जाति-धर्म की बंदिशों के बावजूद भी इन्सानियत ज़िन्दा है…

विद्या भूषण रावत

दिन था शनिवार 31 दिसंबर… जब सभी नए वर्ष के इंतेज़ार में थे. देवरिया ज़िले के बेल्हाम्मा गांव के कुम्हार जाति के एक परिवार में महिला की मौत हो गई.


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पति ज़्यादातर शराब पीकर मस्त रहता और गांव में ऐलान करता फिरता कि इस गांव के सारे मुसलमानों को यहां से भगा दूंगा. जिस दिन पत्नी का देहांत हुआ, घर में कोई भी नहीं था. रिश्तेदार भी कोई संपर्क नहीं रखते थे. शव के लिए लकड़ियों तक का प्रबंध नहीं था.

ऐेसे समय में पड़ोस के मुसलमानों ने मिलकर उसकी मदद की और जितने भी लोग अंतिम संस्कार में आए, उसमें अधिकांश मुस्लिम थे.

आज जब बेल्हाम्मा में क़रीब 72 वर्षीय शब्बीर अहमद साहेब से उनके घर पर मिला तो गांव के हालत पर चर्चा करते वक़्त उन्होंने अपना दर्द ज़ाहिर किया.

आज मुसलमानों को ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है कि जैसे वो सभी अपराधी हैं. भारतीय नहीं हैं और गाय खाने वाले हैं.

शब्बीर साहेब के घर के सामने उनकी गाय देखी तो मज़ा ही आ गया है. ‘ये एक दिन में 22 लीटर दूध देती है’, वह बोलें.

शब्बीर अहमद और उनके अन्य भाई समाजसेवा में ही अपना जीवन क़ुर्बान कर दिए. इस क्षेत्र में उन्होंने बहुत से मदरसे खुलवाएं, बच्चों को स्कूली शिक्षा की बात की.

वो कहते हैं, हम भाईयों ने बहुत मेहनत की और आज हमारा बिज़नस है और इस क्षेत्र में नाम है.

उनके बगल में बैठा ‘वर्मा’ उनका ड्राईवर एक समय में मुसलमानों से बहुत घृणा करता था. पड़ोस के गांव का वर्मा, ड्राईवरी करने के लिए उनके पास आया. वो अपना काम समय पर करता और चुपचाप घर चला जाता.

शब्बीर साहेब ने देख लिया कि ड्राईवर केवल काम के लिए आता है और खाना नहीं खाता. यहां तक कि चाय तक नहीं पीता, क्योंकि जब भी उससे पूछा जाता वो कोई बहाना कर देता.

बहुत दिन हो गए. एक दिन शब्बीर साहेब ने ड्राइवर से कहा, वर्मा अगर तुम यहां खाना या चाय नहीं पी सकते तो नौकरी भी नहीं कर सकते. तुम्हे इस बारे में सोचना है.

इतने दिनों तक काम करने के बाद वर्मा को भी पता चल चुका था कि वो किन लोगों के साथ में है.

आज वर्मा शब्बीर साहेब और उनके परिवार के अन्य लोगों के साथ में इस तरह से है, जैसे परिवार के रिश्ते हैं.

मैंने वर्मा से पुछा तो उसने कहा के शुरुआत के दौर में मुझे मुसलमानों से बहुत घृणा थी और मैं उनके हाथ का कुछ भी खाने या पीने को तैयार नहीं था, क्योंकि मेरे दिमाग़ में केवल ये डाला गया था कि मुस्लमान कट्टर होते हैं और गाय का मांस खाते हैं. बहुत सी शादियां करते हैं और देश के दुश्मन हैं.

इतने दिनों से गांव में रहने के बावजूद भी मैं ऐसा सोचता था, लेकिन जब मेरे पिता की मौत हुई तो उनके अंतिम संस्कार में भी शब्बीर चाचा ने मदद की. मेरे परिवार के पास तो इतना कुछ नहीं था और रिश्तेदार तो दूर-दूर तक बाद में आएं.

वहां से मेरी आंखें खुली और फिर मैंने सोचा जब ये लोग मुझे इतना अपना मानते हैं, जितना मेरे रिश्तेदार भी नहीं तो फिर मुझे क्या करना चाहिए.

