ग्राऊंड रिपोर्ट : कोरोना ने जिनकी मासूमियत छीन ली और मुस्तक़बिल बिगाड़ दिया !

यह ग्राऊंड रिपोर्ट बताती है कि कोरोना की महामारी ने नोनिहालो की जिंदगी को बर्बाद कर दिया, गरीब परिवारों के बच्चें इससे ज्यादा प्रभावित हुए, उनका तो मुस्तक़बिल ही धुंधला हो गया। सिमरा अंसारी , की Twocircles.net के लिए यह रिपोर्ट पढ़िए


Support TwoCircles

11 साल की सना को प्यार से सब ‘बुलबुल’ कहते हैं। आज उसके हाथ में उसकी पसंदीदा इंग्लिश की किताब की जगह दुकान के हिसाब की कॉपी है। ऐसा कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन के कारण हुआ। सना उत्तर प्रदेश के शहर सहारनपुर में रहती है। दो साल पहले वह तीसरी क्लास में थी। अपने मोहल्ले के ही एक निजी स्कूल में पढ़ती थी। उस वक्त उसकी उम्र 9 साल थी। फाइनल पेपर हो चुके थे। रिज़ल्ट का इंतज़ार था और नई क्लास में जाने की खुशी।

“पेपर होने के बाद कुछ दिन की छुट्टी हुई थी। मुझे स्कूल जाना अच्छा लगता था। बहुत सारे दोस्त थे। हम खेलते थे, बातें करते थे। बहुत मज़ा आता था। मुझे इंग्लिश का पीरियड सबसे ज़्यादा पसंद था।” – चहरे पर हल्की सी मुस्कान के साथ वो ये सब बोल रही थी। ऐसा लग रहा था मानो उस मुस्कान के पीछे वो अपने दुख को छुपा रही है। पढ़ाई छूट जाने का दुख। छोटी सी उम्र में घर की ज़िम्मेदारियों का दुख।

अपनी बदल चुकी ज़िंदगी पर बात करते हुए सना कहती है– “दो साल पहले जब अचानक से लॉकडाउन हुआ तो पापा का काम बंद हो गया था। घर में परेशानी होने लगी। कुछ दिन बाद मैं चौथी क्लास में आने वाली थी लेकिन हमारे पास फीस जमा करने के लिए पैसे नहीं थे। एक दिन मैंने अपने गुल्लक को तोड़ दिया। उसके अंदर से 130 रुपए निकले। उन पैसों से मैंने घर में ही छोटी सी दुकान शुरू की, मोमोज़ की दुकान। हमारे घर से कुछ दूर ही बेचने के लिए तैयार मोमोज़ मिल जाते हैं। लॉकडाउन में मोमोज़ खरीदकर लाना थोड़ा मुश्किल था लेकिन मैं अपनी साइकिल से जाकर ले आती थी। पहले दिन मोमोज़ बेचकर मैंने 350 रुपए कमाए थे। ऐसे ही काम शुरू किया। कुछ दिन गुज़रे फिर सब्ज़ी और फल भी बेचने लगी। लॉकडाउन के दौरान हमने ऐसे ही गुज़ारा किया। फिर घर के पास एक छोटी सी दुकान किराए पर लेकर काम को बढ़ाने की कोशिश की। कुछ दिन अच्छे गुज़रे फिर उसमें मुझे नुकसान हो गया। तबियत भी ठीक नहीं थी। दुकान का शटर खोलने और बंद करने से पेट में दर्द हो जाता था। अब मैंने फिर से दुकान शुरू की है। काम सही चलेगा तो घर में आसानी रहेगी।”

अपनी बहन के साथ अली…..
Pic credit- simra ansari

13 साल के गुड्डू (बदला हुआ नाम) की भी कुछ ऐसी ही कहानी है। गुड्डू पांचवी क्लास में था। पिता बीमार रहते हैं। इसलिए परिवार की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है। 2 साल पहले अचानक से हुए लॉकडाउन ने तो गुड्डू के परिवार के लिए और भी परेशानी खड़ी कर दी। घर में खाने की भी किल्लत होने लगी। लॉकडाउन के कारण स्कूल भी बंद हो गया। कुछ समय बाद ऑनलाइन पढ़ाई शुरू तो हुई लेकिन गुड्डू के परिवार के पास फीस के लिए पैसे नहीं थे। घर की परेशानी ने उसे छोटी सी उम्र में ही पढ़ाई को पीछे छोड़ पैसे कमाने पर मजबूर कर दिया। वो काम की जुस्तजू में निकल पड़ा। एक दवाई की दुकान पर काम मिला। महीना भर काम करने के बाद उसे 2500 रुपए मिले। लेकिन कमाई का ये ज़रिया ज़्यादा वक्त के लिए नहीं था। सरकार बाल श्रम पर कड़ी करवाई कर रही है। गुड्डू की उम्र कम है। कम उम्र में काम न मिलने पर बात करते हुए वह कहता है– “बड़ी मुश्किल से दवाई की दुकान पर काम करने का मौका मिला था। अब वो भी नहीं रहा। एक सरकारी अधिकारी ने देखकर बहुत डांटा और मुझे घर भेज दिया। भैय्या (दुकान के मालिक) को भी फटकार लगाई, बोले आगे से बच्चे को काम पर रखा तो चालान काट देंगे। मेरे पापा फर्नीचर पर पॉलिश का काम करते हैं। इतनी कमाई नहीं हो पाती कि सारे खर्चे पूरे हो सकें। मैं काम इसलिए करना चाहता हूं ताकि हमें कोई परेशानी न हो लेकिन अंकल (सरकारी अधिकारी) को सिर्फ मेरी कम उम्र नज़र आती है। मेरी परेशानी को वो नहीं देखते।”

