जावेद अनीस
तुर्की की एक कहावत है —जैसे ही कुल्हाड़ी जंगल में दाख़िल हुई, पेड़ों ने कहा, “देखो, ये हम में से एक है.”
पिछले दिनों हिन्दुस्तान में कुछ ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला. जब तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन जिन पर अपने देश में तानाशाही शासन थोपने और उस बुनियाद को बदलने का आरोप है, जिसपर आधुनिक तुर्की की स्थापना हुई थी, भारत की यात्रा पर थे. ‘मुस्लिम कट्टरपंथियों’ द्वारा सोशल मीडिया पर जिस तरह से उनके स्वागत के गीत गाये गए, वो हैरान करने वाला था. जामिया मिल्लिया इस्लामिया, जिसे तुर्की में क़ैद किए गए प्रोफ़ेसरों के प्रति एकजुटता दर्ज करना चाहिए था, वहां एर्दोआन को “डिग्री ऑफ डॉक्टर ऑफ लेटर्स” से सम्मानित किया गया.
जैसे कि भारत में यहां के नरमपंथी और अल्पसंख्यक नरेन्द्र मोदी पर अधिनायकवादी तरीक़ा अपनाने और छुपे हुए एजेंडे पर काम करने का आरोप लगाते हैं, कुछ उसी तरह का आरोप एर्दोआन पर भी हैं.
मोदी को लेकर कहा जाता है कि वे नेहरु द्वारा गढ़े गए आधुनिक भारत पर हिन्दू राष्ट्र थोपना चाहते हैं तो वहीं एर्दोआन पर कमाल अतातुर्क के आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष तुर्की को बदलकर आटोमन साम्राज्य के इस्लामी रास्ते पर ले जाने का आरोप है. ऐसे में यहां मोदी के बहुसंख्यकवादी राजनीति से शिकायत दर्ज कराने वाले मुसलामानों का एर्दोआन के प्रति आकर्षण सेकूलरिज़्म के सुविधाजनक उपयोग को दर्शाता है.
तुर्की अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए मशहूर रहा है. आधुनिक तुर्की के संस्थापक मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्की को एक धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक राष्ट्र की स्थापना के लिए सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक सुधार किये थे, उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को बहुत कड़ाई से लागू किया था. स्कार्फ़ ओढ़ने, टोपी पहनने पर पाबंदी लगाने से लेकर तुर्की भाषा में अज़ान देने जैसे क़दम उठाये गए थे. ज्यादा समय नहीं बिता है, जब तुर्की को दूसरे मुस्लिम देशों के लिए एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता था. लेकिन आज तुर्की बदलाव के दौर से गुज़र रहा है और इसके पीछे हैं —रजब तैय्यब एर्दोआन, जो सेकूलर तुर्की को इस्लामिक मुल्क बनाने की राह पर हैं.
वे पर्दा समर्थक हैं और महिलाओं को घर की चारदीवारी में वापस भेजने का हिमायत करते हैं. उनका कहना है कि मुस्लिम महिलाओं को चाहिए कि वह तीन से अधिक बच्चे पैदा करें ताकि मुस्लिम आबादी बढ़े.
बीते अप्रैल माह के मध्य में हुए जनमत संग्रह के बाद अब वे असीमित अधिकारों से लैस हो चुके हैं. तुर्की अब संसदीय लोकतंत्र से राष्ट्रपति की सत्ता वाली शासन प्रणाली की तरफ़ बढ़ चूका है, इन बदलाओं को देश को आंतरिक और बाहरी समस्याओं से बचाने के लिए ज़रूरी बताकर लाया गया था. इस जनमत संग्रह में एर्दोआन मामूली लेकिन निर्णायक बढ़त के बाद अब तुर्की पहले जैसे नहीं रह जाएगा.
एर्दोआन के रास्ते की सभी बाधाएं दूर हो गयी हैं. उनकी हैसियत ऐसी हो गयी है कि तुर्की के अन्दर कोई भी उनकी असीम महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने में रुकावट नहीं बन सकता है. राष्ट्रपति के तौर पर उन्हें व्यापक अधिकार मिल गए हैं, जिसके बाद अब सब कुछ वही तय करेंगे.
देश कि सत्ता से लेकर पार्टी, नौकरशाही और न्यायपालिका पर उनका एकछत्र नियंत्रण होगा. राष्ट्रपति के तौर पर वे आपातकालीन की घोषणा, शीर्ष मंत्रियों और अधिकारियों की नियुक्ति और संसद को भंग करने जैसे अधिकारों से लैस हो चुके हैं. अब वे 2034 तक देश के मुखिया बने रह सकते हैं. एर्दोआन एक तरह से तुर्की का नया सुल्तान बनने के अपनी महत्वकांक्षा को हासिल कर चुके हैं.
रजब तैय्यब एर्दोआन के हुकूमत में असहमति की आवाज़ों को दफ़न किया जा रहा है. एक लाख से अधिक लोगों को जेलों में ठूस दिया गया है, जिनमें प्रोफ़ेसर, साहित्यकार, पत्रकार, मानव अधिकार कार्यकर्त्ता, वकील, शिक्षक, छात्र शामिल हैं. इनमें से बहुतों के ऊपर राष्ट्रद्रोह और आतंकवाद जैसे आरोप लगाये गये हैं.
क़रीब सवा लाख लोगों की नौकरियां छीन ली गई हैं. डेढ़ सौ से अधिक पत्र–पत्रिकाओं, प्रकाशन गृहों, समाचार एजेंसियों और रेडियो–टेलीविज़न चैनलों को बंद तक कर दिया गया है. सैकड़ों पत्रकार और प्रकाशक गिरफ्तार कर लिए गए हैं. अल्पसंख्यक कुर्द समुदाय का दमन में भी तेज़ी आई है. एर्दोआन पर इस्लामिक स्टेट का मदद करने का भी आरोप है.
