आरिफ़ हुसैन, TwoCircles.net के लिए
त्रिपुरा चुनाव के परिणाम भारत के दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों के बीच, वैश्विक और घरेलु पूंजी की मध्यस्थता से एक समझौते की ओर इशारा करते हैं, जिसका उद्देश्य क्षेत्रीय और वामपंथी दलों को भारतीय राजनीति में अप्रासंगिक बनाते हुए राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर मज़बूती से द्वि-दलिय व्यवस्था (Two-Party System) को स्थापित करना है.
3 मार्च 2018 को त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में हुई वोटों की गिनती का परिणाम मोटा-मोटी अपेक्षा के अनुरूप ही निकला. जैसा कि पिछले कुछ सालों में (भाजपा में मोदी-शाह के एकछत्र राज क़ायम होने के बाद) होता आया है कि चुनाव कोई भी जीते सरकार मोदी-शाह के मन-मुताबिक़ ही बनती है. वैसी ही कुछ स्थिति मेघालय और नागालैंड में बनी.
भाजपा के असीम धन-बल और प्रोपेगंडा माध्यमों पर नियंत्रण और 25 सालों के लगातार वाम मोर्चा शासन से उभरे सत्ता-विरोध के कारण त्रिपुरा के परिणाम भी भाजपा गठबन्धन के पक्ष में अपेक्षित थे. हाँ! जीत का अंतर थोड़ा चौंकाने वाला ज़रूर था.
त्रिपुरा विधान सभा के पिछले चुनाव तक कांग्रेस राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी हुआ करती थी. 2013 के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस को 36.5 फ़ीसद वोटों के साथ 10 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. 2018 के चुनावों में कांग्रेस घटकर 1.8 फ़ीसदी वोटों के साथ शुन्य सीटों पर आ गई.
त्रिपुरा | 2013 | 2018 | परिवर्तन |
सीट /वोट % | सीट**/वोट % | सीट /वोट % | |
वाम मोर्चा (सीपीएम+सीपीआई+एआईएफबी+आरएसपी) | 50 / 52.33% | 16 / 44.9 % | – 34 / -7.43 % |
भाजपा+आईपीएफटी | 0 / 2% | 43/ 50.5 % | +43 / +48.5 % |
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस | 10 / 36.53 | 0 / 1.8 % | – 10/ -34.73 % |
आईएनपीटी | 0 / 7.59 | 0 / 0.7 % | – 0 / -6.89 % |
*भाजपा और आईपीएफटी ने 2018 में गठबंधन किया | |||
** एक सीट पर मतदान स्थगित कर दिया गया था |
यहां कांग्रेस के आधार का खिसक कर लगभग पूरे का पूरा भाजपा के खेमे में जाना और उससे भी ज़्यादा कांग्रेस नेतृत्व का बहुत ही अनमने ढंग से औपचारिकता मात्र के लिए चुनाव प्रचार करना किसी और ही पक्ष की तरफ़ इशारा करता है.
70 के दशक से ही जब भारतीय राजनीति पर कांग्रेस की सार्वभौम पकड़ कमज़ोर होती गई और एक के बाद एक क्षत्रपों ने अपने-अपने सूबे निजी जागीरें घोषित कर दीं. घरेलू और वैश्विक पूंजी के लिए इन अलग-अलग दौड़ते ख़च्चरों को अपने रथ में साधना एक बड़ा सर-दर्द बनता गया.
विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने-अपने हिसाब से पूंजीपतियों से समीकरण बिठाए और लेन-देन के अपने-अपने रास्ते बनाए.
एक दूसरा पक्ष ये भी था कि विश्व भर में विशेष कर युवा वर्ग में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वामपंथ और सामाजिक न्याय के मूल्यों की तरफ़ रुझान बढ़ा था. इसके परिणामस्वरूप एंग्लो सैक्सन देशों में व्यापक सामाजिक कायकर्म और सुधार लागू करने पड़े; जैसे ब्रिटेन में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा और श्रम क़ानूनों में सुधार और संयुक्त राज्य अमेरीका में नागरिक अधिकार अधिनियम और मतदान अधिकार अधिनियम.
पानी सर से ऊपर तब निकल गया जब अमेरीका के अंदर ही अमेरीका-वियतनाम साम्राज्यवादी युद्ध का व्यापक विरोध हुआ. वैश्विक पूंजी और नव-साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ इस उभरते अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन को कुंद करने के लिए प्रतिक्रियात्मक शक्तियों ने दोतरफ़ा मुहिम शुरू की.
एक तरफ़ तो उन्होंने लोकतान्त्रिक राजनीति की धुरी वाम-मध्यमार्ग-दक्षिण से बदल कर मध्यमार्ग-दक्षिण-धूर दक्षिण करने का प्रयास किया और दूसरी तरफ़ जहां कहीं भी बहु-पार्टी व्यवस्था पनपी थी, वहां द्वि-पार्टी व्यवस्था को बढ़ावा दिया.