कोरोना महामारी ने देश के बच्चों का भविष्य अंधकार में डाल दिया है। ये सिर्फ सना या गुड्डू की कहानी नहीं बल्कि ऐसे बहुत से बच्चे हैं, जिनको पिछले दो सालों में पैसों की तंगी के कारण अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। कुछ बच्चे ऐसे भी हैं, जिन्हें फिर से स्कूल जाने का मौका मिला लेकिन उनकी स्थिति पहले जैसी नहीं रही।

8वी क्लास में पढ़ने वाले अयान ने फिर से अपनी पढ़ाई शुरू की। लॉकडाउन लगने से पहले अयान शहर के ही एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता था। इन दो सालों में आर्थिक तंगी ने अयान के माता-पिता को उसका दाखिला सरकारी स्कूल में कराने पर मजबूर कर दिया। इंग्लिश मीडियम से हिंदी मीडियम में जाने के कारण उसको परेशानी होती है। क्लास में पढ़ाए जाने वाली बहुत सी चीज़ें समझ नहीं आती।
अयान की मम्मी उसकी पढ़ाई को लेकर बात करते हुए कहती हैं– “वह अब पहले की तरह पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं लेता है। हम मजबूर हैं प्राइवेट स्कूल का खर्च नहीं उठा सकते हैं। लॉकडाउन की शुरुआत में स्कूल ने 6 महीने की फीस एडवांस में ही ले ली थी। पढ़ाई शुरू हो गई। लेकिन ऑनलाइन क्लास में भी पढ़ाई सही से नहीं हो पा रही थी। बहुत सी चीज़ें बच्चे समझ नहीं पाते थे। हालात पहले जैसे नहीं थे। इसके पापा का काम ठप हो गया था। ट्यूशन लगाना भी मुश्किल था इसलिए फिर अयान की पढ़ाई बंद करानी पड़ी। हम इतने ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं कि खुद से बच्चों को पढ़ा पाएं। छोटे बच्चों को तो मैं फिर भी थोड़ा पढ़ा देती हूं।”

आंकड़े बताते हैं कि कोरोना काल के दौरान प्राइवेट स्कूल से सरकारी स्कूल में जाने वाले बच्चों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। अक्टूबर 2021 में प्रकाशित हुई ASER (Annual Status of Education Report) के मुताबिक 2018 में सरकारी स्कूलों में नामांकन दर 64.3 फीसद थी। लेकिन 2021 तक आते-आते यह आंकड़ा 70.3% हो गया। देश भर के राज्यों में उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में नामांकन दर में भारी उछाल आया है। यूपी के सरकारी स्कूलों में (6-14 साल के बच्चों में) 13.2 फीसद की वृद्धि देखी गई है। यूपी में 2018 में सरकारी स्कूलों में नामांकन का आंकड़ा 43.1% था, जो 2021 में बढ़कर 56.3% हो गया है।

सुमैया अपनी भाई के साथ …

सहारनपुर में रहने वाले सरफराज़ आलम (शिक्षक/ SRG) ने इस बात की पुष्टि की। अक्टूबर 2019 में उत्तर प्रदेश सरकार ने स्टेट रिसोर्स ग्रुप (SRG) का गठन किया था। इसके लिए प्रदेश के 73 जनपदों में 187 शिक्षकों को स्टेट रिसोर्स ग्रुप (SRG) के सदस्यों के रूप में चयनित किया गया था। एसआरजी की प्रमुख ज़िम्मेदारी प्रत्येक स्तर पर शैक्षिक बदलावों को संभव बनाना है। सहारनपुर जनपद में सरफराज़ आलम को एसआरजी के रूप में नियुक्त किया गया था। उनका कहना है कि कोविड के दौरान सरकारी स्कूलों में प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले बेहतर काम हुआ। सरकारी स्कूलों में अब सभी काम ऑनलाइन हो गए हैं, जिससे काम में आसानी हुई है। कोरोनाकाल में ऑनलाइन क्लासेज़ और मोहल्ला क्लासेज़ शुरू की गई। लगातार शिक्षण कार्य की ऑनलाइन देख-रेख हो रही थी। वित्तीय संकट और छोटे प्राइवेट स्कूलों के बंद हो जाने के कारण सरकारी स्कूलों में नमांकन दर में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई। अगर छोटे बच्चों की बात करें तो ऐसी बड़ी संख्या है, जो कोरोना के कारण पिछड़ गए हैं। ऐसे बच्चों के लिए सरकार लगातार कोशिश कर रही है। इसके लिए ‘समृद्ध’ और ‘निपुण भारत’ जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। इनका लक्ष्य पिछले दो सालों में आए लर्निंग गैप को भरना है।

