अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पटना: दलितों की सियासत करने का दारोमदार लिए जीतनराम मांझी अब मुस्लिम वोटों के भी ठेकेदार बन गए हैं. क्योंकि मांझी को लगता है कि मुस्लिम वोटों के बग़ैर उनकी नैय्या पार नहीं होने वाली है. शायद यही वजह है कि मांझी हमेशा मुसलमान और उर्दू की बात करके खुद को मुसलमानों का सच्चा हमदर्द बताते रहे हैं.
मांझी जब बिहार में मुख्यमंत्री पद पर थे, तब उन्होंने उर्दू शिक्षकों का ख़ासा ध्यान भी रखा था. सभी कॉलेजों में दो उर्दू शिक्षकों की बहाली की भी घोषणा की थी. अपने शासनकाल में उर्दू अकादमी का फंड बढ़ाने का भी घोषणा की थी.
अब अपने इसी उर्दू-प्रेम को आगे बढ़ाते हुए मांझी ने बाक़ायदा अपने पार्टी के पोस्टरों व प्रेस कांफ्रेंस के बोर्डों पर ख़ासतौर से मुस्लिम वोटरों को संदेश देने के ख़ातिर उर्दू में इबारत लिखवाई है. मगर मांझी के लोग उर्दू भी सही नहीं लिख सके हैं. उर्दू में लिखे ये इबारत अर्थ का अनर्थ करते हैं.
दरअसल, ‘हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा’ (हम) के पोस्टरों व प्रेस कांफ्रेंस के बोर्डों पर हिन्दी में व अंग्रेज़ी में ‘हम’ तो लिखा है, लेकिन उर्दू ज़बान में ‘हम’ के बजाए सिर्फ ‘स’ लिखा हुआ है. इस सिलसिले में ‘हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा’ के प्रवक्ता डॉ. दानिश रिज़वान हास्यास्पद बयान देते हैं, ‘हमारी पार्टी एक सेक्यूलर पार्टी है. यहां ‘स’ का मतलब सेक्यूलर से हैं.’ लेकिन फिर वे इसे खुद ही ग़लत बताते हैं. उनका कहना है, ‘शायद गलती से ‘हम’ की जगह उर्दू का ‘स’ लिख गया है.’
भले ही ग़लती कोई बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन ये छोटी सी ग़लती ज़ाहिर करती है कि मांझी मुस्लिम वोटरों को लेकर किस क़दर हड़बड़ी में हैं.
हालांकि मांझी एनडीए गठबंधन में मिली 21 सीटों में से 4 सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों को देकर खुद ही अपनी पीठ थपथपा चुके हैं. उनका कहना है कि उन्होंने अपने वादे के मुताबिक़ 20 फ़ीसदी मुसलमानों को टिकट देकर मैदान में उतारा है. लेकिन सूत्रों की माने तो मांझी इन चार मुस्लिम उम्मीदवारों के बग़ैर कुछ भी नहीं हैं. यही चार मुस्लिम विधायक मांझी के मुश्किल घड़ी के साथी थे और तन-मन-धन सबसे मांझी का साथ दे रहे हैं.
ख़ैर, चुनाव के वक़्त मुसलमानी टोपी पहनना, उर्दू में पोस्टर-बैनर छपवा लेना, दाढ़ी-टोपी वाले मौलानाओं को लेकर प्रचार करना… बिहार के चुनाव में ये तरीक़े काफी दिनों से आज़माए जाते रहे हैं. जीतनराम मांझी भी इसी राह पर हैं. फ़र्क़ इतना है कि मांझी थोड़ा ज़्यादा ही हड़बड़ी में हैं. ऐसे में उनका चुनावी मुस्लिम-प्रेम व उर्दू-प्रेम पूरी तौर पर एक्सपोज़ होता दिखाई दे रहा है.