राजनीतिक धुरी बदलने की मुहिम की सफलता 1990 के दशक में दिखने लगी जब ब्रिटेन में मध्यमार्ग-वाम मानी जाने वाली लेबर पार्टी ने टोनी ब्लेयर के “नये लेबर” के रूप में मध्यमार्ग-दक्षिण ख़ेमे में पलटी मारी और संयुक्त राज्य अमेरीका में मध्यमार्ग-वाम मानी जाने वाली डेमोक्रेटिक पार्टी ने बिल क्लिंटन के नेतृत्व में Second-wave New Democrats के रूप में मध्यमार्ग-दक्षिण ख़ेमे में अपनी स्थिति मज़बूत की. ऐसा ही कुछ परिणाम भारत में भी देखने को मिला, जब उदारीकरण के नाम पर 90 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति को दक्षिणपंथोन्मुख किया गया.
इसी प्रकार जहां कहीं भी बहु-पार्टी व्यवस्था थी या पनपने की सम्भावनाएं थीं, वहां इसे दबाने का प्रयास किया गया. संयुक्त राज्य अमेरीका में तीसरे-चौथे दलों पर विभिन्न नियमों के द्वारा दबाव बनाया जाता रहा है और उसी का परिणाम है कि लगभग हर स्तर पर केवल दो ही दल; डेमोक्रेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी नज़र आतें हैं.
ब्रिटेन में भी जब कभी ऐसा लगता ही कि किसी मज़बूत तीसरे दल का उदय हो रहा है तो किसी न किसी उपक्रम से उसे दो मुख्य दलों में से किसी एक का कनिष्ठ सहयोगी बना दिया जाता है. भारत में प्रचलित, वेस्टमिन्स्टर मॉडल आधारित, फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (FPTP) व्यवस्था वैसे भी व्यापक रूप से बहु-दलीय व्यवस्था विरोधी मानी जाती है. इसी का परिणाम है कि भारत में राष्ट्रीय स्तर पर, एक समय में, कभी भी दो से अधिक मज़बूत दल नहीं पनप पाए हैं. हालांकि क्षेत्रीय परिस्थितियों की विविधता के कारण राज्य स्तर पर दो से अधिक दल पनपते रहे हैं.
वैश्विक और घरेलु पूंजी की दृष्टि में भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति के दक्षिणपंथोन्मुख होने के 27 साल बाद भी पूंजी के द्वारा बेलगाम दोहन और नियंत्रण की मनमाफ़िक़ परिस्थितियां नहीं बन पाई हैं. इसका कारण है भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों और दृष्टिकोणों की विविधता जो राज्य की नीतियों और चलन में वांछित गति से आमूलचूल परिवर्तन में बाधक सिद्ध हो रही हैं.
अतः भारत में राजनीतिक धुरी को अपने मतानुसार खिसकाने के बाद, पूंजी के निशाने पर अब राजनीतिक दलों और दृष्टिकोणों की विविधता है. तत्कालीन घटनाक्रम से ऐसा आभास होता है कि इस राजनीतिक विविधता को समाप्त करने लिए, पूंजी की शह पर, अब भाजपा और कांग्रेस मिलकर काम करेंगे और उनकी पहुंच और वैश्विक और घरेलु पूंजी से समझौतों की शर्तों के अनुसार उनके बीच में केन्द्र और राज्यों के स्तर पर सत्ता का विभाजन होगा.
विभिन्न राज्यों में जहां कहीं भी भाजपा और कांग्रेस के अलावा किसी तीसरे दल की स्थिति मज़बूत हैं, वह राज्य और वह दल अब इनके निशाने पर हैं. कम्युनिस्टों से इनकी खुन्दक कुछ ज़्यादा ही है, क्योंकि न केवल वह इन प्रतिक्रियावादियों के विरोधी हैं बल्कि उनके पास (केवल सैद्धांतिक रूप में ही सही) सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की एक वैकल्पिक परिकल्पना भी है.
दिलचस्प बात ये है कि ये उभरती हुई तस्वीर क्षेत्रीय दलों से छुपी हुई नहीं है और पिछले कुछ दिनों में शिव सेना, तेलंगाना राष्ट्र समिती और तेलगु देशम पार्टी का मोदी-सरकार का मुखर विरोध और तीसरे मोर्चे की वकालत, कम से कम आंशिक रूप से, इसी समझ से प्रेरित लगता है. आने वाले कुछ महीनों का घटनाक्रम इस मायने में दिलचस्प होगा कि कैसे विभिन्न क्षेत्रीय दल अपनी ज़मीन बचाने के लिए इस दोतरफ़ा हमले से मुक़ाबला करते हैं.
(आरिफ़ हुसैन एक सामाजिक-राजनितिक शोधकर्ता एवं कार्यकर्ता हैं और ग़ैर-लाभकारी संस्था “लोकतांत्रिक भारत के लिए साझेदारी” से जुड़े हैं.)