आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
नई दिल्ली : बीमार पड़े इस देश की राजधानी दिल्ली में हर दिन हज़ारों की संख्या में दूर-दराज के गरीब अपने महंगे इलाज के लिए आते हैं. इनमें ज़्यादातर को यहां भूखे पेट वक़्त गुज़ारना पड़ता है, क्योंकि यहां पानी भी लोगों को खरीद कर पीना पड़ता है. मगर इसी दिल्ली शहर में कुछ लोग हैं जो मानवता को सच्चे अर्थों में बुलंदी पर पहुंचा रहे हैं.
53 साल के इरफ़ान बताते हैं कि उस दिन शनिवार था. मुझ जैसे कई लोग अस्पताल के बाहर उदास बैठे थे. कुछ लोग भूखे-प्यासे अपना सर हाथों में दबाए बैठे थे, क्योंकि दिल्ली में पानी भी मुफ़्त नहीं मिलता. तभी मैंने देखा कि एक स्विफ्ट कार मेरे क़रीब ही आकर रूकी. उसमें से चार युवक उतरे. खाने के बर्तन निकालें और बड़े-बड़े भगौने उतारने लगे. खाना लेकर यह लड़के उदास चेहरों के बीच पहुंचे और कहा —‘भाई खाना खा लीजिए, ईश्वर सब कुछ ठीक कर देगा.’
बता दें कि इरफ़ान मुज़फ़्फ़रनगर में सिलाई का काम करते हैं. उनका बड़ा परिवार है. आर्थिक समस्या से जूझते हुए उनके दिल में दर्द हुआ. महंगे इलाज वाले ऐसे मरीज़ दिल्ली के अस्पतालों का रुख करते हैं. इरफ़ान ने भी पुरानी दिल्ली के पंत अस्पताल का रूख किया था.
इरफ़ान बताते हैं कि इनकी गाड़ी पर एक बैनर लगा था. इस पर लिखा था —‘भूखे का कोई मज़हब नहीं होता साहब, वो मंदिर भी जाता है और मस्जिद भी.’ जब मैंने आसपास के लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि यह लड़के यहां खाना लेकर आते हैं और मुसाफ़िरों को खिलाते हैं.
दरअसल, ये लड़के गुरुग्राम के पास एक गांव चिंरजी के रहने वाले हैं और यहां के एक युवा दिनेश किरण चौधरी का ‘कुनबा’ हैं. इसे बालाजी कुनबा नाम दिया गया है. रोहित, संजीव, लाला और अंकित सहित एक दर्जन नौजवानों की यह टीम है और इसका नेतृत्व दिनेश चौधरी (34) नाम वाले युवक के हाथ में है.
यह कोई संस्था नहीं है और बड़ा दिखने-दिखाने का कोई टोटका भी नहीं. क्योंकि यह सभी युवक अलग-अलग काम करते हैं और रोटेशन प्रणाली के तहत सप्ताह में कम से कम 3 दिन इन अस्पतालों के बाहर बैठे ज़रुरतमंदों व फुटपाथ वालों को खाना खिलाते हैं. एक दिन में यह संख्या कम एक हज़ार लोगों की होती है.
TwoCircles.net के साथ बातचीत में दिनेश चौधरी बताते हैं कि, एक साल पहले चेचरे भाईयों का सहयोग मिला. उसके बाद कुनबे में 10-12 युवक और जुड़ गए. बस सेवाभाव की नीयत ने ही हम सबको ये करने के लिए प्रेरित किया.
वो आगे बताते हैं कि, खाना अपने हाथ से बनाते हैं और खिलाते हैं. ये काम हम अभी सिर्फ़ सप्ताह में तीन दिन या छुट्टी के दिन ही करते हैं, क्योंकि हमारा अपना काम भी होता है.
दिनेश हमें बताते हैं कि, मैं किसान हूं. एक साल पहले मैंने एक अस्पतला के बाहर लोगों को परेशान देखकर ये काम शुरू किया था, अब मैंने इसे अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बना लिया है. हांलकि मुझे इसके कुछ न कुछ सुनने को मिलता रहा. मेरी पत्नी को खुद यह बात सोशल मीडिया पर पता चली. लेकिन अब बहुत इज़्ज़त होती है. कुनबे के बड़े बुजुर्ग खुश होते हैं और सर पर बहुत स्नेह से हाथ रखते हैं.
दिनेश बताते हैं कि पुरानी दिल्ली के ज़्यादातर अस्पतालों के बाहर लोग उन्हें पहचान गए हैं. हम जब जाते हैं तो अब भीड़ लग जाती है. चूंकि पुरानी दिल्ली में गरीब लोगों की संख्या अधिक होती है. इसलिए हमने मुख्य कार्यक्षेत्र इधर ही चुना है. यहीं ज़्यादातर अस्पताल हैं. इनमें बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बंगाल के लोग ज़्यादा होते हैं.
दिनेश बताते हैं, ‘मैंने कई बार खाना खाते हुए लोगों को रोते देखा है. कुछ लोग सिर्फ़ इसलिए खाना नहीं खाते, भूखे रहते हैं ताकि कहीं उनके पास किराए के पैसे ख़त्म न हो जाए और कुछ लोग तो इतना खाना बांध लाते है कि बासी ही कई दिन तक खाते रहते हैं. इनकी गीली आंखें हमारा कलेजा उखाड़ देती हैं. हम सब समझते हैं हम कौन हैं. बस खुदा हमसे काम ले रहा है. यह अब हमारी ज़िन्दगी बन गई है.