आस मोहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
मेरठ : तारापुरी से मुझे रोडवेज़ बस अड्डे पर जाना था. रास्ते में ई-रिक़्शा ले लिया. ये रिक़्शा 14 -15 साल का एक बच्चा चला रहा था. रिक़्शे पर पीछे कुछ और लोग भी बैठे थे, इसलिए मुझे आगे ही बैठना पड़ा.
आदतन मैंने सवाल पूछना शुरू कर दिया. नाम क्या है तुम्हारा? जवाब मिला —ज़ीशान. उम्र क्या है तुम्हारी? — 16 का हूं भाई, 17 का होने वाला हूं.
अच्छा, मुझे तो लगा कि तुम्हारी उम्र तो 14 -15 साल ही होगी. पढ़ते हो? —जी, अभी 10+2 का एग्ज़ाम दिया हूं , मई में रिजल्ट आएगा.
10+2 और एग्ज़ाम! हमारे यहां तो लड़के इंटरमीडियट या बाहरवीं कह देते हैं. फिर मुझे लगा कि लड़का मेरठ का है, हवा दे रहा है.
अब क्या आगे करोगे? —‘बी.टेक’… हाई स्कूल में कितने प्रतिशत थे? —72%. इंशा अल्लाह इस बार भी फ़र्स्ट डिविज़न ही आएगी.
फिर रिक्शा क्यों? आईआईएमटी में एडमिशन के लिए 75 हज़ार चाहिए. इकट्ठे कर रहा हूँ.
पापा क्या करते हैं? —पॉलिटिशियन है. नाम अफ़सर अली. गांव जेई. बसपा के बाबू मुनक़ाद अली के साथ 25 साल से रहते हैं. कुछ नेताओं के भाषण लिखते हैं.
घर में कौन-कौन है? —10 भाई बहन हैं. 5 भाई. 5 बहन. 2 भाई और 3 बहन की शादी हो गयी है. 5 भाई में से 4 हाफिज़ हैं. सबसे बड़े वाले जावेद सऊदी में गाड़ी चलाते हैं. वो ही कह रहे हैं कि सिविल इंजीनियर बन जाओ. यहां आ जाना. 2 लाख से ज्यादा तनख्वाह मिलेगी.
बड़ा परिवार है. पैसे उधार ले सकते थे. आपके अब्बू मैनेज कर लेते. फिर रिक्शा क्यों चला रहे हो? —नहीं, अब्बू कुछ मैनेज नहीं करेंगे, वो उसूल पसंद हैं.
कब से चला रहे हो ये रिक़्शा? —3 महीने से…
कितने पैसे कमाए? —60 हज़ार. मेरे पास 25 हज़ार है. पहले रिक्शा किराये पर ली थी, अब ख़रीद ली है. 20 हज़ार रुपए से कम नहीं कमाता.
ज़ीशान की अगली बात मुझे चौंका देती है, —35 हज़ार रुपए कैबिनेट मिनिस्टर की तनख्वाह होती है, अगर वो बेईमानी न करें तो! और मैं 20 हज़ार रिक्शा चलाकर कमा रहा हूं. अब क्यों करूं नौकरी? और नौकरी देगा कौन? अभी तो 18 का भी नहीं हुआ हूं. और साथ में मुसलमान भी हूं.
मुसलमान भी हूँ मतलब? —कल गली के मुल्ला जी पास में शास्त्रीनगर में सब्ज़ी बेचने गये थे. कुछ लोगों ने रोक लिया. कहा टोपी पहनकर और दाढ़ी रखकर गली में सब्ज़ी मत बेचना. यह है मुसलमान होने का मतलब…
रिजल्ट कब तक आ रहा है? मई के लास्ट तक. तब तक पैसे इकट्ठा हो जायेंगे. हां, 20 और हो जायेंगे, फिर रिक्शा बेच दूंगा.
कोई परेशान तो नहीं करता? —करते हैं भाई, एक दिन चार औरतें बैठ गईं. जहां बोला वहां पहुंचा दिया. लेकिन उन्होंने किराया नहीं दिया. बोलने लगीं स्टाफ़! मैंने पूछा, कैसा स्टाफ़? तो चौराहे से एक सिपाही बुला लिया. इनमें से किसी का हसबैंड पुलिस में था, सिपाही ने कहा स्टाफ़ है. मैं क्या कर सकता था. मन मसलकर रह गया.
कुछ खेलते हो? —क्रिकेट खेलता हूं. 3 साल फ्री-हैण्ड मिल जाए तो इंशा अल्लाह पक्का आईपीएल खेल लूंगा.
घर वालों को बुरा नहीं लगता कि तुम रिक्शा चलाते हो? —बुरा क्यों लगेगा? चोरी तो नहीं कर रहा हूं. मेहनत करता हूं.
उसकी बातें मुझे काफी रोचक लग रही थी. खासतौर पर उसके बोलने का अंदाज़. इसी दरम्यान सड़क के किनारे हाजी याक़ूब का होर्डिंग दिख गया. तभी मैंने यह भी पूछ डाला. यह हाजी याक़ूब बार-बार चुनाव क्यों हार जाते हैं? उसका जवाब था —जब यह मंत्री, विद्यायक रहें तो लोगों की सुनते नहीं थे. घर में अंदर होते थे और बाहर मना करा देते थे. अब पब्लिक ने इन्हें अंदर से मना कर दिया.
और भाजपा की सरकार मुसलमानों को कोई नुक़सान तो नहीं पहुंचा रही है ना? —तो इससे पहले वाली पार्टी कोई फ़ायदा पहुंचाती थी क्या?
तो मुसलमान क्या करे? —अपना काम करे और पैसा कमाये. तुम ऑफ़ीसर क्यों नहीं बनना चाहते? पहली ज़रुरत रोटी कपड़ा और मकान है. उसके बाद थोड़ा और बड़ा सोचेंगे. फिलहाल तो बस एडमिशन लेना है.