मुहम्मद आसिम। Two circles.net
यूक्रेन की विनिशिया मैडिकल यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली छात्रा अस्मिता इस समय काफी चर्चा में है। अस्मिता दिल्ली की रहने वाली है और यूक्रेन से लौटे मैडिकल छात्राओं के एक समूह का नेतृत्व कर रही है। अस्मिता इसलिए अधिक चर्चा में है क्योंकि एक मास सुसाइड नोट लिखकर सनसनी फैला दी है। अस्मिता ने यह नोट सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्वीटर पर पोस्ट किया है। इसमें अस्मिता ने एनएमसी को कटघरे में खड़ा करते हुए लिखा है कि भारत मे नेशनल मैडिकल काउंसिल ऐसे हालात बना रही है कि छात्रों को वापस जाकर युद्धग्रस्त यूक्रेन में पढ़ाई करनी होगी मगर अगर ऐसा हुआ तो बड़ी संख्या वार जोन में छात्रों की मौत हो सकती है और इसकी जिम्मेदारी सिर्फ भारत सरकार की होगी और इसे गलत फैसले का मास सुसाइड कहा जायेगा
अस्मिता हमसे बताती है कि हम 20 हजार छात्र अब बीच मंझधार में खड़े है। हमें कोई रास्ता नही दिख रहा है। यूक्रेन से पढ़ाई शुरू होने का नोटिफिकेशन आया है। विदेश जाने के नाम से अब परिजन और बच्चे भी डर रहे हैं। अस्मिता की माने तो यह दो रास्तों की कहानी नही है बल्कि उनके पास एक भी रास्ता नही है। अस्मिता बताती है कि 28 जुलाई को वो एनएमसी गई थी जहां उसे बताया गया कि एनएमसी उनके द्वारा की गई ऑनलाइन पढ़ाई को मान्यता नही देगा। इसके अलावा उन्हें भारत के अस्पतालों से सम्बद्ध(अकॉमेंटडेट) भी नही किया जाएगा और यहां प्रैक्टिकल की भी अनुमति नही होगी। अस्मिता के अनुसार एनएमसी (काउंसिल) ने उसे बताया कि छात्रों को विदेश ही जाना होगा ! यूनिवर्सिटी वहां ट्रांसफर दे रही है। इनमे पोलैंड , बोस्निया ,किर्गिस्तान जैसे देश है। वो अपनी पढ़ाई वहीं जाकर पूरी करें। इसके लिए 1 लाख से 2 लाख तक का एक नया शुल्क देना होगा।
अस्मिता कहती है कि यह बिल्कुल ग़लत फैसला है। भारत सरकार हमारी मदद कहाँ कर रही है ! अलग देश मे कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पढ़ाई का मैथेड, भाषा का संकट, जलवायु का आत्मसातीकरण कई तरह की समस्याएं है। ज्यादातर बच्चे मिडिल क्लास फैमली से है और वो अतिरिक्त पैसे का बोझ नही उठा सकते है। सरकार हमारे लिए सोचे और हमें ऑनलाइन पढ़ाई के साथ यहां प्रैक्टिकल करने की अनुमति दे।
मुजफ्फरनगर की छात्रा श्वेता सिंह भी तनाव में है। श्वेता भी विनिशिया यूनिवर्सिटी की छात्रा है और 5 सेमेस्टर की पढ़ाई कर चुकी है। श्वेता सिंह के पिता प्रवीण कुमार मुजफ्फरनगर के एक विद्यालय में शिक्षक है और अपनी आधी तनख्वाह उन्होंने सिर्फ अपनी बेटी की फीस भरने में खर्च की है। श्वेता सिंह के दादा रिटायर्ड शिक्षक तेजपाल सिंह साफ-सफाक कहते हैं कि अब अपने बच्चे को