अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCirclwes.net
नई दिल्ली : बहन मायावती की पार्टी बहुजन समाजवादी पार्टी (बसपा) के खाते में जमा 104 करोड़ रूपये की ख़बर चर्चे में है. दूसरी सियासी पार्टियां जहां इसे काला-धन बता रही हैं, वहीं मायावती ने इन सियासी पार्टियों पर पलटवार करते हुए कहा है कि –‘ये पार्टी का पैसा है, कालाधन नहीं…’ उन्होंने यह भी कहा कि –‘बसपा ने अपने नियमों के तहत हमेशा की तरह बैंक में पैसा जमा करवाया है. ये एक रूटीन प्रक्रिया है.’
लेकिन इन सबके बीच सच्चाई यह है कि बहन मायावती की पार्टी बसपा अपने अकाउंट में भले ही करोड़ों का फंड रखती हो, लेकिन पार्टी ने चुनाव आयोग को हमेशा चंदे की रक़म ‘शुन्य’ ही बताया है और वो ऐसा पिछले बारह सालों से करती आ रही है.
चुनाव आयोग से मिली जानकारी के मुताबिक़ 2002-03 से लेकर 2015-16 तक बसपा ने अपने चंदे का ब्योरा ‘शुन्य’ बताया है और चुनाव आयोग को अपने दानदाताओं की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं कराया है. यानी इसका मतलब यह है कि बसपा को इन 12 सालों में किसी ने भी 20 हज़ार से अधिक चंदा नहीं दिया है.
बताते चलें कि रिप्रेज़ेंटेशन ऑफ़ पीपुल्स एक्ट (1951) में वर्ष 2003 में एक संशोधन के तहत यह नियम बनाया गया था कि सभी राजनीतिक दलों को धारा 29 (सी) की उपधारा-(1) के तहत फ़ार्म 24(ए) के माध्यम से चुनाव आयोग को यह जानकारी देनी होगी कि उन्हें हर वित्तीय वर्ष के दौरान किन-किन व्यक्तियों और संस्थानों से कुल कितना चंदा मिला. हालांकि राजनीतिक दलों को इस नियम के तहत 20 हज़ार से ऊपर के चंदों की ही जानकारी देनी होती है.
नियम के मुताबिक़ आयोग के पास पंजीकृत सभी दलों को चंदे से संबंधित जानकारी उपलब्ध करानी चाहिए. हालांकि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके तहत राजनीतिक दल यह जानकारी देने के लिए बाध्य हों.
विंडबना यह है कि नियम के मुताबिक़ राजनीतिक दलों को चंदे का ब्योरा आयोग में जमा करना है पर ऐसा प्रावधान नहीं बनाया गया जिसके तहत आयोग इस जानकारी का जमा किया जाना सुनिश्चित कर सके.
सवाल और भी हैं. मसलन, राजनीतिक दल अपनी ऑडिट निजी स्तर पर करवाकर आयकर विभाग या आयोग को जानकारी दे देते हैं. इस बारे में आयोग ने केंद्र सरकार से सिफ़ारिश की थी कि ऑडिट के लिए एक संयुक्त जाँच दल बनाया जाए जो राजनीतिक दलों के पैसे की ऑडिट करे. अगर ऐसा होता तो राजनीतिक दलों के खर्च पर नज़र रख पाना और उसकी जाँच कर पाना संभव हो पाता. इससे पार्टियों की पारदर्शिता तो तय होती ही, साथ ही राजनीतिक दलों के खर्च और उसके तरीक़े पर भी नियंत्रण क़ायम होता. पर केंद्र सरकार ने इस सिफ़ारिश को फिलहाल ठंडे बस्ते में ही रखा है.