क्या उत्तर प्रदेश में इस बार के नतीजे भाजपा को केंद्र की सत्ता से बाहर कर देंगे?

आसमोहम्मद कैफ, TwoCircles.net

उत्तर प्रदेश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के सुप्रीमो उस दिन(12 जनवरी) लखनऊ में गंठबंधन का ऐलान करने के लिए इकट्ठा हुए थे. कार्यकर्ताओं में जबरदस्त उत्साह था.


Support TwoCircles

उसी दिन भारतीय जनता पार्टी आगरा में अपनी बड़ी बैठक कर रही थी. अपनी बात कह रहे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को सर्दी में बढ़ते तापमान का अहसास हुआ और वो सरेआम पसीना साफ करने लगे. इसी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी थे. गठबंधन की खबर का असर यहां मौजूद कार्यकर्ताओं पर दिखाई दे रहा था. अमित शाह ने तुरंत गठबंधन को ठगबंधन का नाम दिया और अपने लोगो मे उत्साह भरने की कोशिश की.

तीन बड़े राज्यों में हार के बाद यह एक और करारा झटका था.

यहां सवाल यह था कि दो क्षेत्रीय पार्टीयों के समझौते कर लेने के बाद विश्व की सबसे सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के मुखिया तनाव में क्यों आ गएं!

समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अब्दुल हफीज गांधी ने हमें यह बताया कि “ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश के केंद्र की सरकार में 73 सांसद सिर्फ यूपी से आएं है. लोकसभा के कुल 543 सांसदों में बहुमत के लिए 272 के आंकड़े की जरूरत होती है. अकेला यूपी इसमें 80 सीटो की भागीदारी करता है. जाहिर है देश के सबसे बड़े सूबे की दिल्ली में अहमियत समझी जा सकती है. 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के बाद पैदा हुए धुर्वीकरण के सहारे केंद्र में भाजपा सरकार बनने के सबसे बड़ा कारण बने यही उत्तर प्रदेश अब हाथ से जाता दिख रहा है. भाजपा के साम्प्रदयिककरण की काट समाजवादियों का दलित पिछड़ा और अल्पसंख्यक समीकरण है. इसी से भाजपा की यूपी में जमीन हिल गई है. आंकड़ो में भाजपा अब 5 सीटें जीतती नही दिख रही हैं. हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कलकत्ता रैली में कहा है कि भाजपा को सूबे में खाता नही खोलने देंगे. भाजपा के लोग प्रदेश भर में जहर फैलाने का काम कर रहे हैं मगर दलित पिछडो और अल्पसंख्यकों के इस गठजोड़ के बाद उनकी नफरत की राजनीति की काट है”.

2014 के आम लोकसभा चुनाव में भाजपा को यहां से कुल 71 सीट मिली (2 सीट भाजपा सहयोगी अपना दल को मिली). भाजपा को कुल 42.3 फीसदी वोट मिला.समाजवादी पार्टी को 22.5 फीसद वोट मिली.मायावती के नेतृत्व वाली बसपा ने 19.5 वोट अपने अकॉउंट में डाले गए.7.5 फीसद मत कांग्रेस को मिले. अकेले सपा बसपा को मिलाकर भाजपा को .3 मत ज्यादा मिले जबकि बसपा का एक भी लोकसभा सीट नही मिली और सपा को सिर्फ 5 लोकसभा में जीत मिली. 54 सीटों पर भाजपा के विरुद्ध लड़ने वाले दलों का मत प्रतिशत उससे ज्यादा था. यह तब था जब मुजफ्फरनगर दंगे की वजह से उत्तरी भारत में जबरदस्त धुर्वीकरण हुआ था और उत्तर प्रदेश में इसका सबसे ज्यादा असर था जबकि मोदी भ्रम जाल भी लोगो को अपनी गिरफ्त में ले चुका था. लेकिन चुनाव कोई सिंपल गणित नहीं हैं कि दलों के मिलने से वोट जोड़ दिए जाये. ऐसा सिर्फ कागज़ पर होता हैं ज़मीन पर नहीं.

