जज बनी मुस्लिम बेटियों ने सच किए अपने अब्बू के सपने

आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net

मुज़फ़्फ़रनगर/लखनऊ : ‘उत्तर प्रदेश पीसीएस जे- 2016’ का शुक्रवार को रिजल्ट आया तो न्यायिक सेवा को 218 नए जज मिले. मुसलमानों की संख्या इन में 12 है.


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वैसे तो यह तादाद 5.50 फ़ीसद के लगभग है, मगर ख़ास बात यह है कि इन 12 नए मुस्लिम जजों में 7 लड़कियां हैं.

इनमें सबसे अच्छी रैंक रूमाना अहमद की है. रूमाना अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से स्नातक हैं और इनका इस परीक्षा में 15वां रैंक है. वहीं सम्भल की नग़मा खान 29वें, सम्भल की ही समीना जमील 34वें, हापुड़ की ज़ेबा रऊफ़ 35वें, लखनऊ की किसा ज़हीर 74वें, एटा की अर्शी नूर 117वें और मुज़फ्फ़रनगर की अंजुम सैफ़ी 159वें स्थान पर हैं.

इन सब लड़कियों की अलग कहानी है. और इन कहानियों में एक ख़ास बात ये है कि इन सभी लड़कियों की कामयाबी में उनके भाइयों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

संभल की नग़मा खान की 29वीं रैंक है. नग़मा की क़ाबिलयत का डंका पुरे सम्भल में मचता है. वो ऑस्ट्रेलिया, स्विटजरलैंड और जापान में भाषण दे चुकी हैं.

नग़मा ने नई दिल्ली के जमिया मिल्लिया इस्लामिया से एलएलएम किया है. इनके पिता मुबीन खान सम्भल में इंजिन बोरिंग मैकेनिक हैं. उनके अनुसार नग़मा ने बहुत से बंद रास्ते खोल दिए हैं.

सम्भल की ही समीना जमील भी नग़मा के ही साथ जज बनी हैं. इनकी 34वीं रैंक है. समीना को शुरू से ही पढ़ाई का माहौल मिला और बेहतरीन सपोर्ट भी. इनके पिता जमील अहमद सचिवालय में कर्मचारी रहे हैं, वहीं इनके भाई मोहसिन जमील उत्तर प्रदेश पुलिस में डिप्टी एसपी हैं.

हापुड़ की ज़ेबा रऊफ़ इस सूची में 35वीं रैंक पर हैं. वो जिस राजपूत मुस्लिम समाज से आती हैं, उसमें लड़कियों के पढ़ने की दर सबसे कम है. मगर उनके पिता रऊफ़ अहमद को जज बनाने की जिद थी. वहीं ज़ेबा के भाई समीउल्लाह खान ने अपनी बहन की तैयारी में मदद की. समीउल्लाह जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ते हैं.

बुलंदशहर पुलिस में बतौर एडीपीओ तैनात अर्शी नूर भी इस सूचि में हैं. इन्हें 117वीं रैंक मिली है. इनकी ख़ास ख़ास बात यह है कि इन्होंने अलग से कोई तैयारी नहीं की. नौकरी करते हुए समय निकालकर पढ़ती थी.

अर्शी एटा की हैं और इनके पिता नुरुल हसन जनपद न्यायालय के प्रशासनिक सहायक रहे हैं. अर्शी नूर सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रही है. फेसबुक पर ‘आवर ड्रीम पीसीएस जे’ नाम का एक पेज़ भी चलाती थी. अब उनका सपना सच हो गया है.

मुज़फ़्फ़रनगर की अंजुम सैफ़ी की कहानी थोड़ी अलग है. हार्डवेयर की दुकान चलाने वाले इनके पिता रशीद अहमद की 25 साल पहले हत्या इसलिए कर दी गई थी, क्योंकि इन्होंने एक दिन बदमाशों को हॉकर से पैसे छीनते देखा तो उन्होंने रोकने की कोशिश की थी. उनके एक भाई ने सिर्फ़ इसलिए शादी नहीं की, क्योंकि वो अंजुम को जज बनाना चाहते थे.

Twocicles.net के साथ बातचीत में अंजुम ने माना कि उसने बहुत मुश्किल दौर देखा मगर अब कुछ भी बुरा याद नहीं रखना चाहती.

वो मानती हैं कि मुसलमानों में बेवजह का डर पनप गया है. उनके अनुसार उन्हें मुसलमान होने की वजह से कभी भेदभाव नहीं झेलना पड़ा.

बेहतर अख़लाक़ और किरदार को मुसलमानों के लिए प्राथमिक ज़रुरत बताने वाली अंजुम के अनुसार अल्लाह के रसूल ने भी यही किया और इस पर अमल सुन्नत है. अंजुम की सफलता इसलिए भी ख़ास है, क्योंकि उन्होंने घर पर रहकर पढ़ाई की है.

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