अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बाबरी मस्जिद-राम मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भले ही आपसी समझौते की बात की हो, लेकिन मामला अब धमकी पर आ गया है. भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने खुले शब्दों में कह दिया है, ‘मुस्लिम संगठन सरयू नदी के उस पार मस्जिद बनाने का हमारा प्रस्ताव मान लें, नहीं तो साल 2018 में राज्यसभा में बहुमत आने के बाद क़ानून बनाकर मंदिर बनाया जाएगा.’
स्वामी की इस धमकी के बाद शायद समझौते के सारे रास्ते बंद चुके हैं. समझौता वहां होता है, जहां त्याग की भावना हो, एक-दूसरे का आदर हो, एक-दूसरे को समझने की कोशिश हो. लेकिन यहां हक़ीक़त यह है कि चाहे कुछ भी हो, वहां बनना तो मंदिर ही है. यही कारण है कि कुछ मीडिया चैनलों ने इस मसले का समझौता टेलीविज़न चैनल के डिबेट में ही कर दिया है. हद तो एक तबक़े के लोग समझौते का स्वागत सिर्फ़ उस सूरत में कर रहे हैं कि मस्जिद वाली जगह पर मंदिर का निर्माण करने दिया जाए. शायद यही वजह रही है कि अतीत में भी इस तरह के समझौते कामयाब नहीं हो सके.
सुब्रमण्यम स्वामी के जिन बातों को मीडिया आज प्रसारित व प्रकाशित कर रहा है, इन्हीं बातों को भाजपा यूपी चुनाव में बहुत पहले ही अपने हर वोटर से कह चुकी है. यूपी चुनाव के कवरेज के दौरान मुझे राम मंदिर की चर्चा हर जगह नज़र आई. यूपी के लोगों का साफ़ तौर पर कहना था कि चुनाव के बाद अयोध्या में राम मंदिर बन जाएगा. भाजपा के तमाम दिग्गज नेता भी राम मंदिर के बहाने ही यूपी में अपनी नैय्या को पार लगाने में जुटे हुए थे, जिसका उन्हें चुनाव में स्पष्ट फ़ायदा भी मिला है.
चुनाव के तीसरे चरण के ठीक एक दिन पहले केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने राम मंदिर मुद्दा उठाते हुए कहा कि राम मंदिर अयोध्या में ही बनेगा. वहीं राज्यसभा सांसद विनय कटियार ने चौथे चरण की वोटिंग से ठीक पहले कहा कि, ‘भाजपा के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है इसी वजह से किसी क़ानून के ज़रिए राम मंदिर बनाने की राह मुश्किल हो रही है. राज्यसभा में बहुमत आने के बाद क़ानून प्रक्रिया के तहत राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा.’ इसके पूर्व पार्टी के यूपी प्रदेशाध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने 25 जनवरी को बयान दिया था कि राम मंदिर आस्था का सवाल है. मंदिर का निर्माण चुनावों के बाद किया जाएगा. इस मामले को लेकर कांग्रेस की लीगल सेल ने चुनाव आयोग में शिकायत की थी. इस शिकायत के बाद चुनाव आयोग ने जांच बिठाई है, अब देखना दिलचस्प होगा कि इस जांच की रिपोर्ट कब आती है और मौर्या के ख़िलाफ़ क्या एक्शन लिया जाता है.
यही नहीं, ठीक चुनाव के पहले नवम्बर 2016 में अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के विवाद के निबटारे के लिए फैज़ाबाद कमिश्नर को एक नई याचिका दायर की गयी, जिसमें विवादित भूस्थल पर एक मस्जिद और मंदिर बनाने का प्रस्ताव रखा गया है. एक दावे के मुताबिक़ इस याचिका में जन्मभूमि के आस-पास मौजूद दस हज़ार से अधिक लोगों के हस्ताक्षर शामिल हैं. हस्ताक्षर करने वालों में हिन्दू व मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग शामिल हैं.
