अब्दुल वाहिद आज़ाद
अगर आज भारतीय मुसलमानों के सामने ये सवाल रखा जाए कि बीते 200 साल की तारीख़ में वो किसी एक ऐसे हिंदुस्तानी मुसलमान का इंतेख़ाब करे जिस पर वो सबसे ज़्यादा फ़ख्र कर सकता है तो यक़ीनन वो इंतेख़ाब सर सैयद अहमद खान पर ख़त्म होगा.
हिंदुस्तान के इसी सपूत की आज 200वीं यौम-ए-पैदाइश है. हम निहायत ही अदब और एहतराम के साथ इस अज़ीम शख्सियत को खिराज-ए-अक़ीदत पेश करते हैं.
सर सैयद का कमाल ये है कि वो वक़्त से बहुत आगे थे और जो सोचते थे उसे अमली जामा पहनाने में ही यक़ीन रखते थे. उसके लिए बेचैन हो उठते थे.
तालीम, इस्लाम और वतन के लिए उनकी कुर्बानियां बेमिसाल हैं.
हम सब ग़ौर करेंगे तो पाएंगे कि मुसलमानों की तालीम को लेकर उन्हें कितनी फ़िक्र थी. अपनी 40 साल की उम्र में तालीम के मैदान में जो क़दम बढ़ाए अपनी आख़िरी सांस तक इसमें शरीक रहे.
जब देश में तीन यूनिवर्सिटियां बन चुकीं तो सर सैयद भी तालीम को लेकर बेचैन हो गए. कलकत्ता यूनिवर्सिटी, बॉम्बे यूनिवर्सिटी और मद्रास यूनिवर्सिटी के क़याम के बाद सर सैयद ने 1859 में मुरादाबाद में गुलशन स्कूल क़ायम किया. 1863 में गाज़ीपुर में विक्टोरिया स्कूल की बुनियाद रखी और 1875 में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज क़ायम किया, जिसे दुनिया आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नाम से जानती है.
आप लंदन भी गए, ऑक्सफॉर्ड में डेढ़ साल रहे, वहां की तालीम को देखा, समझा और फिर उसे अपने कॉलेज में अमल में लाया. इस्लाम के बचाव में खूतबात-ए-अहमदिया लिखा.
आपकी ख़िदमात बेशुमार हैं. आपकी शख्सियत इतनी बड़ी है कि उन्हें चंद शब्दों में समेटना आपके साथ ज़ुल्म होगा. सिर्फ़ ये कह देना कि सर सैयद 19वीं सदी की अज़ीम शख्सियत थी नाकाफ़ी है.
सर सैयद वो शख्सियत थी कि आज भी भारत की ऐसी कोई तारीख़ नहीं लिखी जा सकती जिनके पन्ने उनके कारनामों के ज़िक्र से खाली हों.
मौजूदा दौर में सर सैयद
आज जब देश में सांप्रदायिक माहौल गर्म है. ऐसे में सर सैयद का याद आना लाज़िमी है. उनकी यौम-ए-पैदाइश पर उनके क़ौल को दोहराना बहुत ज़रूरी है.
27 जनवरी 1883, पटना में सर सैयद
“जब तक हिंदुस्तान में आपसी मेल-मिलाप और विश्वास क़ायम नहीं होगा, देश तरक़्क़ी नहीं करेगा.”
“जो लोग मुल्क की भलाई चाहते हैं उनका फ़र्ज़ है कि सभी मिलजुल कर मुल्क की भलाई की कोशिश करें. जिस तरह जिस्म के सभी ऑरगेन सही नहीं होंगे, तंदुरुस्ती नहीं होगी, उसी तरह देश के तमाम बाशिन्दों की खुशहाली के बग़ैर तरक़्क़ी नामुमकिन है.”
30 जनवरी 1884, लाहौर में सर सैयद
“लफ़्ज़ क़ौम से मेरी मुराद हिंदू और मुसलमान दोनों हैं. इससे मेरी मुराद मज़हब नहीं है. हम हिंदू हो या मुसलमान एक ही सरज़मीन पर रहते हैं और एक ही हुकूमत के अंदर हैं. हम सब के फ़ायदे का केंद्र एक ही है. हम सबकी मुसीबतें बराबर हैं.”
4 फरवरी 1884, जालंधर में सर सैयद
“अब हिंदुस्तान ही हम दोनों का वतन है. हिंदुस्तान की ही हवा से हम दोनों जीते हैं. मुक़द्दस गंगा यमुना का पानी हम दोनों पीते हैं. हिंदुस्तान की ज़मीन की पैदावर से ही हम दोनों खाते हैं. मरने में जीने में दोनों का साथ है.”
“ऐ दोस्तो! मैं बारहा कहा फिरता हूं कि हिंदुस्तान एक दुल्हन की मानिंद है जिस की खूबसूरत और रसीली आंखें हिंदू और मुसलमान हैं.”
अब हम पर ज़िम्मेदारी है कि हम सर सैयद का हिंदुस्तान आबाद करें.