वंदे-मातरम विवाद : कुछ सच जिनको जानना ज़रूरी है

शम्सुल इस्लाम

बंकिम चन्द्र चटर्जी द्वारा रचित गीत वंदे-मातरम फिर एक बार चर्चा में है. इस बार हलचल आरएसएस के प्रिय नारे हिंदुस्तान में रहना है, तो वंदे-मातरम कहना होगाको लेकर नहीं हो रही है बल्कि मद्रास कोर्ट के न्यायधीश एम.वी. मुरलीधरन के एक फैसले को लेकर है.


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उन्होंने यह आदेश दिया है कि राष्ट्र-गीत वंदे-मातरम को हर सरकारी/ग़ैर-सरकारी दफ़्तरों/संस्थानों/उद्योगों में हर महीने कम से कम एक बार गाना होगा. क्योंकि यह गीत मूल रूप से बांग्ला और संस्कृत भाषाओं में है, इसलिए इसे तमिल व इंग्लिश में अनुवाद करने के भी आदेश दिए गए हैं.

यहां यह जानना ज़रूरी है कि जिस केस में यह फैसला दिया गया है, उसमें इस गीत को गाने या न गाने से संबंधित किसी तरह की अपील नहीं की गई थी. क्या यह गीत शिक्षा संस्थाओं में अनिवार्य रूप से गाया जाए? इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट स्वयं 25 अगस्त को सुनवाई करने जा रही है.

भारत उन गिने-चुने देशों में से एक है, जहां विवादों से परे राष्ट्र-गान (जनगण मन) होने के बावजूद वंदे-मातरम एक राष्ट्र-गीत की स्वीकृति रखता है. इस गीत पर हर बार का विवाद इस बहस को ताज़ा कर देता है कि देश के मुसलमान इस देश-भक्ति के तराने को गाना नहीं चाहते हैं और इस तरह उनकी देश-भक्ति संदिग्ध है.     

यह हमारे देश की बदक़िस्मती है कि अगर किसी भी मुद्दे या विमर्श में मुसलमान या इस्लामी पहलू जुड़ जाए तो सेहतमंद बहस ना रहकर उग्र सम्प्रदायिक रूप ले लेती है. इन सब से बचने का एक तरीक़ा यह है कि हम इस गीत की रचना के इतिहास के साथ-साथ, इस के राष्ट्र-गीत बनने और इस पर उत्पन्न हुए विवाद के इतिहास के बारे में कुछ बुनयादी सच्चाइयों से आत्मसात हों. 

बंकिम का व्यक्तित्व और वंदे-मातरम की रचना का इतिहास 

बंकिम (1838-1894) पहले हिंदुस्तानी थे, जिन्हें इंग्लैंड की रानी द्वारा भारतीय उपनिवेश को अपने अधीन लेने के बाद 1858 में डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्त किया गया. वे 1891 में रिटायर हुए और अंग्रेज़ शासकों द्वारा राय बहादुरऔर CIE जैसी उपाधियों से सम्मानित किए गए.

वंदे-मातरम गीत उन्होंने 1875 में लिखा जो बांग्ला और संस्कृत में था. यह गीत बाद में बंकिम ने अपने प्रसिद्ध लेकिन विवादस्पद कृति आनंदमठ‘ (1885) में जोड़ दिया. इस गीत से जुड़ा एक रोचक सच यह है इसमें जिन प्रतीकों और जिन दृश्यों का का ज़िक्र है, वे सब बंगाल की धरती से ही सम्बंधित हैं.

इस गीत में बंकिम ने 7 करोड़ जनता का भी उल्लेख किया जो उस समय बंगाल प्रान्त (जिसमें उड़ीसा-बिहार शामिल थे) की कुल आबादी थी. इसी तरह जब अरबिंदो घोष ने इसका अनुवाद किया तो इसे बंगाल का राष्ट-गीतका टाईटल दिया. प्रसिद्ध बांग्ला लेखक नरेस चंद्र सेनगुप्ता जिन्होंने 20वीं शताब्दी के आरम्भ में आनंदमठका अंग्रेजी में अनुवाद किया तो साफ़ लिखा कि इस गीत को पढ़ने के बाद यह जानकर दुःख होता है कि बंकिम बांग्ला राष्ट्रवाद से इतने ग्रस्त थे कि उन्हें भारतीय-राष्ट्रवाद की परवाह नहीं थी. बंकिम के जीवन काल में इस गीत को ज़्यादा मक़बूलियत नहीं हासिल हुई, इसके बावजूद कि रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसके लिए एक खूबसूरत धुन बनाई.

