आस मोहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
यूपी चुनावों के मद्देनज़र लगभग सभी राजनीतिक दल अब इलेक्शन मोड में आ गए हैं. जोड़-तोड़ का गणित शुरुआती दौर में है, सबसे ज्यादा चिंतित सत्ताधारी समाजवादी पार्टी है क्योंकि अंदरखाने में उन्हें भी नही लगता कि वे सत्ता में वापसी कर पायेंगे. एक माह पहले सैफई में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा था कि ‘अभी तक तो हम नम्बर एक थे, अब का पता नही’. अब यह बात सिर चढ़ रही है पारिवारिक विवाद के कारण अखिलेश की व्यक्तिगत लोकप्रियता तो बढ़ी है मगर वे फिलहाल नकारात्मक चीज़ों से बाहर नहीं निकल पाए हैं. खासतौर पर मुज़फ्फरनगर से लेकर मथुरा तक की लाल जमीन अखिलेश के ताज़ का कांटा बन गयी है.
समाजवादी पार्टी की सत्ता का आधार मुसलमान वोटबैंक पार्टी से छिटकता जा रहा है. कुछ दिनों में 18 प्रतिशत आरक्षण की मांग को लेकर सरकार के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन होने वाला है. सपा ने 2012 में यह वादा किया था जो पूरा नही किया गया. पश्चिम के लगभग 20 जिलों की 110 सीटो में से समाजवादी पार्टी 10 सीटें जीतने की भी स्तिथि में नही है. सपा ने यहां बहुत रेवड़ियां बांटी हैं लेकिन ज़्यादातर रेवड़ियां कड़वी ही निकली हैं.
मुख्यमंत्री की चिंता का सबब हैं पश्चिम के हालात
लाख कोशिशों के बाद भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति से मुख्यमंत्री का रक्तसंचार सामान्य नहीं हो पा रहा है. हो सकता है कि समाजवादी पार्टी को आगरा से सहारनपुर तक बहुत ज्यादा फर्क न मालूम पड़ता हो, भले ही उन्हें यहां मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व के लिए भी विधायक ढूंढना पड़ता हो, तब भी समाजवादी पार्टी 2017 में पश्चिम के 10 महत्वपूर्ण जिलों की लगभग 65 विधानसभा सीटों में बमुश्किल 10 भी जीतने की स्थिति में नहीं है. मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बिजनौर, मेरठ, गाजियाबाद, बागपत में हालात खाता नहीं खुलने तक के हैं. मुजफ्फरनगर के एकमात्र सपा विधायक नवाजिश आलम 2017 का चुनाव बमुश्किल ही पार्टी से लड़ेंगे. सहारनपुर आज भी सपाविहीन है, बिजनौर में दलित मुस्लिम गठजोड़ बहुत मजबूत हो चुका है. मेरठ से इस बार शाहिद मंजूर किठौर का किला बमुश्किल ही बचा पाएंगे. सिवालखास में गुलाम मोहम्मद साहब पहले ही किस्मत से जीत गये थे. गाजियाबाद की सचाई सामने आ रही है.
दरअसल महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या समाजवादी पार्टी इससे प्रभावित होती है? शायद कम, क्योंकि दल की जरूरत तो आगरा तक ही पूरी हो जाती है. हां एक मुख्यमंत्री का जरूर असर पड़ता है, क्योंकि एक राजा का राजधर्म भी होता है और तब एक राजा की जिम्मेदारी और बढ जाती है जब नकारा और चाटुकार आततायी आमजन का शोषण करने में लग जाते हैं. और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यही हो रहा है.
मुश्किल से निपटने को सपा को गुर्जर मुस्लिम एकता का सहारा
पश्चिम की लगभग 100 सीटों में समाजवादी पार्टी बेहद खराब हालत में है. यहां मुज़फ्फरनगर, मेरठ, सहारनपुर, बिजनौर, बागपत, ग़ाज़ियाबाद, बुलंदशहर, नोएडा में हालात अच्छे नहीं हैं. अमरोहा, सम्भल, रामपुर, मुरादाबाद और बरेली में भी पार्टी के नेता आपसी खींचतान में उलझे हैं. मुस्लिमों के अलावा कोई भी बड़ा समूह यहां समाजवादी पार्टी को वोट नही कर रहा.
2014 में सहारनपुर शहर विधानसभा के उपचुनाव पार्टी प्रत्याशी संजय गर्ग को चुनाव जिताने के लिए पार्टी ने पूरी ताक़त झोंक दी. वीवीआईपी जमावड़े के बीच संजय गर्ग को 65000 मुस्लिम वोट मिले मगर वे 5000 भी वैश्य वोट नहीं ले पाए. 2015 में मुज़फ्फरनगर शहर में गौरव स्वरूप अपने पिता चितरंजन स्वरूप के निधन से रिक्त हुई सीट पर चुनाव लड़ रहे थे जिन्हें मुसलमानों ने एकतरफा समर्थन दिया मगर वे भी अपने समाज तक को भाजपाई होने से रोक नही सके. देवबंद उपचुनाव में मुसलमान साइड लाइन हुआ तो कांग्रेस के मविया अली करीबी अंतर से चुनाव जीत गए. यहां अगर ठाकुर समुदाय मीना राणा को पूरा समर्थन देता तो उनकी एकतरफा जीत होती. खासबात यह है कि जिन अन्य समुदाय के लोगों को अपने समुदाय के नाम का सम्मान मिला, उनमें से कोई भी वोट ट्रांसफर की ताक़त नही रखता.
मुज़फ्फरनगर के एकमात्र विधायक नवाज़िश आलम रण छोड़ चुके है, अब वे दूसरे ट्रैक पर दौड़ेंगे. सहारनपुर पूरी तरह से उलझा है. उन्हें प्रतिद्वंदी की जरूरत ही नही है, बिजनौर, मेरठ और ग़ाज़ियाबाद में मंत्री तक चुनाव हार रहे हैं. मुज़फ्फरनगर में एक भी सीट सपा की झोली मे जाती नही दिख रही. अखिलेश सरकार ने शानदार काम किया है, जैसा पूर्व की सरकारें कभी नही कर पायीं. नौजवान मुख्यमंत्री के कामों को आमजन तक पहुंचाने मे उनके नेतागण विफल हुए हैं. पार्टी के बड़े नेताओ ने सिर्फ नकारात्मक माहौल ही तैयार किया है. उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री ने यह सब ताड़ लिया है और कमान पूरी तरह अपने हाथ में ले ली है. पार्टी नेतृत्व और संगठन पर अखिलेश के फैसलों की छाप दिखाई देती है.
पश्चिम उत्तर प्रदेश मे गुर्जर मुस्लिम समीकरण को लेकर उनका प्रयोग कारगर साबित होगा. यहां 38 विधानसभा सीटों पर यह समीकरण एक तरफा फैसला कर देगा. इसी समीकरण की कड़ी में सुरेन्द्र नागर को राज्यसभा में भेज दिया गया है और अब उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव भी बना दिया है. नरेंद्र भाटी भी मंत्री और प्रत्याशी है. रामसकल गुर्जर सरकार में मंत्री हैं. वीरेंद्र सिंह एमएलसी हैं और अतुल प्रधान मेरठ के प्रथम पुरुष (उनकी पत्नी सीमा जिला पंचायत अध्यक्ष) हैं. शालीन और मज़बूत घराने के पूर्व सांसद संजय चौहान के पुत्र चंदन इस कड़ी में अगले हैं, जो सीएम की आंखो के तारे हैं.