आज हमारे परिवारों के बीच में आना-जाना है और वर्मा के लिए शब्बीर साहेब के परिवार की महिलाए मां, बहनों के तरह हैं और इसी तरह शब्बीर अहमद जी के घर के रिश्ते भी वर्मा के घर के साथ ऐसे ही हैं.

बेल्हाम्मा में मेरा जाना वहां के कलंदर या दीवान लोगों के बीच हमारे काम के बदौलत हुआ. कलंदर समाज तमाशा और मदारी के खेल दिखाकर अपना भरण पोषण करते थे, लेकिन मेनका जी के आशीर्वाद से उनका काम धंधा चौपट हो गया.

कोई भी उनकी कला को देखेगा तो उनका मुरीद बन जाएगा. बांसुरी पर सिनेमा की पोपुलर धुनों को बजाकर सड़को में तमाशा लगाकर मजमा लगाने की उनकी कला भी मेरिट है.

हमने मेरिट को अंग्रेज़ी और हिन्दी बाबु साहेबान की भाषा बनाया और जिसने हमारे समाज में निकृष्ट लोगों को महत्व दिया और मेहनतकश समाज की तौहीन की.

कलंदरो के पुश्तैनी धंधो पर आज के पूंजीवादी पर्यावारण-प्रेमियों की नज़र लग चुकी है, जो उन्हें पशुओं के प्रति क्रूर बता रहे हैं.

गांव के आमिर अली बताते हैं कि, वो कैसे भालू बन्दर नचाकर अपना जीवन यापन करते थे और आज वन विभाग ने उनके जानवरों को छीन लिया है, जिससे उनके सामने आजीविका का संकट है.

वो कहते हैं, सर, एक भालू के बच्चे को पालने में बहुत समय और मेहनत का काम है. हम अपने बच्चों से ज़्यादा उसे महत्व देते हैं, क्योंकि वो ही हमारी आजीविका का साधन है. हम उसे क्यों मारेंगे. एक भालू का बच्चा एक दिन में तीन किलो से ज्यादा आटे की रोटी खाता है.

नट और कलंदर समाज के लोगों का जीवन आज के ‘मेरिट’ के पोषक शोषकों के कारण ख़तरे में है. मुझे नहीं लगता कि उनसे ज़्यादा कोई सेक्यूलर होगा, जहां पिता का नाम गुलाम मोहम्मद, बीवी का नाम हसीना और बेटे के नाम मनोज कुमार.

ऐसे बहुत कम उद्धहरण होंगे, जहाँ लोग नमाज़ पढ़ते हों, रोज़े रखते हों और नवरात्री के व्रत भी रखते हों. उनकी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा शायद बड़े विश्विद्यालयों में उनको डिफाईन करने वाले ‘विशेषज्ञों’ से बहुत ज़्यादा सेक्यूलर और लिबरल है. इसलिए ‘मेरिट वादियों’  के कारण हमारी क़ौमी एकता ख़तरे में है, क्योंकि उन्होंने हमारे जीवन की इन हक़ीक़तों के जनता से दूर रखा. हमारी क़ौमी एकता के लिए ऐसी मिसालें ज़रुरी हैं.

राजनीती में बहुजन समाज के आन्दोलन के लिए अपनी ज़िन्दगी देने के बावजूद बहुत से पसमांदा साथी यहां बताते हैं कि उनकी हैसियत इन आन्दोलनों में मात्र एक अटैचमेंट की है.

बहुजन नेतृत्व ने कभी भी पसमांदा मुस्लिम नेतृत्व को तरजीह नहीं दी और ना ही सामजिक और सांस्कृतिक तौर पर दोनों को एक साथ लाने के प्रयास हुए.

आज जब देश में पुरोहितवादी पूंजीवादी शक्तियां हावी हैं और हमारे इतिहास से खेल रही हैं. हमारा ये कर्त्तव्य है कि ऐसे उदाहरण दुनिया के सामने रखें, जिससे उत्पीड़ित समाज के सामने एक आशा का सन्देश जाए.

हम भले ही सदियों तक लड़े हों, लेकिन हमारे आपस में काम करने और एक साथ लड़ने के भी बहुत से उदहारण है. ज़रुरत है उनको ढूंढकर लाने की और लोगों तक पहुंचाने की.

(लेखक दलित विमर्शकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. ये उनके अपने विचार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)

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