कोरोना महामारी से विश्व स्तर पर स्वास्थ्य व्यवस्था और अर्थव्यस्था चरमरा गई। इसके बाद सबसे बड़ा आघात शिक्षा व्यवस्था को हुआ है। चीन के बाद भारत में विश्व की दूसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था है। पिछले दो सालों में भारतीय शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह पिछड़ी है। ऐसे में भारत के लिए ये नुकसान बहुत बड़ा है। कोरोना महामारी के कारण अचानक से सभी स्कूल बंद हो जाने से लाखों बच्चे प्रभावित हुए हैं। हालांकि शिक्षण कार्य को ऑनलाइन शुरू किया गया, लेकिन फिर भी ये उपाय पूरी तरह कारगर साबित नहीं हुआ। यूनेस्को द्वारा किये गए एक सर्वे से पता चलता है कि देश में 5-13 उम्र के छात्रों के 67 फीसद माता-पिता और 14-18 उम्र के छात्रों के 71 फीसद माता-पिता का कहना है कि बच्चों में प्रगति स्कूल के मुकाबले में बहुत कम है। इसमें सबसे बड़ा नुकसान छोटे बच्चों का हुआ है, जिन्होंने पढ़ाई की तरफ पहला क़दम ही उठाया या अभी दाखिल होने वाले थे।

ऐसी ही एक बच्ची सुमय्या, जिसके स्कूली जीवन की अभी शुरुआत ही हुई थी। सुमय्या ने घर के पास ही एक स्कूल में जाना शुरू किया था। वह यूकेजी क्लास में है। उसके पिता एपेंडिक के मरीज़ थे। लॉकडाउन के दौरान इलाज न मिलने के कारण उसने छोटी उम्र में ही अपने पिता को खो दिया। अब परिवार में एक छोटी बहन और मम्मी हैं। सुमय्या की मम्मी ने बताया कि पिछले कई महीनों से उसकी स्कूल की फीस जमा नहीं कर पाई हैं। इसलिए अब वह स्कूल नहीं जा पा रही है। घर का खर्च भी मुश्किल रहता है तो फीस का कैसे सोचें? इस मासूम ने अभी सही तरीके से पढ़ना भी शुरू नहीं किया था।

Pic credit – simra ansari

11 साल के अली को मोबाइल और फीस के लिए पैसे न होने के कारण पढ़ाई छोड़नी पड़ी। अली के पिता एक मैकेनिक हैं। लॉकडाउन के कारण नौकरी छूट गई। अली के परिवार में माता-पिता के अलावा दो बहनें और एक छोटा भाई है। कम आमदनी के कारण कोरोना महामारी से पहले अली और उसकी बड़ी बहन सबा ही स्कूल जाते थे। दोनों बच्चे निजी स्कूल में पढ़ते थे। महामारी के दौरान नौकरी छूट जाने से परिवार को वित्तीय संकट ने घेर लिया। चाह कर भी पिता दोनों बच्चों को आगे पढ़ाने में असमर्थ थे। मजबूर होकर माता-पिता ने सरकारी स्कूल का रुख किया, लेकिन वहां आकर भी दोराहे का सामना करना पड़ा। महामारी के कारण सभी स्कूलों ने शिक्षण कार्य ऑनलाइन कर दिया था। घर में सिर्फ एक ही स्मार्टफोन था, जो कुछ महीने पहले ही खरीदा था। तब सिर्फ सबा का दाखिला शहर के इंटर कॉलेज में कराया गया। उस समय सबा छठी क्लास में थी। स्कूल से ऑनलाइन क्लास में इतना काम मिलता था कि पढ़ाई के लिए सिर्फ वही स्मार्टफोन का इस्तेमाल करती थी। दूसरा स्मार्टफोन न खरीद पाने के कारण अली को 2 साल तक पढ़ाई से दूर रहना पड़ा। स्कूल खुलने के बाद अली ने पिछले कुछ समय से स्कूल जाना शुरू किया। अब अली पांचवी क्लास में पढ़ता है, लेकिन उसकी जिंदगी में एक ब्रेक तो आ ही गया है।

SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE