दिल्ली की मलिन बस्तियों में रहने वाली इन लड़कियों के लिए शिक्षा भेदभाव से भरा हुआ एक सच है…..

Malinni with her siblings

सुप्रकाश मजूमदार । Twocircles.net

सुबह उठ कर जानकी सबसे पहले खाना बनाने में अपनी माँ की मदद करती है। चूल्हा के पास, धुएं से खुद को बचाने के लिए अपना चेहरा ढंककर, जानकी और उसकी माँ दुकानों से फेंक दी हुई मछली और चिकन की हड्डियों का सूप (soup) तैयार कर रही हैं।


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जानकी (13) महावत समुदाय से आती है, जो नई दिल्ली में मानसरोवर पार्क रेलवे झुग्गियों में रहने वाली एक गैर-अधिसूचित जनजाति है। जानकी ने स्कूल से ड्रॉपआउट कर लिया जब वह पांचवीं कक्षा में थी। जानकी कहती है,”जब कोई व्यक्ति पढ़ाई करना चाहता है, तो उसे किसी ऐसे व्यक्ति से सहायता की आवश्यकता होती है जो सच में पढ़ाना चाहते हैं।”

यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (UDISE) 2017-18 के नवीनतम सर्वे के आंकड़ों के अनुसार, माध्यमिक स्कूल स्तर पर अनुसूचित जाति के छात्रों की ड्रॉपआउट वार्षिक औसत दर की 21.8 प्रतिशत है। एसटी (ST) छात्रों के मामलों में  यह दर 22.3% पर था। यूनिसेफ (UNICEF) के अनुसार, सामाजिक भेदभाव के कारण दलित लड़कियों को स्कूल से बाहर करने की दर सबसे अधिक है। गैर-दलित और गैर-आदिवासी समुदायों के 37% बच्चों के विपरीत 51% दलित बच्चे प्राथमिक विद्यालय से बाहर हो गए।

community centre

समाज में व्याप्त जातिवाद और भेदभाव स्कूल से ड्रॉपआउट की सबसे बड़ी वजह है।

समाजसेवी एडवोकेट भावना यादव इन समुदायों के उत्थान के लिए काम करती है, उन्होंने TwoCircles.net को बताया।भावना कहती हैं,“मैंने ऐसी बहुत सारी घटनाएं देखी है, जहां छात्र जो खाना स्कूल में ले जाते हैं उसमें से गंध आने पर शिक्षकों द्वारा उन्हें परेशान किया जाता है। वह उस प्रकार का खाना ला सकने में समर्थ नहीं हैं  जो अन्य सहपाठी खाने के लिए लाते हैं।“

मलिन बस्तियों में साफ पानी की आपूर्ति और स्वच्छता (sanitation) की सुविधाएं नहीं है। सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए के समुदायों के लिए पानी दुर्गम है। स्वच्छ बहता पानी हर हफ्ते में एक या दो बार आता है और कभी-कभी तो पानी दो हफ्तों तक भी नहीं आता है। पानी उनके लिए एक कीमती संसाधन है जिसका उपयोग केवल आवश्यकताओं के लिए ही किया जा सकता है।

भावना ने TwoCircles.net को बताया, “मेरे पास एक ऐसा केस आया  जहां शिक्षक ने एक अभिभावक से शिकायत की, कि उनका लड़का गंदी वर्दी पहनता है और उससे एक अजीब सी गंध आती है।” इन बच्चों के माता-पिता चाहते हैं कि वे पढ़ाई करें और उनका जीवन बेहतर हो। बच्चों के भी तो  बड़े सपने होते हैं।

Malini with her mother and siblings
मालिनी (13), पास के एक सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती है। बड़े होने पर वह एक पुलिस अधिकारी बनने की इच्छा रखती है।
मालिनी एक आत्मविश्वास से भरी हुई लड़की है जो बहुत ईमानदारी से पढ़ाई करती है। वह कहती है कि उसके माता-पिता ने लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने में मदद के लिए एक सस्ते स्मार्टफोन की व्यवस्था तक की।
“मैं पढ़ाई के अलावा किसी भी चीज़ के लिए फोन का उपयोग नहीं करती हूँ और मेरे पिता भी पढ़ाई को लेकर बहुत सख्त हैं। वह मुझे फोन पर गेम खेलने और वक़्त बर्बाद करने की इजाजत नहीं देते  हैं। भावना बताती हैं, ”झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले परिवारों के पास पैसा नहीं है। पारंपरिक रूप से वे नुक्कड़ नाटक के कलाकार थे मगर अब वे कूड़ा बीनते हैं। अक्सर, अपने माता-पिता को आर्थिक रूप से मदद करने के लिए  इन बच्चों को स्कूल से ड्रॉपआउट के लिए मजबूर किया जाता है। “

