अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
‘बदनसीबी यह है कि हम एक ऐसी जज़्बाती क़ौम हैं, जो हर मसले को जज़्बात की ऐनक से ही देखती है. वैसे जज़्बाती होना बुरा नहीं है, लेकिन हर मसला अगर जज़्बात के ही आईने से परखा जाएगा तो इल्म व हिकमत और दानिश हमसे रूठ जाएंगे…’
ये शब्द श्रीनगर के हज़रत बल दरगाह के अहाते में बैठे 80 साल के एक कश्मीरी बुजुर्ग के हैं, जो अख़बार पढ़ने में व्यस्त हैं. लेकिन अख़बार पढ़ते-पढ़ते ही बोलते हैं, ‘बेटा! अभी बला टली नहीं है. हां, इतना ज़रूर है कि जिस रफ़्तार से एहतजाज का सिलसिला शुरू हुआ था, उसमें कमी ज़रूर आई है.’
‘इस एहतजाज से आपकी ज़िन्दगी पर क्या फ़र्क़ पड़ा? आप इसे किस तरह देखते हैं?’ इस सवाल को सुनते ही मुस्कुराते हैं और हंसते हुए कहते हैं, ‘क्या-क्या न सहे हमने सितम… सख़्त गर्मी का ज़ोर भी देखा, मौसम-ए-ख़ेज़ां से आश्ना हुआ, चिले कलान की यख-बस्ता हवाएं महसूस कीं और बर्फ़ के नज़ारे भी देखे… ये सवाल जाकर सरकारों से क्यों नहीं पूछते कि उन्होंने 2014 के सैलाब के बाद इस कश्मीर के लिए किया क्या है?’
इस बुजुर्ग ने इसके बाद हमसे बात करने से मना कर दिया और फिर से अख़बार के पन्नों में खो गए.
‘अपना नाम तो बता दीजिए…’ वो फिर से मुस्कुराते हुए कहते हैं, ‘नाम जानकर क्या करोगे बच्चे? तुम मीडिया वालों को सच्ची ख़बर तो लिखनी ही नहीं है.’
उस बुजुर्ग की इस बात ने मुझे अंदर तक झकझोर कर रख दिया और सच्चाई यह है कि गुज़रे 6 महीने के ‘तशद्दुद’ ने इस कश्मीर को तोड़कर रख दिया है. आम कश्मीरी का जीवन लगभग बरबादी के मुहाने पर आ चुका है. रोज़गार पर इस क़दर बुरा असर पड़ा है कि ग़रीब से लेकर पैसे वाले तक की कमर टूट चुकी है.
घाटी में सैलानियों की आवाजाही लगभग न के बराबर है. गुज़रा टूरिस्ट सीज़न भी इसी उतार-चढ़ाव के भेंट चढ़ गया. उसके पहले जो सैलाब आया था, उसने कश्मीर को कई साल पीछे धकेल दिया था. ऐसे में कश्मीरियों के पास अपने ज़ख़्मों पर मरहम तक लगाने की ताक़त नहीं बची है.
श्रीनगर के हैदरपुरा में रहने मोहम्मद अशरफ़ लोन दो टैक्सियों के मालिक हैं. वो कहते हैं, ‘बदक़िस्मती से हमारा हर सीज़न ख़राब हो जाता है. 2008 में पूरा साल ख़राब रहा, जिसका असर 2009 के सीज़न पर भी पड़ा. 2010 में अफ़ज़ल गुरू का मामला आ गया. 2014 के सैलाब ने हमें तबाह व बर्बाद कर दिया, जिससे हम 2015 तक उभर पाएं और फिर 2016 का तशद्दुद… इसके लिए पॉलिटिक्स ज़िम्मेदार है.’
अशरफ़ को कथित मेनस्ट्रीम मीडिया से काफी शिकायतें हैं. वो कहते हैं, ‘यहां एक अंडा भी फूटता है तो मीडिया इसे बड़ा मुद्दा बना देता है. आपने कभी देखा है कि अमरनाथ यात्रियों के साथ कश्मीरियों ने कुछ किया हो. खैर, हम चाहते हैं कि 2017 हमारा अच्छा हो. ज़्यादा से ज़्यादा तादाद में यहां टूरिस्ट आएं. आप आकर देखें कि यहां के लोग कैसे हैं. हम कैसी मेहमाननवाज़ी करते हैं. हम मेहमाननवाज़ी में नंबर वन हैं.’