लखनऊ के राजनीतिक मामलों के जानकार तारिक़ सिद्दीकी के मुताबिक 2014 से पहले अगर यह गठबंधन वुजूद में आता तो इनको मजबूत स्थिति में देखकर अंतिम समय पर हवा के साथ बहकर आने वाला वोटर इनके पक्ष में आ जाता जिससे निश्चित तौर भाजपा 20 सीटों पर भी जीत नही पाती. मौजूदा परिस्थिति तो एकदम उलट है और जनता में इस बार मोदी सरकार के खिलाफ वेव है.इस स्थिति में भाजपा 5 सीटों भी नही जीत पाएंगी.

वैसे भाजपा को इतना कमजोर समझकर भी नही देखा जा सकता.2017 के विधानसभा चुनाव में तमाम बुद्धिजीवी मायावती की वापसी की उम्मीद लगा रहे थे और मुख्य मुकाबला सत्ता में आसीन अखिलेश यादव से मान रहे थे. बसपा ने 99 विधानसभा प्रत्याशी मुसलमान लड़ाए थे. बसपा को उम्मीद थी कि सूबे की बड़ी आबादी उन्हें वोट करेगी मगर सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक 68 फीसद मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को वोट किया जिससे 20 फीसद मुसलमानों का वोट बंट गया.

403 विधानसभा सीटों वाली उत्तर प्रदेश में 325 भाजपा ने जीती और उसे 39 फीसद मत मिला जबकि समाजवादी पार्टी को 22.5 और बहुजन समाज पार्टी को 21.5फीसद मत मिला।जाहिर दोनों पार्टियों का मत प्रतिशत 44 फीसद होता है जो भाजपा से 5 फीसद ज्यादा है।मतलब सेकुलर वोटर तो बंट गया मगर भाजपा ने अपने वोटर के साथ अन्य वोटर में सेंधमारी भी की। बसपा सुप्रीमो मायावती ने ईवीएम को भी दोष दिया था।

वोट फीसद के मामले में जरूर बाजी गठबंधन के हाथ लगती है मगर जमीनी केलकुलेशन एक एक पक्ष और भी  है. यह जमीनी केलकुलेशन जातियों पर आधारित गणित है.जो उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति को अन्य प्रदेशों से अलग करती है. जातियों का समीकरण हर गणित को बदल सकता है.उत्तर प्रदेश में जाति आधारित राजनीति है.

कुछ जातियों आपस मे एक दूसरे की राजनीतिक विरोधी है. कुछ बड़ी तादाद वाली जातियों के अपने राजनीतिक दल है.कई राजनीतिक दलों की उनकी जातियों से पहचान है. जैसे बसपा दलितो की पार्टी है।सपा यादवों का दल है।रालोद जाटो की पार्टी है. ऊंची जातियां भाजपा और कांग्रेस में अदलाबदली करती रहती है.पिछड़े समाजवादी पार्टी के साथ झुकाव रखते हैं.मुसलमान अपनी सहूलियत के हिसाब से इधर उधर होता रहता है।

इस गठबंधन की घोषणा के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा था कि यह मात्र दो राजनीतिक दलों का गठबंधन नही है बल्कि दलितों पिछडो और अल्पसंख्यको का गठबंधन है।उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 20.17 फीसद है जबकि मुसलमान 19 फीसद है और 8 फीसद यादव है ।सोशल इंजीनियरिंग शब्द का राजनीतिक ईजाद भी यूपी में हुआ है जाहिर अन्य जाति के व्यक्ति को टिकट देने पर मत प्रतिशत बढ़ जाएगा। यानि इन दोनों दलों के पास 47 फीसद बेस वोट बैंक है।4 फीसद जाटों वाला दल रालोद भी इसी खेमे में है अगर उनके वोटों को भी जोड़ दे तो यह आधार वोट ही 51 फीसद हो जाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दलितों यादवों में भारी सेंध लगाई थी।जबकि जाटों का बड़ा हिस्सा भाजपा के खेमे में गया था अब स्थिति उलट गई है। इसके अलावा बसपा अब सिर्फ दलितों में जाटव और सपा पिछडो में सिर्फ यादवो तक सीमित रह गयी हैं.

