दलित उत्पीड़न के मामले में पूरे देश में शीर्ष पर है मध्यप्रदेश

जावेद अनीस, TwoCircles.net के लिए


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मध्यप्रदेश को अमूमन शांति का टापू कहा जाता है, लेकिन शायद इस ‘शांति’ की वजह यहां प्रतिरोध का कमज़ोर होना है.

सच तो यह है कि मध्यप्रदेश में सामंतवाद और जाति उत्पीड़न की जड़ें बहुत गहरी हैं. यह सूबा वंचित समुदायों के उत्पीड़न के मामलों में कई वर्षों से लगातार देश के शीर्ष राज्यों में शामिल रहा है.

नेशनल काउंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) और अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मैरिलैंड द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, छुआछूत को मानने के मामले में मध्य प्रदेश पूरे देश में शीर्ष पर है.

सर्वे के अनुसार मध्यप्रदेश में 53 फ़ीसद लोगों ने कहा कि, वे छुआछूत को मानते हैं. चौंकाने वाली बात यह रही कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेश भी इस सूची में मध्यप्रदेश से पीछे हैं.

आज भी सूबे के ग्रामीण क्षेत्रों में बाल काटने से मना कर देना, दुकानदार द्वारा दलितों को अलग गिलास में चाय देना, शादी में घोड़े पर बैठने पर मारपीट करना, मरे हुए मवेशियों को ज़बरदस्ती उठाने को मजबूर करना आदि जैसी घटनाएं बहुत आम हैं.

2014 में गैर-सरकारी संगठन “दलित अधिकार अभियान” द्वारा जारी रिपोर्ट “जीने के अधिकार पर क़ाबिज़ छुआछूत” से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि, मध्यप्रदेश में भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी हैं.

मध्यप्रदेश के 10 ज़िलों के 30 गांवों में किए गए सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि, इन सभी गांवों में लगभग 70 प्रकार के छुआछूत का प्रचलन है. भेदभाव के कारण लगभग 31 प्रतिशत दलित बच्चे स्कूल में अनुपस्थित रहते हैं.

इसी तरह से अध्ययन किए गए स्कूलों में 92 फ़ीसदी दलित बच्चे खुद पानी लेकर नहीं पी सकते. क्योंकि उन्हें स्कूल के हैंडपंप और टंकी छूने की मनाही है, जबकि 93 फ़ीसदी अनुसूचित जाति के बच्चों को आगे की लाईन में बैठने नहीं दिया जाता है. 42 फ़ीसदी बच्चों को शिक्षक जातिसूचक नामों से पुकारते हैं. 44 फ़ीसदी बच्चों के साथ गैर-दलित बच्चे भेदभाव करते हैं. 82 फ़ीसदी बच्चों को मध्यान्ह भोजन के दौरान अलग लाईन में बिठाया जाता है.

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नज़र डालें तो 2013 और 2014 के दौरान मध्यप्रदेश दलित उत्पीड़न के दर्ज किए गए मामलों में चौथे स्थान पर था. 2015 में भी यह सूबा पांचवें स्थान पर बना रहा.

यह तो केवल दर्ज मामले हैं. गैर-सरकारी संगठन “सामाजिक न्याय एवं समानता केन्द्र” द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, प्रदेश में दलित उत्पीड़न के कुल मामलों में से 65 प्रतिशत मामलों के एफ़आईआर दर्ज ही नहीं हो पाते हैं. दूसरी तरह मामलों में से केवल 29 फ़ीसद दर्ज मामलें में ही सज़ा हो पाती है.

दूसरी तरफ़ अगर समुदाय की तरफ़ से इसका प्रतिरोध होता है तो उसे पूरी ताक़त से दबाया जाता है.

2009 में नरसिंहपुर ज़िले के गाडरवारा में अहिरवार समुदाय के लोगों ने सामूहिक रूप से यह निर्णय लिया था कि वे मरे हुए मवेशी नहीं उठाएंगें, क्योंकि इसकी वजह से उनके साथ छुआछूत व भेदभाव का बर्ताव किया जाता है.

लेकिन दबंग जातियों को उनका यह फैसला रास नहीं आया. इसके जवाब में क़रीब आधा दर्जन गांवों में पूरे अहिरवार समुदाय पर सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया गया. उनके साथ मारपीट की गई. उनके सार्वजनिक स्थलों के उपयोग जैसे सार्वजनिक नल, किराना की दुकान से सामान खरीदने, आटा चक्की से अनाज पिसाने, शौचालय जाने के रास्ते और अन्य दूसरी सुविधाओं के उपयोग पर ज़बरदस्ती रोक लगा दी गई.

पिछले फ़रवरी में ग्वालियर की एक घटना है, जहां अम्बेडकर विचार मंच द्वारा ‘बाबा साहेब के सपनों का भारत’ विषय पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें जेएनयू के प्रोफ़ेसर विवेक कुमार भाषण देने के लिए आमंत्रित किए गए थे. इस कार्यक्रम में हिन्दुवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने हंगामा किया. इस दौरान कई लोग चोटिल भी हुए.

ग़ौरतलब रहे कि बाबा साहेब अम्बेडकर ने बहुत पहले ही बता दिया था कि, “जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं हासिल कर लेते, क़ानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है वो आपके लिए बेमानी है.” लेकिन दुर्भाग्य से हमारे समाज में महात्मा फुले और बाबा साहेब अम्बेडकर के बाद कोई ऐसा बड़ा समाज सुधारक सामने नहीं आया, जो जाति के विनाश की बात करता हो.

सच तो यह है कि सामाजिक मुक्ति की सारी लड़ाई “पहचान”, “चुनावी गणित” और “आरक्षण” जैसे मुद्दों तक सिमट गई है. नतीजे के तौर पर हम देखते हैं कि 21वीं सदी में आर्थिक रूप से तेज़ी से आगे बढ़ रहा भारत सामाजिक रूप से अभी भी सदियों पीछे है. देश की कुल आबादी क़रीब 17 प्रतिशत दलित आज भी समाज में छुआछूत हर स्तर पर भेदभाव, हिंसा और उत्पीड़न सहने को मजबूर हैं. नए भारत के निर्माण के आहटों के बीच उनकी मायूसी व भय और बढ़ गई है.

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