फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
नई दिल्ली : भारत दुनिया भर में अपनी विविधताओं के लिए जाना जाता है. यहां का संविधान सबको अपनी धार्मिक पहचान रखने की आज़ादी देता है. लेकिन अब पिछले तीन साल से ये ‘पहचान’ ख़तरे में नज़र आ रहा है. हालत यह है कि देशभर में दाढ़ी-टोपी रखने और बुर्क़ा पहनने वाले नागरिक सकते में हैं और कहीं न कहीं चिंताओं से घिर रहे हैं. ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं, जिसमें मुस्लिम महिलाओं को अपने बुर्क़ा पहनने की क़ीमत का चुकानी पड़ी है. कई जगह लड़कियां अब बुर्क़ा पहनने से डर रही हैं.
जामिया के डेंटल डिपार्टमेंट की छात्रा रूबाब बताती हैं कि, दिल्ली जैसे जगह पर बुर्क़ा लगाकर मेट्रो में जाओ तो लोग ऐसे देखते हैं कि जैसे इंसान नहीं किसी दूसरे जगत की प्राणी को देख लिया हो. कई बार ज़ेहन में एक अजीब तरह का डर भी आता है. रूबाब दिल्ली के द्वारका इलाक़े से जामिया आती-जाती हैं.
वहीं बिहार की वहीदा इमाम कहती हैं, अपने शहर में तो कभी ऐसा महसूस नहीं होता पर शहर से बाहर जाने पर कमेंट सुनने को ज़रूर मिल जाते हैं. पहले ऐसा नहीं होता था.
एमबीए कर रही एक मुस्लिम छात्रा नाम न बताने की शर्त पर कहती हैं, मैं कॉलेज बुर्क़े में जाती हूं. शायद इसीलिए क्लास में मेरे ज़रिए पूछे जाने वाले सवाल का जवाब कुछ गैर-मुस्लिम टीचर बिल्कुल भी नहीं देते हैं. क्लास की दूसरी लड़कियां भी मुझसे बात करने में घबराती हैं. एक सेमेस्टर गुज़र जाने के बाद भी सिर्फ़ दो ही दोस्त बन पाई हैं. यहां छात्रों की मामूली सी कहासुनी पर मुल्ला-मुल्ली कहना तो अब आम बात हो गई है.
बीएड कर रही तरन्नुम कहती हैं कि, बुर्क़ा पहनने वालों की पहचान का मतलब ही अब लोगों ने बदल दिया है. समाज में बुर्के़ पहनने वालों के बारे में सिर्फ़ एक ही बात सोची जाती है कि जो लोग बुर्क़ा पहनते हैं, वो लोग कंजर्वेटिव मुस्लिम फैमिली से आते हैं. ऐसा सिर्फ़ गैर-मुस्लिम ही नहीं सोचते, बल्कि जो मेट्रो सिटी में मुस्लिम रहते हैं वो भी बुर्के़ के बारे में ऐसा ही सोचते हैं.
तरन्नुम आगे कहती हैं कि बुर्क़ा इस्लामिक पहनावे का एक हिस्सा है, लेकिन ये सोच लेना कि बुर्क़ा पहनने वाले पिछड़ी सोच वाले हैं तो ये ग़लत है. अजीब बात यह है कि यूपी में कई जगह हिन्दुत्ववादी संगठन के लोगों ने जान बुझकर बुर्क़ा पहने लड़कियों व औरतों के साथ मार-पीट की है.
सुम्बुल जो कि दिल्ली में पेशे से टीचर हैं. वो कहती हैं, बुर्क़ा एक पहनावा है, लेकिन सोशल मीडिया में जिस प्रकार पर्दानशीन महिलाओं को कमज़ोर, अबला और दबा हुआ के साथ पिछड़ा बताया जा रहा है, वो निंदनीय है.
वो आगे कहती हैं, क्या महिलाएं प्रगतिशील बनने के लिए मर्दों के तरह ड्रेस पहने या महिलाओं की ड्रेस मर्द पहने तब समानता आएगी?
बिहार में वार्ड पार्षद रह चुकी नूर जहां हुसैन कहती हैं, बुर्के़ को हमेशा से ही समाज द्वारा ग़लत अवधारणा से दिखाया गया है. पुराने फिल्मों से लेकर आज तक के फिल्म देखें तो हर ग़लत काम के लिए जैसे घर से भागने, छिपने, किसी से मिलने, चोरी करने जैसे काम के लिए बुर्के़ को सिम्बल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन कभी ये सवाल मुस्लिम समाज के लोगों ने उठाना ज़रूरी नहीं समझा.
आगे नूर जहां कहती हैं कि, कुछ दिन पहले तक आरएसएस की एक महिला का सोशल मीडिया पर बुर्क़ा पहने पूजा करने बहुत ख़बरें आ रही थी. चूंकि वो महिला बुर्के़ में थी, इसलिए बिना किसी सबूत के मुस्लिम क़रार दे दिया गया. उस औरत ने बुर्के का ग़लत इस्तेमाल कर एक ग़लत छवि मुस्लिम समाज के लिए पेश की. हालांकि ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है. किसी पहनावे को धर्म से जोड़कर देखना ग़लत और इस विचारधारा को बदलना बहुत ज़रूरी है.