आस मोहम्मद कैफ, TwoCircles.net
सहारनपुर/मुज़फ्फरनगर : विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी सरगर्मी शबाब पर है, मगर चुनावी रंगत एकदम फीकी. पार्टी व प्रत्याशियों के बिल्ले तो अब ओझल ही हो चुके हैं, साथ ही इन बिल्लों को इकट्ठा करने की जुगत करती गली-मोहल्लों में बच्चों की टोलियां भी अब यादों में ही बाकी हैं. अब तो बच्चों को मालूम भी नहीं कि चुनाव हो रहा है. इस सबके पीछे कारण है चुनाव आयोग की सख्ती.
दरअसल आयोग ने प्रत्याशियों के खर्चों पर पाबंदी लगा रखी है, सो वे फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं. चुनावी शोर-शराबा चुनाव आयोग के अंकुश में दबकर रह गया है.
बात यदि ढाई दशक पहले की करें तो भले ही बच्चों का चुनाव में कोई योगदान नहीं होता, मगर चुनाव के दौरान उनकी उमंग सिर चढ़कर बोलती थी. प्रत्याशियों के बिल्ले जुटाने की जुगत में गली-मोहल्लों में दौड़ लगाती बच्चों की टोलियां एक अलग ही चुनावी माहौल का एहसास कराती थीं. जब भी कोई प्रचार वाहन या रिक्शा गली-मोहल्लों में पहुंचता था तो बच्चों की टोलियां उसकी ओर दौड़ पड़ती थीं.
बच्चों को इससे कोई सरोकार नहीं होता था कि वह प्रचार वाहन किस प्रत्याशी या दल का है? उनकी चाह तो उनसे बिल्ले पाने की रहती थी. जैसा माइक पर सुनते वैसे ही नारे लगाते और बिल्ले मांगते. बच्चों का हाल यह था कि उनके हाथ में झंडा किसी दल का होता था तो सिर पर टोपी किसी दल की. सीने पर बिल्ले कई-कई प्रत्याशियों के लटके रहते थे. मुंह पर ‘जीतेगा भाई जीतेगा’ या ‘मोहर तुम्हारी कहां लगेगी’ के नारे होते थे. प्रचार वाहनों से बिल्ले, झंडे व टोपियां पाकर बच्चे प्रत्याशियों के नारे लगाते हुए इधर से उधर घूमते हुए चुनावी माहौल बनाते नजर आते थे.
अब चुनाव आयोग की सख्ती के चलते चुनावी परिवेश एकदम बदल चुका है. न कहीं झंडा है और न ही बैनर. बिल्ले तो एकदम ओझल ही हो गए हैं. बच्चों में चुनाव के प्रति कहीं कोई उत्साह नहीं नज़र आ रहा है. उन्हें तो पता ही नहीं कि चुनाव हो भी रहे हैं. चूंकि चुनाव के ऐन बाद परीक्षाएं होनी हैं, सो वे तो पढ़ाई के बोझ तले ही दबे हुए हैं. ऐसे में बिल्ला आदि बनाकर या बाहर से लाकर बेचने वाले लोग भी दूसरे रोजगार पकड़ चुके हैं.
बुजुर्ग हजारी लाल बताते हैं, ‘जब वे बच्चे थे तो चुनाव के समय बिल्ले इकट्ठे करने का उन्हें भी शौक था. वे इनके लिए प्रचार वाहनों के पीछे दौड़ लगाते थे. इसे लेकर उनकी घर में पिटाई भी होती थी.’ राम सिंह पुराने दिनों को याद कर कहते हैं कि घर में बैठे होते थे और बाहर से प्रचार वाहन की आवाज सुनते थे तो निकलने की जुगत करते थे. वाहन के पास पहुंचकर झंडे, बिल्ले मांगते थे. अब तो ये सब ख्वाब बनकर रह गया है.
आदर्श प्रिंटर्स के मालिक आज़म खान बताते हैं कि चुनावी समय में उन्हें फुरसत नहीं मिलती थी. ग्राहक लौटाने पड़ते थे. अब तो उनके पास चुनाव का कोई काम ही नहीं है. दूसरे काम तलाशने पड़ रहे हैं. आइडियल प्रिंटर्स सिटी सेंटर के मालिक कलीम त्यागी व वसीम त्यागी का कहना है कि चुनाव के दौर में छपाई व बैनर का काम उनके पास इतना आता था कि कई महीने की एडवांस बुकिंग रहती थी. मगर इस बार प्रत्याशी संपर्क ही नहीं कर रहे हैं.