तुर्की समाज में धार्मिक कट्टरता बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. वहां धार्मिकता उभार पर है. बताया जाता है कि 2002 में तुर्की के मदरसों में तालीम लेने वाले छात्रों की संख्या जहां 65 हज़ार थी, वही अब 10 लाख से अधिक हो गई है.
आज भारत और तुर्की ऐसे दोराहे पर खड़े हैं, जहां दोनों में अदभूत समानता नज़र आती है. दोनों प्राचीन सभ्यताएं बदलाव के रास्ते पर हैं.
मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने जिस तरह से तुर्की को आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर खड़ा किया था, उसी तरह का काम भारत में नेहरु ने किया था. जिसके बाद तुर्की में धर्मनिरपेक्षता का अतिवाद और भारत में इसका अतिसरलीकृत संस्करण सामने आया. लेकिन आज दिल्ली और अंकारा के सत्ता केन्द्रों में ऐसे लोग बैठ चुके हैं, जो इस बुनियाद को बदल डालने के लिए प्रतिबद्ध हैं. जहाँ एक ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के छाया में काम करता है तो दूसरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन की विचारधारा से संचालित है. एक ओट्टोमन साम्राज्य के अतीत से भी अभिभूत हैं तो दूसरा प्राचीन हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा पर यकीन करता है, जहाँ जेनेटिक साइंस मौजूद था और प्लास्टिक सर्जरी होती थी.
आज दोनों मुल्कों में सेक्यूलर संविधान की अहमियत कम होती नज़र आती है और इसके बदले में भारत में हिंदुत्व और तुर्की में इस्लामी विचारधारा मज़बूत हो रही है जिसे सत्ता में बैठे लोगों का संरक्षण हासिल है. दोनों नेताओं के लक्ष्य मिलते–जुलते नज़र आते हैं बस एक के ध्वज का रंग भगवा है तो दूसरे का हरा.
आज दोनों मुल्कों में समाज विभाजित नज़र आ रहा है. दोनों नेताओं की पार्टियों का लक्ष्य मिलता–जुलता है और काम करने का तरीका भी. तुर्की में अगर आप तुर्क मुस्लिम भावनाओं का ख्याल नहीं रखते हैं और राष्ट्रपति एर्दोआन के ख़िलाफ़ हैं, तो आप देशद्रोही घोषित किये जा सकते हैं. भारत में भी तथाकथित बहुसंख्यक हिन्दू भावनाओं के खिलाफ़ जाने और मोदी का विरोध करने से आप एंटीनेशनल घोषित किये जा सकते हैं.
जामिया मिल्लिया इस्लामिया जिसकी स्थापना आज़ादी के लड़ाई के गर्भ से हुई थी, के द्वारा एर्दोआन को मानद डिग्री दिए जाने का फ़ैसला समझ से परे है. यह सम्मान उनके किस कारनामे के लिए दिया गया है, क्या लोकतंत्र को उखाड़ फेंकने, अकादमीशियन के उत्पीड़न या इस्लाम की “सेवाओं” के लिए?
भारतीय मुसलामानों का कट्टरपंथी तत्व की एर्दोआन के प्रति आकर्षण भी देखते ही बनती है. फेसबुक पर ऐसे ही एक यूजर ने लिखा कि ‘हिन्दुस्तान के सरज़मीं पर शेरे–इस्लाम मुजाहिद तुर्की के राष्ट्रपति तैयब एर्दोआन के क़दम पड़ें तो भारत के मुसलमान उनका स्वागत इस तरह करें कि वो जिंदगी भर ना भूल पायें और उन्हें यह एहसास हो कि भारत का मुसलमान अपने वक्त के हालात की वजह से मजबूर ज़रूर है पर जुल्म के खिलाफ़ लड़ने वाले रहनुमा के साथ खड़ा है.’
एर्दोआन के एक दूसरे दीवाने ने लिखा कि ‘मुसलमानों को अमीरुल मोमिनीन (मुसलमानों के खलीफ़ा) के ज़रूरत को समझना चाहिये, तुर्क (एर्दोआन) में यह क्षमता है.’
एर्दोआन की शान में क़सीदे पढ़ने वाले वही लोग हैं, जो अपने देश में धर्मनिरपेक्षता ख़त्म होने असहिष्णुता बढ़ने की शिकायत करते हैं और मोदी–योगी मार्का नफ़रत और तानाशाही की राजनीति से आहत होते हैं. एर्दोआन से मुहब्बत और मोदी–योगी से नफ़रत यही इनकी धर्मनिरपेक्षता का सार है, यह सुविधा का सेकूलरिज्म है.
आप एकसाथ दो नावों की सवारी नहीं कर सकते. असली धर्मनिरपेक्षता एर्दोआन और मोदी दोनों की राजनीति का विरोध करना है.
तुर्की की एक और कहावत है “आप ज्वाला से आग नहीं बुझा सकते”. बहुसंख्यक हिन्दू राष्ट्रवाद का मुक़ाबला आप खलीफ़ा एर्दोआन से नहीं कर सकते हैं. इसके मुक़ाबले में धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील राजनीति ही खड़ी हो सकती है वो भी बिना किसी सुविधायुक्त मक्कारी के.
(ये लेखक के अपने विचार हैं. लेखक भोपाल में रह रहे पत्रकार हैं. सामाजिक मुद्दों पर लम्बे वक़्त से लिखते और रिपोर्टिंग करते रहे हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)