जिब्रानउद्दीन।Twocircles.net
भारतीय सिनेमा के दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार का बुधवार को मुंबई के एक अस्पताल में निधन हो गया। वो लंबे समय से बीमार चल रहे थें। 98 वर्षीय अभिनेता को बुधवार शाम 4:30 बजे पूरे राजकीय सम्मान के साथ मुंबई के जुहू कब्रिस्तान में सुपुर्दे खाक किया गया। उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई। इस दौरान महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, रणबीर कपूर, करण जौहर, विद्या बालन, धर्मेंद्र और शबाना आज़मी सहित कई अन्य बॉलीवुड सितारे दिलीप कुमार की पत्नी सायरा बानो से मिलने के लिए उनके बांद्रा स्थित आवास पर पहुंचें।
बॉलीवुड के “ट्रेजेडी किंग” के रूप में लोकप्रिय दिलीप कुमार ने सुबह 7:30 बजे अपनी अंतिम सांसे लीं। देहांत की खबर सुनते ही अस्पताल के बाहर उनके प्रसंशकों की भारी भीड़ जमा हो गई। जिसकी वजह से उनके पार्थिव शरीर को बांद्रा स्थित आवास पर ले जाने के लिए मुंबई पुलिस को एक मानव श्रृंखला बनाकर काफी मशक्कत करनी पड़ी। दिलीप कुमार को “दी फर्स्ट खान” के नाम से भी जाना जाता था, हालांकि उनका असली नाम मोहम्मद यूसुफ खान था।
दिलीप कुमार की ख्याति सिर्फ भारत तक ही सीमित नही थी बल्कि विदेशों में भी उन्हें बेहद पसंद किया जाता था। वो इकलौते ऐसे हिंदुस्तानी थें, जिन्हे पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार “निशान-ए-इम्तियाज” प्राप्त है। इधर भारत में भी, भारतीय सिनेमा क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए, कला के क्षेत्र में भारत का सर्वोच्च पुरस्कार, “दादा साहब फाल्के पुरस्कार” और साथ ही देश का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान “पद्म विभूषण” से उन्हें सम्मानित किया गया था।
11 दिसंबर 1922 को दिलीप कुमार का जन्म ब्रिटिश इंडिया के पेशावर में हुआ था। फल व्यापारी, लाला गुलाम सरवर खान और आयशा बेगम के बेटे यूसुफ खान ने शुरुआती शिक्षा बर्नेस स्कूल, नाशिक में प्राप्त की थीं। वो बचपन में राज कपूर के पड़ोसी हुआ करते थें जो आगे चलकर फिल्म इंडस्ट्री में उनके काफी अच्छे सहयोगी और मित्र साबित हुए। हालांकि 1940 में कुछ पारिवारिक समस्या के चलते उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा था।
1944 में दिलीप कुमार ने “ज्वार भाटा” फिल्म से अपने फिल्मी सफर की शुरुआत की। लेकिन उनको असली ख्याति 1947 में आई एक फिल्म “जुगनू” से प्राप्त हुई जिसके बाद वो रातों रात फिल्मी जगत के एक सफल सितारे बन गए। उसके बाद उन्होंने शहीद, मेला, अंदाज, शबनम जैसी सैकड़ों सफल फिल्मों में काम किया। पर्दे पर उनके अभिनय के जौहर को देखते हुए ही उनका नाम “ट्रेजेडी किंग” पर गया था।
वह फिल्म “दाग” के लिए “फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार” जीतने वाले पहले अभिनेता थें और उन्होंने इस पुरुस्कार को बाद में भी सात बार और जीता। 1950 आते-आते वो सबसे महंगे अभिनेता बन चुके थें। 1960 में आई के० आसिफ निर्देशित फिल्म “मुगले आजम” में उनके प्रतिष्ठित किरदार “शहजादा सलीम” को कोई कभी नही भूल पाएगा। वो अभिनेता के साथ-साथ लेखक, निर्माता और निर्देशक भी थें। हालांकि 70 के दशक में कुछ फ्लॉप फिल्मों के साथ उनका करियर डगमगाया था लेकिन जल्द ही उन्होंने वापसी की और अपने सिंहासन पर वापस से विराजमान हो गए। फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नही देखा।
दिलीप कुमार के जन्म का नाम मोहम्मद यूसुफ खान था। लेकिन जब वो फिल्मी दुनिया में अपना कदम रख रहे थें, तब बॉम्बे टॉकीज की प्रमुख, देविका रानी उनके नाम से बहुत ज्यादा खुश नही थी। 1944 में “ज्वार भाटा” नामक फिल्म में मुख्य किरदार के लिए, निर्माता देविका रानी को लगा कि, दिलीप कुमार के नाम से यूसुफ एक “रोमांटिक छवि” के अनुरूप होंगे। और साथ ये उनके “धर्मनिरपेक्षता” को भी दर्शाएगा। तो आखिर में यूसुफ खान ने अपना नाम बदलकर दिलीप कुमार कर लिया।
अगर दिलीप कुमार को महज एक अभिनेता के रूप में देखा जाए तो शायद ये उनके निस्वार्थ समाजसेवा वाले व्यक्तित्व के साथ नाइंसाफी होगी। दिलीप कुमार मुस्लिम समुदाय में हाशिए के लोगों के संघर्षों को बड़े पैमाने पर लाने वाले आंदोलन में भी भाग ले रखा था। अभिनेता ने अपने दिवंगत कामकाजी जीवन का पर्याप्त समय महाराष्ट्र में पसमांदाओं के अधिकारों के लिए अखिल भारतीय मुस्लिम ओबीसी संगठन (एआईएमओबीसीओ) के कार्यकर्ताओं के रूप में बिताया था। उनके करीबी बताते हैं कि दिलीप कुमार सदैव दूसरों के मदद को तैयार रहा करते थें।
दिलीप कुमार 2000 से 2006 तक भारतीय संसद के ऊपरी सदन, राज्य सभा के सदस्य रहे थें। उन्हें इंडियन नेशनल कांग्रेस द्वारा महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए नामित किया गया था। दिलीप कुमार ने अपने “सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना” (एमपीएलएडीएस) के राशि के एक महत्वपूर्ण हिस्से का उपयोग बांद्रा में लैंड्स एंड पर, बैंडस्टैंड प्रोमेनेड और बांद्रा फोर्ट में उद्यानों के निर्माण और सुधार के लिए किया था। जिससे उनके कामों को काफी सराहा गया था।