हाशिए पर है दिल्ली की बस्तियों में रहने वाली डोमेस्टिक वर्कर्स की ज़िंदगी

तन्वी सुमन । Twocircles.net

आमतौर पर समाज में एक धारणा बनी हुई है कि परिवार की जीविका चलाने वाला पुरुष होता है। जब कभी हमारा समाज यह बात दुहरा रहा होता है उस वक़्त दो जून की रोटी जुटाने के लिए कोई औरत दूसरों के घर में झाड़ू-पोंछा-बर्तन कर रही होती है वहीं कोई औरत खुद के ही घर में हाउस वाइफ के तमगे के साथ बिना सांस लिए घर का काम करने में जुटी होती है। यूं तो औरत होना खुद में ही बहुत सारी परेशानियों का सामना करना है, मगर समाज के निचले तबके से आने वाली महिलाओं की दुर्दशा और भी ज्यादा बदतर है। उन्हें दो तरीके के शोषण का सामना करना पड़ता है- एक तो खुद के जेंडर और गरीबी के कारण; दूसरा घर के साथ ही आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ।


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डोमेस्टिक हेल्पर के बढ़ते मांग के पीछे सबसे बड़ी वजह शहरीकरण है जिसकी वजह से गांवों, कस्बों से पलायन कर प्रवासी मजदूर काम की तलाश में शहर आते हैं। घरों में काम करने वाली औरतों की ज़िंदगी के कुछ अनछुए पहलू को हमने छूने की कोशिश है।

बिहार के भागलपुर की सलमा (बदला हुआ नाम) 27 वर्ष की उम्र में 4 बच्चों की मां है। दिल्ली के मयूर विहार में वह घरों में काम कर अपना और अपने चार बच्चों का पेट पालती है। मात्र 14 साल की उम्र में गरीबी और बीमार पिता के लगातार गिरते स्वास्थ्य के कारण ब्याह दी गयी सलमा की ज़िंदगी में कभी सुख नसीब नहीं हुआ। पति शुरुआत से ही निकम्मा था। कम उम्र में पहले बच्चे का होना और उसके बाद उसके पति का छोड़ कर चले जाना- इस घटना ने सलमा को जीवन की सच्चाई से रूबरू कराया। मायके और ससुराल वालों के समझाने के बाद सलमा किसी तरह अपने पति के साथ दिल्ली रहने आई।

शुरुआत में तो सब कुछ सही रहता था लेकिन सलमा के पति के साथ एक अजीब सी दिक़्क़त थी। जब कभी सलमा पेट से होती थी, बच्चा होने के तुरंत बाद ही उसका पति उसे छोड़ कर भाग जाया करता था। जब दिल्ली में अपनों से दूर सलमा दुबारा से पेट से हुई, प्रसव के आख़िरी महीने में उसका पति उसे फ़िर से छोड़ कर भाग गया और खून की कमी के कारण बाथरूम में ही उसने बेटे को जन्म दिया और वहीं बेहोश हो गयी। बच्चे के रोने की आवाज़ जब आस पास के लोगों को सुनाई पड़ी फिर सारे लोग आये और सलमा को अस्पताल ले गए। इसके ठीक कुछ दिनों के बाद से ही सलमा ने लोगों के घरों जाकर काम करना शुरू कर दिया और उसके बच्चों का गुज़र बसर होने लगा। कुछ दिन बीत जाने के बाद जब सलमा का पति फिर से वापस आया और सलमा एक बार फिर पेट से हुई फिर उसने तय किया की अब और नहीं सह सकती है। जुड़वा बच्चों को जन्म देने के बाद उसने सबसे पहले अपना नसबंदी कराया और फिर इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया की अब उसको ही अपने बच्चों का माँ-बाप दोनों बनना होगा। उसके बाद से आज तक उसके जीवन में दो पल का सुकून नहीं है।

सलमा सुबह 6 बजे अपने घर से निकलती है और रात 10 बजे अपने घर वापस जाती है सिर्फ इसलिए ताकि उसके बच्चों को वो सब ना झेलना पड़े, वह पढ़-लिख कर कुछ अच्छा मकाम हासिल कर सकें अपनी ज़िंदगी में। लॉकडाउन के दौरान आने वाली परेशानियों के बारे में याद करते हुए सलमा बताती है कि अगर लंगर का सहारा नहीं होता तो वो और उनके बच्चे भूखे कब का भूखे मर जाते। कोरोना के करण लगभग 7 महीने तक काम बंद हो चुका था और किसी ने भी ये जानने की कोशिश नहीं किया कि उनके घरों में काम करने वाली ज़िंदा भी हैं या नहीं। सलमा आखिरी में सिर्फ एक बात बोलती है, ज़िंदगी में कोई किसी का नहीं साग नहीं है इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी है अपने पैरों पर खड़ा होना।

बिहार के समस्तीपुर से आने वाली 55 वर्षीय रेशमा की कहानी भी कुछ मिलती जुलती है। रेशमा पिछले 25 सालों से दिल्ली में रह रही है। रेशमा के 4 बच्चे हैं जिनमें से दो की शादी हो चुकी है। रेशमा का पति शुरूवात से ही दारू पीकर मार पिटाई करता था। बहुत मुश्किल से घरों में बर्तन माँज कर रेशमा ने अपने बच्चों को पढ़ाया लिखाया। बड़ी बेटी की शादी अपने दम पर किया, बड़े बेटे को स्नातक तक की पढ़ाई कराई जिसकी वजह से आज वो एक कपड़े की फैक्टरी में काम कर रहा है।