यहां यह भी बताते चलें कि इस पूरी मुहिम का नेतृत्व हाई कोर्ट के पूर्व जज पलोक बसु कर रहे हैं. कमिश्नर सूर्य प्रकाश मिश्र भी मीडिया को दिए बयान में बता चुके हैं कि उन्हें इस मामले में एक याचिका मिली है, जिसमें कई लोगों के हस्ताक्षर शामिल हैं. वे आने वाले समय में इस दिशा में कार्रवाई करेंगे और पलोक बसु ने भी इस मामले में आशा जताई है कि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय का साथ मिलेगा.
इस ज्ञापन में साफ़ तौर पर लिखा है कि रामलला की पूजा जहां हो रही है, मंदिर वहीं बनेगा. इसके अलावा यूसुफ़ की आरा मशीन के पास अधिगृहित क्षेत्र में एक मस्जिद बनाने की इजाज़त मिले.
इन सब बयानों और बातों के बीच यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि मुस्लिम समाज अब इस मसले पर क्या सोचता है, इसे समझा जाना बेहद ज़रूरी है. जहां एक तबक़ा सिर्फ़ मंदिर के निर्माण पर अटका हुआ है, वहीं सोशल मीडिया पर आपको अनेकों ऐसे मुस्लिम नौजवान मिल जाएंगे जो अपनी पोस्ट के ज़रिए बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हमें मंदिर-मस्जिद नहीं, बल्कि मुल्क की शांति चाहिए.
इससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि मुसलमानों के पास इस मोदी-योगी हुकूमत में यह बात कहने के सिवा कोई चारा भी नहीं है. क्योंकि सोशल मीडिया पर लिख रहे युवाओं को पता है कि मुसलमानों के पास कोई भी ऐसा मज़हबी या सियासी नेता नहीं है, जो इस मामले में आगे बढ़कर मुसलमानों की रहनुमाई करे. और जो इस विवाद के नाम की रोटी खाने वाले रहनुमा हैं उन्हें भी अब इस मसले से कोई ख़ास लगाव नज़र नहीं आता है. इस बात का अहसास अयोध्या में पिछले दिनों हाशिम अंसारी के बेटे इक़बाल अंसारी से मिलकर बखूबी हो गया. ये अलग बात है कि इन दिनों एक बार फिर से टीवी व मीडिया जगत की ज़ीनत बनने और बढ़ाने व अपनी राजनीति चमकाने वाले वाले कई मुस्लिम नेता सक्रिय हो गए हैं.
इस देश में ऐसे मुसलमानों की भी कोई कमी नहीं जिन्होंने बाबरी मस्जिद के नाम पर अपनी राजनीति चमकाई, सियासी दूकानों को परवान चढ़ाया और दौलत से मालामाल हुए. मगर इसमें एक शख्स ऐसा भी जिसको कोई टकसाल खरीद नहीं पाया, लेकिन मुसलमानों के मसीहा बने फिरने वालों ने भी उसकी कोई मदद नहीं की है. वो शख्स कोई और नहीं बाबरी मस्जिद के सबसे पहले मुस्लिम पक्षकार हाशिम अंसारी और उनका परिवार है.
हाशिम अंसारी ने अपनी पूरी ज़िंदगी बाबरी मस्जिद के लिए वक़्फ की और लड़त-लड़ते इस दुनिया से चले गए. अब उनके बेटे इक़बाल अंसारी इस केस के पक्षकार हैं. उनकी ज़िदगी ग़ुरबत का शिकार है, लेकिन मिल्लत के नाम पर करोड़ों का चंदा इकट्ठा करने वाली तंजीमें उनका हाल नहीं जानना चाहतीं. चुनाव के दौरान उनसे मेरी मुलाक़ात हुई उस दौरान उन्होंने जो अपना दर्द बयान किया वो मुझे अंदर तक झकझोर देने के लिए काफी है.
50 साल के इक़बाल अंसारी का साफ़ तौर पर कहना था कि, ‘अब्बू की मौत पर तो पूरे देश से लोग आएं, लेकिन उनकी मौत के बाद कुछ साधु-संतो व महंतों को छोड़कर कोई भी क़ौम का या सियासी रहनुमा हमें पूछने नहीं आया.’
