अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बस्तर(छत्तीसगढ़): भारत के नक़्शे में गोमपाड़ कहां है, शायद किसी को भी नहीं मालूम. बेहद पिछड़ा, उपेक्षित और चकाचौंध से कोसों दूर का इलाक़ा, जहां न बिजली की रोशनी पहुंचती है और न किसी विकास की.
यहां तक़रीबन 80 कच्चे मकानों में 300 से अधिक वह ग़रीब आदिवासी तबक़ा रहता है, जो बाहर की दुनिया से एकदम कटा हुआ है. सरकारों के बदलने, चुनावों के तारीख़ों का ऐलान, राष्ट्रध्वज के फहराए जाने और विकास के नाम पर होने वाली लंबी-चौड़ी सरकारी बैठकें, किसी भी घटनाक्रम की यहां कोई ख़बर नहीं होती.
यहां के लोगों ने आज़ादी के 70 साल बाद पहली बार तिरंगा इस 15 अगस्त को देखा. हैरानी की बात यह है कि यहां के लोगों को लोकतंत्र के सही मायने नहीं मालूम और भला मालूम हो भी कैसे? क्योंकि आज तक यहां के लोगों ने वोट नहीं दिया.
इस गांव में रहने वाले सुक्का बताते हैं कि गांव में किसी के भी पास किसी तरह का पहचान पत्र नहीं है. यहां आज तक न तो किसी का राशन कार्ड बना है, न जॉब कार्ड और न ही मतदाता पहचान पत्र.
सुक्का बताते हैं कि यहां आज तक किसी ने वोट नहीं दिया है. 2007 में गांव के लोगों ने खुद ही मिलकर गांव का सरपंच चुना था. लेकिन 2009 में गांव में पुलिस ने एक साथ कई लोगों को मार दिया. मामला हाईकोर्ट गया, जहां सरपंच को डराकर पुलिस वालों ने अपने पक्ष में बयान दिलवा लिया. तब से वह सरपंच आज तक गांव नहीं लौटा. वो कोंटा में रहते हैं.
नक्सलवाद से बुरी तरह प्रभावित इस गांव में राज्य प्रशासन का ख़ौफ़ आतंक की शक्ल में नज़र आता है. मेडल की ख़ातिर पुलिस जब-जिसे चाहे उठा लेती है और नक्सली बताकर मुर्दे की शक्ल में लटका देती है. न कोई पूछने वाला होता है और न ही कोई सुनने वाला. न कहीं कोई सुनवाई होती है और न ही कोई पूछताछ.
सच पूछें तो आज़ादी के 70 सालों बाद पहली बार गोमपाड़ अब सुर्खियों में है. वजह यहां आज़ादी के बाद पहला तिरंगा फहराया गया है और हैरानी की बात यह है कि ये काम भी जन-गण-मन के ‘भाग्य विधाताओं’ ने नहीं, बल्कि उन ग़रीब आदिवासियों ने किया है, जो इसी जन-गण-मन की बंदूकों का शिकार होते आए हैं. ये झंडा उस आदिवासी बच्ची ने फहराया है, जिसकी बड़ी बहन मड़कम हिड़मे को पुलिस ने नक्सली बताकर मार दिया.
बताते चलें कि आज़ाद हिन्दुस्तान में गोपमाड़ एक ऐसा गांव है, जहां आज तक कोई भी सरकारी योजना नहीं पहुंच सकी है. शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क और पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी यहां के आदिवासी महरूम हैं.
46 साल के सुब्बा बताते हैं कि इस गांव में 1980 तक सड़क हुआ करती थी और बड़ी गाड़ियां भी आसानी से आ जाया करती थी. लेकिन अब बड़ी गाड़ियों की बात तो दूर, मोटरसाइकिल तक का आना बड़ी बात होती है.
यह पूछने पर कि क्या उन्हें सड़क की ज़रूरत नहीं है? तो इस पर उनका जवाब साफ़ है, ‘नहीं.’
ऐसा क्यों? इस प्रश्न के जवाब में सुब्बा बताते हैं, ‘हमारा विकास से दूर रहना ही ज़्यादा बेहतर है, क्योंकि सबसे पहले सड़क के हमारे जंगलों के पेड़-पौधों को काट दिया जाएगा. जैसे ही सड़क बन जाएगी. पुलिस का आवाजाही बढ़ जाएगी. और पुलिस या सेना के लोग जब भी इस गांव में आए हैं, तबाही ही मचाए है. इधर दादा (आदिवासियों द्वारा नक्सलियों को दिया जाने वाला सम्बोधन) लोग भी आकर गांववालों को परेशान करते हैं. वे हमारे बच्चों और लड़कियों को मांगते हैं.’
यह बात बोलते-बोलते सुब्बा रुआंसे हो जाते हैं. वे बताते हैं, ‘जब भी पुलिस इस गांव में आती है तो इस गांव के सारे लोग जंगलों में भाग जाते हैं. गांव में सिर्फ़ वही लोग बच जाते हैं, जो चलने-भागने में अधिक सक्षम नहीं हैं. लेकिन पुलिस उन्हें भी नहीं छोड़ती. पिछले बार एक महिला के साथ बलात्कार करने के बाद उसे मार दिया था. उसके एक छोटे से बच्चे के हाथों की सारी उंगलियां काट डाली थीं.’ यह बात बताते ही सुब्बा रो पड़ते हैं.