मरने के लिए यूक्रेन नही भेज सकते हैं,भारत सरकार ही हमारे लिए कुछ करें ! तेजपाल सिंह बताते हैं कि देश में मेडिकल की पढ़ाई बहुत महंगी थी और इसलिए उन्होंने यूक्रेन पढ़ने भेजा था। श्वेता ने 2 बार नीट की परीक्षा उत्तीर्ण की थी वो बचपन में ही अपने नाम के आगे ‘डॉक्टर’ लिखने लगी थी। हमारे परिवार ने अपने खर्चों में कटौती करके उसके लिए पढ़ाई का बंदोबस्त किया और अब उसका सपना टूटता दिख रहा है। काश भारत मे एमबीबीएस सस्ता होता तो हम उसे पढ़ने कभी नही भेजते।
श्वेता सिंह भी एक मेधावी छात्रा है वो कहती है सितंबर से पढ़ने का नोटिफिकेशन आया है। हमें कहा गया है हम पोलैंड ,बोस्निया जैसे पड़ोस के किसी देश मे ट्रांसफर ले सकते हैं। इसके लिए कुछ अतिरिक्त पैसे देने पड़ रहे हैं। अभी मेरा सामान तो यूक्रेन में ही मेरे कमरे पर है। नई जगह बहुत सारी नई मुश्किलें आएंगी ! इसमें पढ़ाई का मैथेड , फैकल्टी, जलवायु और भाषा भी समस्या है। निश्चित तौर पर इससे खर्च का बोझ बढेंगे। मैं मिडिल क्लास परिवार से हूँ, यूक्रेन में पढ़ाई करने वाले 20 हजार छात्रों में से अधिकांश मिडिल क्लास फैमली से ही है। अगर हमारे पास करोडों रुपये होते तो हम इंडिया में पढ़ लेते। हम टूरिज़्म करने नही गए हैं। हमें पढ़ना है, सरकार ऑनलाइन पढ़ाई को परमिट करे और हमें स्थानीय अस्पतालों में प्रैक्टिकल करने की अनुमति दे और यह कोई बहुत मुश्किल नही है।
डेनिबरो शहर में पढ़ने वाले एक अन्य छात्र शाहरुख चौधरी कुतुबपुर गांव में रहते हैं। शाहरुख पोलैंड जाने की तैयारियों में जुटे हैं। उनके पिता रियासत अली चिंता में घिरे हुए हैं परिवार के दूसरे लोग भी परेशान है। शाहरुख कहते हैं कि उनके पापा ने उनको डॉक्टर बनाने का ख्वाब देखा था। मेरी 6 महीने की पढ़ाई बची हुई है। हम किसान लोग है, हम जानते हैं कि यह हासिल करने के लिए हम बहुत तकलीफों से गुजरे है। कोई बम बारूद मेरे मां -बाप के सपनों से बड़ा नही हो सकता है। रियासत अली कहते हैं कि एक बाप होने के नाते वो डर रहे हैं मगर बेटा नही मान रहा है। वो ट्रांसफर लेना चाहता है और पौलेंड जाएगा ! हमारा काम पैसा जुटाना है, मैं इंतेजाम में लगा हुआ हूँ। इसी तरह की चिंता हजारों छात्रों और उनके परिजनों के मन मे चल रही है।
मेरठ के सुनील मैत्रेय बताते हैं कि उनका बेटा हार्दिक मैत्रेय खारकीव में एमबीबीएस कर रहा था। वो आज भी वो याद करके कांप जाते हैं जब वो पौलेंड के बॉर्डर पर कई दिन तक फंसा रहा। बर्फ जमा देने वाली ठंड में जब उसने अपनी तकलीफ हमें बताई तो हम कांप गए थे। तब चुनाव थे तो सरकार काफी सक्रिय थी अब ये बच्चें किसी को याद नही है। एनएमसी का रवैया भी इन बच्चों के प्रति नकारात्मक ही दिखता है। हम फंस गए हैं अब रास्ता नही दिख रहा।