपने भेड़ चुन लो, इसी को यहां इलेक्शन कहते हैं…

इतने में बच्चा अख़बार लेकर आ गया था. अख़बार में छपे उस ख़बर की हेडिंग थी —‘वर्ष 2015 में आतंकी नेटवर्क से जुड़ा था सम्भल का नाम’

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