35 साल की जोगी बताती हैं कि सबसे बड़ी आफ़त तब आती है, जब गांव में कोई बीमार पड़ता है. बीमारी की हालत में गांव के लोग मरीज़ को 25 किलोमीटर दूर कोंटा ले जाते हैं या फिर आंध्र प्रदेश के भद्रचलम लेकर जाना पड़ता है. दोनों ही जगह जाने में हमेशा पुलिस का डर बना रहता है. अब तक 5 से अधिक लोग समय इलाज पर अस्पताल न पहुंचने के कारण मौत के शिकार हो चुके हैं.
सामू का कहना है कि गांव में एक भी स्कूल नहीं है. लेकिन हम लोग अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. इसलिए गांव के 7 बच्चे कोंटा में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं. गांव में सबसे अधिक पढ़ा-लिखा नौजवान दसवीं पास है. यहां यह भी स्पष्ट रहे कि इसी गांव से क़रीब 15 किलोमीटर बांडा गांव में एक स्कूल मौजूद है, जिसका निर्माण 1962 में ही हो गया था. लेकिन समझ में नहीं आता कि आख़िर क्यों 1962 से बाद से आज तक एक अदद स्कूल गोमपाड़ नहीं पहुंच पाया.
सोयम पांडू बताते हैं कि गांव में पीने के पानी के लिए हैंडपम्प भी गांववालों ने ही लगाया है. जानवरों को नहलाने के लिए पानी की किल्लत को देखते हुए हम गांववालों ने एक तालाब खोद दिया है, जिससे अब पानी की किल्लत नहीं होती. बिजली के बारे में पूछने पर पांडू उल्टा हमसे ही सवाल पूछ बैठते हैं, ‘बिजली क्या होती है. हम तो अंधेरे में ही रहने के आदी हैं.’
गांव में किसी के पास लालटेन भी नहीं है, क्योंकि गांववालों का कहना है कि लालटेन के लिए मिट्टी तेल लाने का झंझट कौन पालेगा? इस गांव में एक भी दुकान नहीं है. लोग अपने खेतों में ही खाने की तमाम चीज़ उगाते हैं. ढेंकी से धान कूट लेते हैं. मसूर कुल्थी को दर लेते हैं. और इमली व मिर्ची की चटनी बनाकर दाल-चावल के साथ खा लेते हैं.
गांववालों के मुताबिक़ 2006 में मड़काम हड़मा को पुलिसवालों ने मार दिया था. अक्टूबर 2009 में भी 16 आदिवासियों को सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन ने तलवारों से काटकर मार दिया था. इन मारे गए लोगों में डेढ़ साल के बच्चे की मां थी, नाना-नानीथे, आठ साल की मौसी भी थी. सीआरपीएफ़ द्वारा इस बच्चे की तीन उंगलियां भी काट डाली गयी थीं. इसके अलावा एक दृष्टिहीन बुज़ुर्ग का पेट फाड़ दिया गया. एक बूढ़ी महिला के वक्ष काट डाले गए. इस मामले को लेकर गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार सुप्रीम कोर्ट गए हैं.
हिमांशु कुमार हमसे बातचीत में बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में गोमपाड़ जनसंहार मामले की सुनवाई हो चुकी है. सुप्रीम कोर्ट एसआईटी के गठन के लिए सहमत हो चुका है. इस सिलसिले में छत्तीसगढ़ सरकार को एसआईटी के लिए सदस्य का नाम देने को कहा गया है, जिसे राज्य सरकार ने अभी तक नहीं दिया है. इस मामले की अगली सुनवाई जल्द ही आने वाली है.
गांववालों के मुताबिक़ 2009 की घटना के बाद भी सीआरपीएफ़ समय-समय पर आकर गांववालों को परेशान करती रही है. कई लोगों को जेल में डाल दिया गया. इसी साल 5 लोग जेल से छूट कर आए हैं. इसी साल 13 जून को जीएडी कमांडो पुलिस ने मड़कम हिड़मे बलात्कार के बाद मार डाला था. मड़कम हिड़मे के इस मामले में अदालत ने न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं. इस तरह से यह बस्तर का पहला मामला बन गया है, जिसमें न्यायाकि जांच के आदेश दिए गए हैं.
गांववालों के मुताबिक़ इस साल यानी 2016 में अब तक 11 लोग पुलिस के बर्बरता के शिकार हुए हैं. इन 11 लोगों में से उन्होंने एक बैठक में 8 का ब्योरा भी उपलब्ध कराया.
गोमपाड़ की कहानी सामने आने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि इस गुमनाम इलाक़े के साथ हुए और हो रहे ऐतिहासिक और क्रूर अन्याय की गाथा खुलकर सामने आएगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि बाज़ारवाद की भीड़ में गुम हो चुका मुख्यधारा का मीडिया भी इस ओर झांकेगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि इन गरीब-पिछड़े आदिवासियों की आवाज़ें सत्ता के कानों तक गूंजेंगी और सरकारी फाइलों के बंदरबांट में तल्लीन तंत्र की आंखें ज़रूर मिचमिचा उठेंगी.
हक़ीक़त यह भी है कि गोमपाड़ कोई अपवाद नहीं है. छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के अंधेरे इलाक़ों में ऐसे कई गोमपाड़ सांस लेते हैं, जहां सुरक्षाबल और राज्य प्रशासन के अत्याचार की कहानी हर ज़ुबान पर चस्पा है. जिन्हें न कोई सुनता है, न कोई देखता है और न कोई सरकार को इसकी ख़बर तक पहुंचाने की कोशिश करता है.