अभय कुमार
पिछले महीने पूर्वी उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में भाजपा की एक बड़ी रैली से ख़िताब करते हुए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने सपा, बसपा और कांग्रेस पर निशाना साधा, ‘तीन तलाक़ के साथ आप हैं या नहीं?’ आजकल मुस्लिम महिलाओं के लिए ‘इंसाफ’ के मसले पर विपक्षी पार्टियां शाह के अलावा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हमले का निशाना बनती रहीं हैं. भाजपा नेताओं का आरोप रहा है कि विपक्ष ‘वोट-बैंक पॉलिटिक्स’ की वजह से तीन-तलाक़ जैसे ग़लत रस्म और रिवाज पर चुप्पी साधे हुए है.
तलाक़ और मुस्लिम महिलाओं के ऊपर हो रहे ‘अत्याचार’ का मसला उठाकर भाजपा का मकसद विवादित समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) के पक्ष में माहौल तैयार करना है. पार्टी को उमीद है कि इस प्रक्रिया में उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में होने वाले चुनाव के दौरान वह फायदा उठा पायेगी, क्योंकि तीन-तलाक और समान नागरिक संहिता का मसला उनकी सोच में ‘हिन्दू’ वोटरों को लामबंद करने का एक आसान जरिया साबित हो सकता है.
मीडिया की मदद से भाजपा हिन्दू वोटरों के एक बड़े हिस्से में यह पूर्वाग्रह फैलाने में कामयाब होती नज़र आ रही है कि मुस्लिम औरतें ही अपने मर्दों के ज़ुल्म की शिकार हैं. भाजपा यह हकीक़त कभी नहीं सामने लाना चाहेगी कि इस्लाम ने पहली बार औरतों को कई सारे बराबरी के अधिकार दिए और इंसाफ के मामले में अन्य कई धर्मों से कई आगे क़दम बढ़ाया. मिसाल के तौर पर इस्लाम ने सबसे पहले तलाक के ज़रिये पति और पत्नी को खुशगवार तरीके से जुदा होने की इजाज़त दी अगर उनका एक साथ रहना संभव न हो. तभी तो गैर-मुस्लिम समाज ने भी इस्लाम की राह पर चलते हुए तलाक अर्थात रिहाई या आज़ादी के हक को अपने समाज में जगह दी. इसके अलावा फ्स्ख-ए-निकाह का प्रावधान इस्लाम के अन्दर है जिसके तहत पत्नी दारउलकज़ा (इस्लामी अदालत) में जाकर यह शिकायत कर सकती है कि उसका शौहर उसके उपर ज़ुल्म और उसके साथ ज़्यादती कर रहा है और अगर दारुलकज़ा औरत की दलील से संतुष्ट होता है तो वह निकाह को फस्ख अर्थात ख़त्म कर सकता है.
इसके अलावा भाजपा और अन्य हिंदूवादी ताक़तें यह भी नहीं बताना चाहेंगी कि इस्लाम ने औरतों को मां-बाप की सम्पति में अधिकार दिया और उन्हें आर्थिक तौर से मज़बूत किया. शादी के वक्त लड़की की रजामंदी को भी इस्लाम ने लाज़मी करार दिया. मगर आज हिंदूवादी प्रोपागेंडा इन सारी हकीक़तों पर पर्दा डाल तीन-तलाक़ के मसले पर ऐसा बवाल मचा रहा है कि मानो अगर तीन तलाक को ख़त्म कर दिया जाये तो मुसलमानों की सारी मुसीबतें और उनका पिछड़ापन ख़त्म हो जायेगा.
इस सन्दर्भ में पिछले माह आरएसएस विचारक एम. जी. वैद्य ने अंग्रेजी अख़बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ (नवम्बर 1) में एक काफी विवादित लेख लिखा. इस लेख में उन्होंने कहा कि सरकार बगैर किसी विलम्ब के एक ऐसा कानून पास करे जिसके तहत शादी और तलाक के लिए एक समान कानून (common law) हो. वैद्य के मुताबिक़ ऐसा कानून तीन तलाक़ की समस्या को ख़त्म कर देगा और तलाक़ मांग रही महिलाओं को भी न्याय मिलेगा.
क्या यह क़दम इतना आसान है? कैसे शादी और तलाक़ से संबंधित कोई कानून सबको मान्य होंगे? इस नाज़ुक और संवेदनशील सवाल पर गहराई से सोचने के बजाय वैद्य ने विरोधियों को धमकी दे डाली और कहा कि जो समान नागरिक संहिता का विरोध करेंगे, वह मतदान जैसे संवैधानिक अधिकार से वंचित कर दिए जाएंगे.
वैद्य ने समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए जिस तरह सरकार पर दबाव डाला वह इस बात की तरफ इशारा करता हैं कि संघविचारक भारत के इतिहास और सामाजिक तानाबाने को जानते नहीं या जानबूझ कर इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. खुद भाजपा समान नागरिक संहिता को दशकों से चुनावी एजेंडा के तौर पर उछालती रही है मगर जब सत्ता में आसीन होती है, तो उसे ठंडे बस्ते में डाल देती है. वैद्य इन बातों को अपने लेख में बड़ी आसानी से नज़रअंदाज़ कर गए.