बंगाल के बंटवारे ने इस गीत को सचमुच में बंगाल का राष्ट्र-गीत बना दिया           

1905 में अंग्रेज़ सरकार द्वारा बंगाल के विभाजन के विरुद्ध उत्पन्न जनआक्रोश ने इस गीत विशेषकर इसके मुखड़े ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक हथियार में बदल दिया. हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर वंदे-मातरम और अल्लाहो-अकबर के नारों से अंग्रेज़ शासकों का जीना हराम कर दिया.

वंदे-मातरम का नारा उस समय सारे बंगाल में आग की तरह फैल गया, जब बारीसाल (अब बांग्लादेश में) किसान नेता एम. रसूल की अध्यक्षता में हो रही बंगाल कांग्रेस के प्रांतीय अधिवेशन पर अंग्रेज़ सेना ने वंदे-मातरम गाने के लिए बर्बर हमला किया. रातों-रात यह बंगाल ही नहीं, बल्कि सारे देश में गूंजने लगा.       

वंदे-मातरम पर विवाद की शरुआत        

इस सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता कि अनगिनत शहीदों ने जिनमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान शामिल थे, वंदे-मातरम गाते हुए फांसी के फंदों पर झूल गए. यह नारा साझे राष्ट्रवाद का मंत्र बन गया, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि इंक़लाब ज़िन्दाबाद…

20 वीं शताब्दी के दूसरे दशक आते-आते अंग्रेज़ विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन देश व्यापी रूप ले चुका था. इस से घबरा कर अंग्रेज़ शासकों और उनके भारतीय पिट्ठुओं ने हिन्दू राष्ट्रवाद बनाम मुसलमान राष्ट्रवाद के तम्बू गाड़ कर साझे राष्ट्रवाद को छिन्न-बिन करने का फैसला किया और इस रस्साकशी में वंदे-मातरम भी एक बड़ा मुद्दा बन गया. 

कांग्रेस जिसके नेतृत्व में स्वतंत्र आंदोलन चल रहा था. उसने वंदे-मातरम पर विभाजन को रोकने के गाँधी, नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद और सुभाषचन्द्र बोस को लेकर 1937 में एक समिति बनाई जिसने इस गीत पर आपत्तियां आमंत्रित कीं.

सबसे बड़ी आपत्ति यह थी की यह गीत एक धर्म विशेष के हिसाब से भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है. यह सवाल केवल मुसलमान संगठनों ने ही नहीं, बल्कि सिक्ख, जैन, ईसाई और बौद्ध संगठनों द्वारा उठाया गया. इसका हल यह निकला गया कि इस गाने के आरम्भ के केवल 2 अंतरे गए जायेंगे, जिसमें कोई धार्मिक पहलू नहीं है. लेकिन इससे हिन्दू और मुसलमान साम्प्रदायिक तत्व संतुष्ट नहीं हुए. आरएसएस/हिन्दू महासभा दोनों का ही यह कहना था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और यह पूरा गीत गना चाहिए. मुस्लिम लीग इसी हिन्दुत्वादी सोच को बहाना बनाकर साझे आज़ादी के आंदोलन से मुसलमानों को अलग रखने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए.   

कांग्रेस की इस समिति ने एक दूसरे बड़ी आपत्ति पर ख़ामोश रहना ही मुनासिब समझा. यह आपत्ति थी कि यह गाना बंकिम की एक ऐसी कृति से लिया गया है, जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा का गुणगान करता है और अंग्रेज़ी राज की वाहवाही.   

वंदे-मातरम पर हिंदुत्व टोली का दोग़लापन      

आरएसएस जो वंदे-मातरम के पूरे गाने की वकालत करता है, इसे राष्ट्रगान से भी उत्तम और ऊंचा बताता है और इसे अपने हिन्दू राष्ट्र के प्रोजेक्ट के अनुकूल पाता है. लेकिन उन्हें देश को ज़रूर बताना चाहिए कि अंग्रेज़ राज में इसके किस-किस नेता और स्वयंसेवकों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इस गाने को गाया, उनमें से कितने शहीद हुए और कितनों ने जेलों में सज़ाएं काटी.

सच तो यह है कि वंदे-मातरम के मौजूदा ठेकेदार, आज़ादी से पहले पूरे तौर पर मौन थे. हिन्दुत्वाद टोली के समस्या यह है कि प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत का राष्ट्रगान उनको खटकता है. इसके बरक्स वे वंदे-मातरम को खड़ा करना चाहते हैं. 

विवाद का समाधान

ज़रा भी मुश्किल नहीं है. 1937 में कांग्रेस द्वारा स्थापित समिति ने जो फैसला दिया था, उसको लागू किया जाये. मद्रास हाई कोर्ट ने भी इसी रौशनी में अपने फ़ैसले को स्पष्ट करना चाहिए.

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