रेशमा बताती हैं किस तरह उनके परिवार वालों ने उनका साथ कभी नहीं दिया। घरेलू हिंसा का शिकार होने के बावजूद 4 बच्चों की उन्होंने अकेले अपने दम पर परवरिश की। रेशमा बताती हैं कि कैसे काम उम्र में बच्चे हो जाने और उसके बाद लगातार काम करने की वजह से उनके अंदर खून की कमी हो गई जिसकी वजह से वो बीमार रहने लगी। डॉक्टर ने उन्हें आराम करने की हिदायत दी लेकिन गरीबों की किस्मत में आराम कहाँ। रेशमा बताती हैं, “हम गरीबों की ज़िंदगी में मातम  मनाने का भी अधिकार नहीं है। हम सुकून से बैठ कर अपना दुख भी नहीं बाँट सकते हैं क्योंकि हमारे दिमाग में ये चलता रहता है कि अगले वक़्त का खाना कैसे नसीब होगा। हम गरीब बस दुख की मार झेलने के लिए पैदा होते हैं जिनकी किस्मत में सिर्फ पति के हाथ से मार खाना लिखा होता है।“

अपनी ज़िंदगी की एक उपलब्धि के बारे में पूछने पर रेशमा बताती हैं, इतने सालों से दिल्ली में काम कर पाई–पाई जोड़ कर रेशम ने बमुश्किल से एक कमरे भर का प्लॉट खरीद रखा था। बेटे की नौकरी लग जाने के बाद लोन लेकर उन्होंने घर बनवा लिया और आज के समय में उनके सर पर खुद का एक छत है। उन्हें अल्लाह ताला से और कुछ नहीं चाहिए अब।

मूल रूप से पंजाब के संगतपुर गावं की रहने वाली 54 वर्षीय सुनीता की कहानी रेशमा और सलमा से थोड़ी अलग है। सुनीता दिल्ली में पली-बढ़ी हैं और कल्याण पुरी में अपने पति और इकलौते बेटे के साथ रहती है। सुनीता के पति ऑटो चलाते हैं। उनका बेटा अंश यहीं पास की सीमेंट फैक्टरी में काम करता है। उसने बारहवीं तक की पढाई की है और सुनीता अब उसके शादी लिए लड़की ढूंढ रही हैं। सुनीता से जब पूछा गया कि सिर्फ एक ही बच्चे के पीछे की वजह क्या है फ़िर उन्होंने बताया कि इस उम्र तक भी वह किसी किस्म की दवाइयों का सेवन नहीं करती हैं। उनके बेटे की डेलिवरी भी घर पर ही हुई थी, जब उन्होंने दुबारा से गर्भधारण की कोशिश करी तो 2-3 बार चार महीने पुरा होते होने के बाद उनका गर्भपात हो जाता था। डॉक्टर ने उन्हें प्रेग्नेंसी के दौरान फुल बेड रेस्ट की सलाह दी, अनीता ने बताया कि उन्होंने फ़िर फैसला लिया, अगर होने वाला बच्चा मुझे पूरे 9 महीने काम ना करने देगा फिर मुझे दूसरा बच्चा चाहिए ही नहीं क्योंकि मैं काम किए बिना नहीं रह सकती हूँ। सुनीता के परिवार में किसी को नहीं पता है कि वो दूसरों के घरों में काम करती हैं।

लॉकडाउन के दौरान  घर के हालात के बारे में पूछने पर सुनीता ने बताया, वो जिन घरों में काम करती हैं उन सारे लोगों ने बहुत मदद किया और घर पर रहने के बावजूद उन्हें पैसा दिया। अगर इन लोगों का सहयोग नहीं मिलता तो सुनीता के परिवार वालों को खाने के लाले पड़ गए होते क्योंकि घर में सबका काम बंद हो चुका था।

दिल्ली के स्लम में रहने वाली इन औरतों की ज़िंदगी मुश्किलों से भरी हुई है। बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के तहत काम करती हुई औरतें अपने कंधों पर घर और बाहर की जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी हुई हैं जिनकी किसी सरकार को कोई परवाह नहीं है।

नैशनल प्लेटफॉर्म फॉर डोमेस्टिक वर्कर्स की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 40 मिलियन से अधिक घरेलू कामगार हैं और उनमें से लगभग 90 प्रतिशत महिलाएँ हैं। पिछले दशक में काफी बड़े स्तर पर इनकी संख्या में वृद्धि हुई है। इस क्षेत्र काम करने वाली जगोरी संस्था की स्टडी रिपोर्ट के अनुसार, “2004-05 में भारत के शहरों में 3.05 मिलियन महिला घरेलू कामगार थीं, जो कि 1999-2000 से 222 प्रतिशत की वृद्धि है।

2010 के मैकिन्से एंड को (McKinsey and Co) स्टडी रिपोर्ट के कहा गया है, “2030 तक लगभग 590 मिलियन भारतीय शहरों में रहेंगे, जो 320 मिलियन से अधिक है। तीव्र शहरीकरण के साथ ही  मध्यम वर्ग की डिस्पोजेबल आय में वृद्धि का मतलब है कि घरेलू श्रमिकों की बढ़ती मांग। हालाँकि, घरेलू श्रमिकों की मांग में बढ़ोतरी से उनकी मौजूदा परिस्थितियों में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ है।   खास तौर पर घरेलू महिला श्रमिकों की संख्या में यह वृद्धि कृषि अर्थव्यवस्था में बदलाव की वजह से जुड़ी है। कामों की बढ़ती हुई मांग और सस्ते दाम पर श्रम की उपलब्धि के कारण भारत के आदिवासी क्षेत्र खास कर असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा की लड़कियों का बड़े पैमाने पर प्रवासन को देखा गया है।“

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