इक़बाल आठवीं पास हैं. कभी उनकी खुद की मोटर पार्ट्स की दुकान थी, लेकिन पिता के मौत के बाद अब ये दुकान बंद हो चुकी है. इनके चार बेटे हैं. बड़ा बेटा ज़हीरूद्दीन 25 साल का है और शहर में ऑटो चलाता है. दूसरा बेटा अख़लाक़ अंसारी (23) साकेत कॉलेज में पढ़ाई करने के साथ-साथ ऑटो भी चलाता है. तीसरा बेटा इस्लाम अंसारी (19) साकेत कॉलेज में बीए सेकेन्ड इयर का छात्र है और सबसे छोटा बेटा शोएब (14) नवीं क्लास में है. इनकी एक बेटी 22 साल की है, जिसके लिए इक़बाल लड़का तलाश कर रहे हैं. इनके मुताबिक़ अम्मी का इंतक़ाल 15 साल पहले ही हो चुका है.
घर के हालात व खर्च के बारे में पूछने पर इक़बाल खामोश हो जाते हैं. फिर वो बताते हैं कि जो खर्च है वो घर का ही है. बेटे तो अब कमाने लगे हैं. दाल-रोटी का इंतज़ाम हो जाता है. मस्जिद का केस का खर्च तो वक़्फ़ बोर्ड ही उठाती है. कभी-कभी लखनऊ जाना पड़ता है तो खुद ही खर्च कर लेता हूं. बाक़ी घर पर लोगों का आना-जाना लगा रहता है. अब मीडिया के लोग आएं और उन्हें चाय के लिए भी न पूछे तो नाराज़ हो जाएंगे. बस यही सब खर्च है. पैसे ज़्यादा है नहीं, पता नहीं, बेटी की शादी कैसे करूंगा…
इक़बाल का कहना था कि अयोध्या का माहौल तो काफी अच्छा है. लेकिन बावजूद इसके डर बना रहता है कि बाहर के लोग आकर कुछ कर न दें. 1992 में मेरा पूरा घर जला दिया गया था. इतना बोलते ही वो खामोश हो जाते हैं.
वो यह भी बताते हैं कि मेरे अब्बू को मंदिर से जुड़े लोगों ने काफी ऑफर दिया लेकिन उनका एक ही जवाब होता था, ‘हाशिम भारत का सबसे रईस आदमी है, तुम नहीं खरीद सकोगे.’ जैसे ही मैं पूछता हूं कि क्या आपको भी कोई ऑफर मिला. तो जवाब था, ‘नहीं… और मिलेगा भी तो मैं बिकुंगा नहीं. मस्जिद का मसला है, खुद को बेच नहीं सकता. अल्लाह को भी मुंह दिखाना है.’
लेकिन इस पूरे बातचीत में इस बात को मैंने बखूबी महसूस किया कि इक़बाल अंसारी को सबसे ज़्यादा अहसास इस बात का है कि क़ौम का कोई भी आदमी उसे सलाह-मश्विरा देने के लिए मौजूद नहीं है. आठवीं पास इक़बाल का जो दिमाग़ चलता है, वही करता है. ऐसे में मीडिया या अन्य लोग जो चाहें उससे बयान दिलवा सकते हैं.
खैर, इससे भी ज़्यादा सोचने की बात यह है कि साल 2010 के सितम्बर में इलाहाबाद हाईकोर्ट तो आस्था के आधार पर इस विवादित भूमि को बांट चुकी है. लेकिन क्या देश की सबसे बड़ी अदालत भी इसे आस्था का ही मामला मानती है. अगर ऐसा है तो ये वाक़ई एक सेकुलर लोकतांत्रिक देश के लिए बेहद ही चिंता का विषय है. वैसे यह बात तो यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि मुसलमानों की आस्था सुप्रीम कोर्ट में ज़रूर है. ऐसे में इस मसले का फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट ही निकाले ताकि लोगों का लोकतंत्र में भी आस्था बरक़रार रहे.