समान नागरिक संहिता को लागू करने में भाजपा की असफलता की एक बड़ी वजह है भारत का एक बहु-सांस्कृतिक देश होना. इस मुल्क में समान नागरिक संहिता सब पर लागू करना आसान नहीं है. भाजपा भी यह बात अच्छी तरह जानती है कि भारतीय समाज को एक रंग में रंगने की कोशिश करना बेहद खतरनाक हो सकता है. मुस्लिम, ईसाई, सिख और जैन जैसे अल्पसंख्यक समुदायों को अगर छोड़ भी दिया जाए तो भी सभी हिन्दुओं के लिए कोई एक कानून जो सबको समान रूप से मान्य हो, बनाना बहुत मुश्किल काम है. शादी को ही ले लीजिये- क्या पंजाब में रहने वाला कोई हिन्दू तमिलनाडु में रहने वाले हिन्दुओं के रीति-रिवाज के मुताबिक विवाह करना पसंद करेगा? तभी तो भारत का सविंधान धार्मिक आज़ादी, सांस्कृतिक विविधता और बहुलतामूलक मूल्यों पर ज़ोर देता है. मिसाल के तौर पर सविंधान ने आदिवासी समुदाय को समान नागरिक संहिता से मुक्त रखा है. कुछ उसी तरह भारत में कई ऐसे प्रदेश (जैसे मिजोरम और कश्मीर) हैं जिनको अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाये रखने के लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं जिसके तहत केंद्र द्वारा बनाए गए बहुत सारे कानून वहां लागू नहीं किए जा सकते.
इसमें कोई शक नहीं है कि धर्म और संस्कृति के नाम पर आज भी समाज में कई सारी अमानवीय कुरीतियाँ की जड़ें गहराई तक जमी हुई हैं. आज़ादी के बाद इनमें से कुछ कुरीतियों जैसे छुआछूत को बाबासाहेब आंबेडकर ने जद्दोजहद कर कानूनी तौर पर ख़त्म किया. वह चाहते थे कि राज्य समाज में व्याप्त सभी सड़ी-गली रीती-रिवाजों को साफ करने में ठोस क़दम उठाए जाएं. मगर इसके साथ-साथ बाबासाहेब आंबेडकर ने यह भी चेतावनी दी कि कोई भी सरकार ऐसा कोई भी कानून बनाने की बेवकूफी न करे जिससे जनता बागी बन जाए. 1949 में संविधान-सभा में बोलते हुए उन्होंने आगाह किया कि कोई भी सरकार ताक़त का इस्तेमाल यूं न करे कि मुस्लिम समुदाय विद्रोह करने पर उतर आये.
बाबासाहेब की चेतावनी को भूलकर भाजपा एक बार फिर आचार संहिता की आड़ में मुसलमानों को निशाना बना रही है. दूसरी तरह इन्ही हिंदूवादी ताकतों ने 1940 और 1950 के दशक में बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा औरतों को बराबरी के लिए लाये गए हिन्दू कोड बिल में किसी भी तरह के सुधार से साफ़ इनकार किया था और इसे हिन्दू समुदाय के ऊपर एटम बम बतलाया था. क्या आरएसएस विचारक वैद्य – जो मुस्लिम और इसाई महिलाओं के अधिकार के लिए मगरमच्छ के आंसू बहा रहे हैं – के अन्दर इनती हिम्मत है कि वह आरएसएस को हिन्दू कोड बिल के विरोध के लिए हिन्दू महिलाओं से मांफी मांगने के लिए कहें? जैसा कि बाबासाहेब आंबेडकर ने खुद कहा था कि हिन्दू समुदाय में सुधार करने की उनकी आखिरी कोशिश हिन्दू कोड बिल थी जिसको आरएसएस, जनसंघ समेत सवर्ण हिन्दुओं की लाबी ने पास होने नहीं दिया. तभी तो 1949 में आरएसएस ने हिन्दू कोड बिल की मुखालफत में 79 सभाएं की थीं.
कल तक औरतों को समाज में बराबरी दिलाने के विरोधी रहे आरएसएस और जनसंघ (जिसके कोख से भाजपा निकली है) आज मुस्लिम महिलाओं के हक के सबसे बड़े पैरोकार बनने का दावा कर रहे हैं.
आखिर में यह भी कहना चाहूंगा कि जहां तक बात तीन तलाक़ की है, इसे कहीं से भी जायज़ इस्लामी तरीका नहीं कहा जा सकता है और इसको लेकर मुस्लिम समाज में काफी बहस चल रही है. बेहतर यही होगा कि मुस्लिम समुदाय के सामाजिक सुधार के मसले को मुस्लिम समुदाय पर ही छोड़ दिया जाए.
[अभय कुमार जेएनयू में पीएचडी कर रहे हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]