अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बंगाल से आए रिक्शाचालक लाल बाबू के लिए गणतंत्र दिवस का परेड देखना आज भी एक सपना है.
वो कहते हैं कि “गांव में थे तो वहां टीवी पर झंडा फहराते हुए लोगों को देखता था. मेरे हाथ खुद-बखुद उठकर झंडे को सलामी देती थी. सोचा था कि दिल्ली जाकर क़रीब से इस परेड को देखुंगा, पर दिल्ली में आकर ऐसा मुमकिन न हो सका. पिछले 3 सालों से अपनी मेहनत की कमाई से टिकट के लिए जाता हूं, पर टिकट देने वालों के ज़रिया भगा दिया जाता है.”
रिक्शाचालक रोहित को तो यह तक नहीं पता कि यह गणतंत्र दिवस क्या होता है और क्यों होता है? उसे बस इतना पता है कि इस रात उसे रोड पर सोने नहीं दिया जाएगा.
वो कहता है कि शायद हम गरीबों के लिए इस देश में कोई क़ानून नहीं है. लोग हम पर ज़ुल्म करते हैं, मारते-पीटते हैं और जब थाने में जाओ तो पुलिस वाले भी यही करके भगा देते हैं. वो बोलते-बोलते रो पड़ता है.
यह सिर्फ़ लाल बाबू और रोहित की ही कहानी नहीं है, बल्कि देश के हर गरीब की है.
ऐसे में यदि आज के समय में देखें तो क्या संविधान निर्माताओं की मेहनत सफल हो पाई है? क्या उनके सपने पूरे हो गए? शायद नहीं! क्योंकि हमारा समाज जितना विभाजित आज है, उतना पहले कभी नहीं रहा. और अब सवाल इन मुद्दों से भी आगे का है. सवाल ख़तरे में पड़े संविधान को बचाने का है. क्योंकि आज जो गणतंत्र दिवस का जश्न मना रहे हैं, वहीं संविधान निर्माण के इस ख़ास दिन की महत्व को हमेशा के लिए ख़त्म कर देना चाहते हैं.
ये कितना अजीब है कि आज जब हम गणतंत्र हैं, लेकिन हमारी पुलिस जो हमारी सेवा के लिए बनाई गई है, हमारे देश के गरीबों के मामले में कोई कार्रवाई नहीं करती है. आज भी जेएनयू से लापता नजीब की मां सड़कों की धूल फांक रही हैं. पुलिस की बात तो दूर सीबीआई भी नजीब को तलाशने में नाकाम रही है. तो क्या फिर ये मान लिया जाए कि हमारी ये गणतंत्र यानी पुलिस-प्रशासन व सरकार इस देश की गरीबों के लिए नहीं है. इस मुद्दे पर आज हम सब भारतीयों को गणतंत्र दिवस का जश्न मनाने के बाद एक बार ज़रूर सोचना चाहिए.
ये कड़वी हक़ीक़त है कि आज भी देश के गरीबों के लिए मुक़दमा दर्ज करा पाना नामुमकिन सा है. ये बातें मैं नहीं, बल्कि इस देश की अदालत कह रही है.
ये बात गत बुधवार को दिल्ली हाईकोर्ट की कार्यावाहक मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायमूर्ति सी. हरिशंकर की पीठ ने एक महिला की गुमशुदगी की शिकायत पर मुक़दमा दर्ज नहीं किए जाने पर नाराज़गी जताते हुए कह चुके हैं. इस पीठ का कहना है कि, ‘गरीबों के लिए मुक़दमा दर्ज करा पाना नामुमकिन सा है.’
अदालत की ये टिप्पणी वाक़ई सवाल खड़े करती है और उस सच पर भी पर्दा हटाती है कि सरकार व प्रशासन गरीबों को इंसाफ़ देते हैं. आज भी देश के गरीब अदालत के दरवाज़ें तक नहीं पहुंच पाते हैं और जो पहुंच गए हैं, उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो इंसाफ़ खरीद सकें.
सच तो ये है कि गणतंत्र के 68 साल बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय और समानता जैसे मुद्दों पर रहनुमाओं द्वारा किए गए वायदे केवल थोथे नारे ही साबित हुए हैं.
याद रहे कि आज़ादी की लड़ाई केवल चुने हुए नेताओं ने ही नहीं लड़ी थी, बल्कि देश का हर नागरिक इसमें सम्मिलित हुआ था. अतः यह स्वाभाविक था कि स्वतंत्र भारत के शासन में देश के हर नागरिक का भी हाथ हो. इस दृष्टि से तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग तथा स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग ले चुके महापुरूषों ने देश की शासन व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालित करने के लिए नई नीतियां बनाईं और संविधान का निर्माण किया. हमने भी 26 जनवरी 1950 में लोकतंत्र को भारतीय संविधान के अन्तर्गत स्वीकार किया और देश को गणतंत्र का दर्जा दिया. ऐसे में ज़रूरत है कि हम हर साल गणतंत्र दिवस पर सिर्फ़ सोशल मीडिया पर लोगों को बधाई देना ही अपनी ज़िम्मेदारी न समझ लें, बल्कि हम भारतीयों की ज़िम्मेदारी इससे भी कहीं अधिक है और इस समय सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी संविधान को बचाने का है. क्योंकि साम्प्रदायिक ताक़तें दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को ख़त्म कर देना चाहती है. ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि जब इस देश का संविधान ही ख़त्म कर दिया तो फिर गणतंत्र दिवस कैसे मनाओगे?