सोनमर्ग के क़रीब एक गांव में रहने वाले मुश्ताक़ बट्ट की कमाई का ज़रिया अमरनाथ यात्रा है. वो इस यात्रा के दौरान टेन्ट लगाते हैं. उनके मुताबिक़ ये काम सिर्फ़ दो महीने का होता है. बाक़ी चार महीने सीज़न में टूरिस्टों को घोड़े पर घुमाने का काम करते हैं.
वो बताते हैं कि यहां के लोग टूरिज्म पर ही निर्भर हैं. यहां खेतीबाड़ी न के बराबर है. ऐसे में हर कश्मीरी सीज़न के दिनों में कमाता है तो फिर सर्दियों में घर बैठकर खाता है. लेकिन इस बार के छह महीनों में कश्मीरी ऐसा नहीं कर सके हैं. ऐसे में इनको चिंता सता रही है कि इस बर्फ़बारी में भी सैलानी नहीं आए तो इनके पेट की भूख का क्या होगा?
श्रीनगर से तक़रीबन 29 किलोमीटर की दूरी पर अवंतीपुरा में अलबैक रेस्टोरेन्ट चलाने वाले सज्जाद हुसैन बट्ट का कहना है कि —‘इन छह महीनों में मेरा रेस्टोरेन्ट पूरी तरह से बंद रहा. इसका सीधा फ़र्क़ हमारी रोज़ी-रोटी पर पड़ा है. इस दौरान हमें घर बैठ जाना पड़ा.’
पहलगाम में घूम-घूमकर कपड़े बेचने का काम करने वाले इब्राहिम लोन का कहना है, ‘भारत सरकार यहां कोई ध्यान नहीं दे रही है. हम पूरी तरह से टूरिज्म पर निर्भर हैं. जब टूरिस्ट ही नहीं आएगा तो हम ज़िन्दा कैसे रहेंगे? सरकार को यहां के टूरिज्म को बढ़ावा देने की ज़रूरत है.’
पहलगाम में ही मिले मुदस्सिर का कहना है, ‘हमारे पास पैसे नहीं हैं. हम सर्दी के छह महीने कैसे काटे? सरकार की ओर से भी कोई मदद नहीं मिली. हमें कोई पूछने तक नहीं आता कि खाने को कुछ है या नहीं है.’
मुदस्सिर श्रीनगर व उसके आस-पास के इलाक़ों में जाकर मजदूरी का काम करते हैं. इनके घर में छह सदस्य हैं, जिनमें इनके दो बच्चे भी शामिल हैं.
श्रीनगर में शॉल व कारपेट की एक शो रूम चलाने वाले मेराज भट का भी कहना है, ‘हम पिछले छह महीनों से खाली बैठे हैं. हमारे पांच महीने पूरे ख़राब हो गए.’ वो बाहर से आने वाले सैलानियों से अपील करते हुए कहते हैं, ‘टूरिस्ट यहां सबसे अधिक सुरक्षित हैं. आप यहां बेफ़िक्र होकर आएं. कश्मीर की वादियां आपका इंतज़ार कर रही हैं.’
मुग़ल गार्डेन निशात के सामने चाय की दुकान चलाने वाले मंज़ूर अहमद कहते हैं, ‘हमारी ज़िन्दगी पर इन छह महीनों का काफी ज़्यादा असर पड़ा है. हमारा सब कुछ ख़त्म-सा हो गया है.’ मंज़ूर के परिवार में 15 सदस्य हैं और पूरा परिवार इनकी इसी चाय की दुकान पर निर्भर है.
आंखों में डॉक्टर बनने का ख़्वाब लिए हुए बारहवीं में पढ़ने वाली फ़रहत वानी का कहना है कि —‘हम पूरे पांच महीने स्कूल नहीं जा सके. परीक्षा देना है कि लेकिन सिलेबस पूरा नहीं हुआ है. पता नहीं आगे क्या होगा.’
वो आगे बताती है कि —‘इन पांच महीने हम दुनिया से पूरी तरह कटे रहें. यहां मोबाइल व इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई. बिजली का भी कुछ अता-पता नहीं था. पानी भी कभी-कभार ही आता था. हम अपनी कितने तकलीफ़ों को बताएं. आप सुनते-सुनते पेरशान हो जाओगे…’
फ़रहत की आंटी का कहना है कि —‘ये दिन कैसे कटे हैं उस दर्द को मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती. सोते-जागते बस एक ही डर सताता है कि कहीं हमारे बच्चों का कुछ बुरा न हो जाए. अब अल्लाह ही हमारा मालिक है.’