लड़कियों के लिए, यह और भी कठिन है। रागिनी (11)  कहती है ,“जब मैं स्कूल जाती थी, तो पुरुष मेरा पीछा करते थे, मेरा यौन उत्पीड़न करते थे और साथ ही घूरते हुए मेरे पर भद्दे कमेंट्स करते थे। वे मेरे घर तक मेरा पीछा करते थे। यही वजह है कि मैंने स्कूल जाना बंद कर दिया। लोग या तो हमें परेशान करने के इरादे से देखते हैं, या फिर अपमान करने के लिए क्योंकि हम ‘गंदे’  हैं, कोई भी हमारी तरफ देखना नहीं पसंद करता है।“  पांचवीं कक्षा में आने पर रागिनी ने स्कूल से ड्रॉपआउट कर लिया। वह आगे बताती है, “लोगों के लिए  ये लोग गंदे हैं,  नहाते नहीं हैं और केवल कूड़ा बीनने वाले (rag pickers) हैं। उन्हें लगता है कि वे उनके लिए कुछ भी कर सकते हैं। यहां तक कि पुलिस भी उनकी शिकायतों को गंभीरता से नहीं लेती है।“ पढ़ाई में बच्चों की मदद करने के लिए, KOSISH NGO झुग्गी के बीच में छोटे सामुदायिक केंद्रों  में ट्यूशन कक्षाएं आयोजित कराता है।

ज्ञानेश्वर शेजवाल, रिसर्च एंड एडवोकेसी एसोसिएट, दलित ऑर्थिक अधिकार आंदोलन कहते हैं, “दलित या आदिवासी छात्र होना कठिन है।” वह आगे कहते है,“स्कूल प्रशासन और स्कूलों द्वारा कामकाज में भेदभावपूर्ण व्यवहार होता है। शिक्षक, दलित और आदिवासी समुदाय के छात्रों पर कम ध्यान देते हैं। उच्च जातियों के लोगों द्वारा उत्पीड़ित जातियों पर उत्पीड़न, रैगिंग और शारीरिक शोषण अत्यंत सामान्य है। यहां तक कि माता-पिता के जाति-आधारित व्यवसाय के करण उनके बच्चों को और अधिक अपमान और जाति सूचक  गालियां दी जाती है। यही कारण है कि कई बच्चे स्कूल जाना बंद कर देते हैं और इसके बजाय बाल मजदूरों के रूप में काम करते हैं।”

slums from the railway lines

इन बच्चों का भविष्य खतरे में है। क्षेत्र में कचरा प्रबंधन पर लंबे समय से लंबित मामले में, सुप्रीम कोर्ट  ने 31 अगस्त को एक आदेश पारित किया। यह 1985 में दिल्ली वायु प्रदूषण पर वकील एमसी मेहता द्वारा दायर रिट याचिका के जवाब में था, जिसमें अशिष्ट नियंत्रण सहित अन्य याचिकाएं शामिल थी। याचिका में कहा गया कि प्रदूषण फैलाने वालो ने रेलवे ट्रैक के साथ कचरा फैलाया है, और सुरक्षा तथा प्रदूषण नियंत्रण उद्देश्यों के लिए शहर में 140 किमी रेलवे पटरियों के साथ झुग्गियों को साफ किया जाना चाहिए।

31 अगस्त के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, “सुरक्षा क्षेत्रों में जो अतिक्रमण हैं, उन्हें तीन महीने की अवधि के भीतर हटा दिया जाना चाहिए और कोई हस्तक्षेप, राजनीतिक या अन्यथा, नहीं होना चाहिए और कोई भी अदालत क्षेत्र में अतिक्रमण हटाने के संबंध में कोई स्टे ऑर्डर नहीं देगी।” जैसे ही सूरज ढल जाता है, जानकी अपने छोटे से कमरे में वापस चली जाती है और अपने छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई में मदद करती है। वह अपने भाई-बहनों में सरकार में एक अधिकारी बनने का सपना देख रही हो सकती है लेकिन वह जानती है कि सामाजिक और आर्थिक बाधाओं के बारे में उसके भाई-बहनों को अपने जीवन काल में सामना करना पड़ेगा।

(झुग्गी के बच्चों के वास्तविक नाम अनुरोध पर बदल दिए गए हैं।)

हिंदी रूपांतरण – तन्वी सुमन 
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