सीमांचल की समस्या: जनता और जनप्रतिनिधि दोनों की उदासीनता

Twocircles.net के लिए कटिहार से नजमुस साकिब की रिपोर्ट

सीमांचल बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका है. आप यहां के हालात से रूबरू होंगे तो आप भी सोचेंगे कि यह देश का अभिन्न हिस्सा है भी कि नहीं ! जैसे यह इस देश का हिस्सा ही ना हो, इसे बरसों से नज़रअंदाज़ किया गया.


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पीड़ित महानंदा बेसिन प्रोजेक्ट के नाम, रोजगार के नाम,भुखमरी के नाम, किसानों की फसल की सही कीमत के नाम और ना जाने कितनी परेशानी और कठिनाइयों का लोग रोज सामना करते हैं लेकिन ज़्यादातर लोग ‘उफ’ और ‘आह’ तक नहीं करते हैं. क्यों करेंगे ? क्योंकि उन्हें आदत हो गया है.

पहले तो उन्हें यह भी नहीं पता कि हम हर चीज में टैक्स अदा करते हैं और उसके बदले हमें जो चीज मिलना चाहिए वह सुविधाएं हमें नहीं मिल पाती है, इस अर्थशास्त्र एवं राजनैतिक उदासीनता के मद्देनज़र वो ज़्यादा जागरूक नहीं देखते हैं. ऐसा नहीं है कि सरकार की उदासीनता उन्हें पता नहीं लेकिन सरकारी उदासीनता ने उन्हें ऐसा बना दिया है जिससे वो सवाल नहीं करते.

साल 2017 में सीमांचल सहित अन्य इलाकों में आई बाढ़ से नॉर्थ बिहार में 514 लोगों की मौत हो गई और राज्य के 19 जिलों को प्रभावित हुए थे.

तकरीबन 8.5 लाख लोगों के घर पानी में बह गए और 1.71 करोड़ लोगों को 2017 बाढ़ ने तबाह कर दिया लेकिन इसका हल महानंदा बेसिन प्रोजेक्ट है जिस पर अभी तक कार्य धरातल पर नहीं दिख रहा है.

एक बड़ा महत्वपूर्ण सवाल यह खड़ा होता है कि सरकार ने इस क्षेत्र के इतने बड़े मुद्दे को नज़रअंदाज कर दिया तो फिर विकास किसके लिए हो रहा है ? किस क्षेत्र के लिए हो रहा है या किसी एक खास समुदाय की आबादी ज्यादा होने के कारण इस क्षेत्र को दरकिनार किया गया ?

वर्ष 2020 में बिहार सीमांचल क्षेत्र तीन बार बाढ़ का पानी अब तक निचले क्षेत्रों में घुस चुका है और वह लोग जो इस क्षेत्र में रहते हैं, उनको तीन बार अपनी जरूरत के सामान के साथ पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा ।

कई गांव से यह भी रिपोर्ट मिल रही है कि निचले क्षेत्रों में सरकारी स्तर पर नाव और पके हुए भोजन भी उपलब्ध कराया नहीं गया है जो सरकार की विफलता में से है और इस बाढ़ में अरबों रुपये खर्च  करने के ऊपर एक बड़ा सवालिया निशान है जो सिर्फ घोटालों की तरफ़ सरकार और अफसरों की लूटमारी दिखाती है।

इतनी बड़ी आबादी होकर भी एक सरकारी मेडिकल कॉलेज नहीं, AIIMS तो दूर की बात है इस क्षेत्र के लिए, यूनिवर्सिटीज़ नहीं (एएमयू किशनगंज सेंटर दिया गया लेकिन वह भी अभी तक पूर्ण रूप से सफ़ल नहीं हो सका) , कारखाने भी नहीं, अच्छे स्कूल व कॉलेज नहीं, नौजवानों के रोजगार के ज़रिये और मौके नहीं है, फिर किस बात के लिए हम वोट करें ?

कभी-कभी वोट नहीं करने का भी मन करता है क्योंकि वैसे लोग चुनाव में लड़ते हैं/लड़ना चाहते हैं, जिनका कोई आईडिया, विजन ही नहीं कि हम अपने क्षेत्र के लिए कैसे विकास कर सकें । लोगों के परेशानियों का समाधान कैसे निकाला जाए? इसका कोई एक भी रोडमैप नहीं !

जब ये विज़न किसी उम्मीदवार में नहीं होता है तो फिर चुनाव में मताधिकार का प्रयोग करने का दिल करेगा ?

आज मुझे यह बात कहना पड़ रहा है कि आज भी हम लोग ‘गुलाम’ हैं ! चुनाव आता है लोग अपने रिश्तेदारों, जानने वालों या किसी एक खास पार्टी के नाम पर वोट करते आ रहे हैं लेकिन आज तक वो उम्मीदवार/राजनेता उन (जनता) के लिए कुछ नहीं कर सके सिर्फ और सिर्फ इस्तेमाल होकर रह गए.

आज वक्त की ज़रूरत है कि अपनी आवाज को बुलंद करें और अपने हक के लिए अपने लबों का इस्तेमाल करें!!

इस मुश्किल के वक्त में बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की मदद करें लेकिन यह कब तक लोग करते रहेंगे ? जनप्रतिनिधियों को अपना फर्ज़ कब याद आएगा ?

इस बार वर्ष 2020 में सीमांचल क्षेत्र के मकई और गेहूं किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है. आंधी बारिश तूफान ने फसलों को बर्बाद कर दिया और जब हम कई गांव तक ज़मीनी स्तर पर पहुंचे तो वहाँ से पता चला कि उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बारे में जानकारी नहीं थी जब उन्हें बताया गया कि वर्ष 2020-21 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपए प्रति क्विंटल है और मकई का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपया है.

किसानों ने गेहूं 1000-1600 रुपये प्रति क्विंटल और मकई को 800-1100 रुपये प्रति क्विंटल बेचा. आख़िर कब तक सीमांचल बिहार के किसान घाटे का सौदा करेंगे ?

सत्ता दरअसल जनता के मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझ चुकी है और वो इस काम में निपुण है कि जनता तक संपर्क कब साधना है, कब उसकी बात सुननी है और कब आश्वासन देकर एक सपने की आड़ में वोट लेना है.

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