पत्रकार मीर बासित हुसैन बताते हैं कि यहां लोगों की ज़िन्दगी 2008 से ही मुतासिर है. 2014 के सैलाब के बाद हालात थोड़े सुधरे ज़रूर थे, लेकिन फिर 2016 का वाक़या हो गया. 90 के दशक के डरावने दौर की झलक एक बार फिर से दिखाई देने लगी है.’
वो आगे बताते हैं, ‘अभी बर्फ़बारी हुई है. सरकार सोच रही है कि सबकुछ सही है, लेकिन सबकुछ सही नहीं है. ये सर्दी जैसे ही ख़त्म होगी, गर्मी हमारा इंतज़ार कर रही है. ये गर्मी काफी डरावनी होगी.’
आम कश्मीरियों की मानें तो सुरक्षा बलों का रवैया आज भी वैसा ही है. आम कश्मीरी और सुरक्षा बलों के बीच मानो जन्मजात दुश्मनी का रिश्ता हो और आने वाला वक़्त भी किसी तरह की राहत का गारंटी नहीं दे पा रहा है.
इन छह महीनों में कश्मीरियों के मरने की तादाद सरकारी आंकड़ों में चाहे जितनी हो, लेकिन यहां स्थानीय मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि 97 शहरी नागरिक सुरक्षा बलों व पुलिस की गोलियों का शिकार बन गए. कुछ पत्रकारों की नज़र में यह संख्या इससे भी अधिक है. यहीं नहीं, इस दौरान ज़ख्मी होने वालों की तादाद 16 हज़ार से भी अधिक हो चुकी है, जिनमें शिकारी बन्दूक से निकलने वाले छर्रों की वजह से ज़ख्मी होने वालों की तादाद 7 हज़ार और आंखों की रोशनी से महरूम हुए लोगों की तादाद 700 के क़रीब है. क़रीब 12 हज़ार कश्मीरियों को देशद्रोही नारे लगाने के जुर्म में गिरफ़्तार किया गया है. हालांकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ 2632 एफ़आईआर दर्ज करके 463 कश्मीरियों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत नज़रबंद किया गया, जिनमें 145 को रिहा किया जा चुका है लेकिन 318 अभी भी नज़रबंद हैं.
8 जुलाई से शुरू हुआ यह एहतजाज अभी भी जारी है. अब भी हर जुमे को जामा मस्जिद के बाहर एहतजाज किया जा रहा है. जानकारों की माने ये पूरी दुनिया का सबसे लंबा लगातार चलने वाला एहतजाज है. इससे पहले फिलिस्तीन में पूरे छह महीने के एहतजाज हुए थे.
इन एहतजाजों के बीच ज़मीन का जन्नत कहा जाना वाला कश्मीर इस तशद्दुद और फ़साद में ज़िन्दगी के दोज़ख़ में तब्दील होता जा रहा है. सियासी पार्टियां कभी इस तरफ़ तो कभी उस तरफ़ का खूंटा पकड़कर अपनी रोटियां सेंकने में मसरूफ़ हैं. वहीं कश्मीरियों की नज़र में राज्य सरकार केन्द्र सरकार की रबड़ स्टाम्प बन चुकी है. और केन्द्र की प्राथमिकताओं में न कश्मीर है और न कश्मीरियत.
कश्मीर का ये हाल उन लोगों से पूछिए जो इसकी आबो-हवा देखकर आए हैं. या जो इसी आबो-हवा में सांस ले रहे हैं. जिनकी यहीं आंखें खुलती है और वो यहीं के मिट्टी में दफ़नाए जाते हैं. तबाही का ये दर्द उनके चेहरे पर किसी ब्लू-प्रिंट की तरह छपा हुआ है. वक़्त को इसे पढ़ने की फ़ुर्सत नहीं है. निज़ाम को इसे समझने की ज़रूरत नहीं है. और हालात इस लिखावट को दिनों-दिन बद से बदतर करते जा रहे हैं. ऐसे में उम्मीद बस इतनी है कि आम कश्मीरी ही तबाही व बर्बादी के इस आलम से कश्मीर को बाहर निकालने की ख़ातिर एक रोज़ उठ खड़ा होगा. सकारात्मक तरीक़ों से जम्हूरियत के साथ सच्चा इरादा लेकर. शायद तभी कुछ बदलेगा.