कांग्रेस के समर्थक और मुजफ्फरनगर के निवासी मोहम्मद अजमल कहते हैं”सपा बसपा का गठबंधन निश्चित तौर पर भाजपा को परेशान करेगा और एक बड़ा वोट शेयर करेगा क्योंकि इनका अच्छा बेस वोट है मगर यह बंधन बिना कांग्रेस के अधूरा है,यह बात सही है कि 2014 में कांग्रेस को 7.5 फीसद मत मिला मगर सपा बसपा में जोड़ने पर यही 50 फीसद हो जाता है जो भाजपा से 7 फीसद ज्यादा है।आमजन में महागठबंधन की आवाज़ है।कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी है और हर एक लोकसभा पर उसका वफादार वोटर है।उसके अलग चुनाव लड़ने से एक बार फिर सेकुलर वोटों का बंटवारा होगा और भाजपा बुरी तरह नही हारेगी।हालांकि उसकी हार निश्चित है।

सपा बसपा ने अमेठी और रायबरेली से अपने प्रत्याशी न लड़ाने की घोषणा की है।इसके बाद कांग्रेस सुप्रीमो राहुल गांधी ने भी गठबंधन का स्वागत किया।यह सब बताते है भले ही अभी वो अलग अलग है मगर आगे एक हो जाने की संभावना बचाकर रखी गई है।

सपा बसपा दोनों ने कांग्रेस से किनारा किया है।वैसे कांग्रेस के अलग चुनाव लड़ने में भी बड़ी डिप्लोमेसी दिखाई देती है। अभी उनके 2 सांसद है।दरअसल कांग्रेस की नजरें सूबे की 13 फीसद ऊंची जातियों के वोट पर है।भाजपा से नाराज ब्राह्मण वापस कांग्रेस की और लौट सकते हैं।तीन राज्यों में जीत के बाद इन लोगो मे राहुल गांधी के प्रति विश्वास बढ़ा है।अपनी बहन प्रियंका गांधी को महासचिव बनाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया जाना भी इसी योजना का हिस्सा है”। हालांकि ये बहुत दूर की बात लगती हैं.

राजनीतिक सामाजिक और जातीय समीकरणों से इतर देशभर की तरह उत्तर प्रदेश की अवाम में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार की और से नाराजगी है।उत्तर प्रदेश की नम्बर एक लोकसभा सहारनपुर के नकुल चौधरी कहते हैं”नोटबंदी,जीएसटी बेरोजगारी और जुमलेबाजी से व्यापारी से लेकर किसान तक सब दुखी है सरकार बदलने के लिए समीकरण की जरूरत नही पड़ेगी।यह जन जन की आवाज़ है।” जाहिर है आंकड़े समीकरण गणित और जनता सब कुछ भाजपा के खिलाफ दिखाई देता है।2014 में मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाने वाला उत्तर प्रदेश इस बार उन्हें उतार भी सकता है।

भाजपा भी इस बात को समझ गई है इसलिए वो हिन्दू हितों को साधने की कवायद करते हुए दिखते हैं।कुंभ का राजनीतिकरण,शहरों के नाम परिवर्तन मुजफ्फरनगर दंगों के एक पक्षीय मुक़दमें वापसी,रासुका का मन मर्जी से इस्तेमाल और धुर्वीकरण बढ़ाने वाले बयान में उसे भविष्य दिखाई देता है।

SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE