गोरखा संगठनों का फ़ैसला है कि ‘हम फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स में नहीं जाएंगे…’

एनआरसी की अंतिम लिस्ट से बाहर कर दिए गए 19 लाख 6 हज़ार 657 लोग खुद को भारतीय साबित करने की क़वायद में जहां अपनी नागरिकता को बचाने की जंग लड़ रहे हैं, वहीं ज़्यादातर लोगों में इस बात की भी ख़ुशी है कि चलो ‘घुसपैठिए’ और ‘बांग्लादेशी’ होने के लगे ठप्पे से तो बाहर निकलें. देश की सर्वोच्च न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता साबित के लिए 120 दिन का वक़्त दिया है. लेकिन ये पूरी प्रक्रिया कितना मुश्किलों से भरा है. यहां के लोग एनआरसी, फॉरनर्स ट्रिब्यूनल और सिटीजनशिप बिल के बारे में क्या सोचते हैं, इसी को लेकर TwoCircles.net एक सीरिज़ की शुरूआत कर रही है. इसमें 5 कहानियों के ज़रिए इससे जुड़ी तमाम बातों को समझ सकेंगे. पेश इस सीरिज़ के तहत अफ़रोज़ आलम साहिल की दूसरी स्टोरी…

गुवाहटी : एनआरसी की आख़िरी लिस्ट में आए 19 लाख 6 हज़ार 657 लोगों में क़रीब एक लाख की आबादी गोरखा लोगों की भी है. नाम न आने से इनमें काफ़ी नाराज़गी देखी जा रही है. इनके लिए हक़ की लड़ाई लड़ रहे नेताओं ने साफ़ तौर पर कह दिया है कि वो फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स में अपील नहीं करेंगें.


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असम गोरखा सम्मेलन के अध्यक्ष कृष्ण भुजेल TwoCircles.net से ख़ास बातचीत में कहते हैं कि असम में 56 ऐसे समुदाय हैं, जो शुरू से यहीं रहते आए हैं. लेकिन नंबर बढ़ाने के चक्कर में सबको एनआरसी लिस्ट से बाहर रखने की कोशिश की गई है. क़रीब एक लाख गोरखा लोगों का नाम एनआरसी की फाइनल लिस्ट में नहीं है. वहीं क़रीब 20 हज़ार लोगों को डी-वोटर बनाया गया है, जबकि सबके पास वैलिड डॉक्यूमेंट्स मौजूद हैं. अब आप ही सोचिए कि सुभाष चन्द्र बोस की सेना में लड़ने वाले परिवार के लोगों के नाम एनआरसी लिस्ट से ग़ायब है.  

वो बताते हैं कि इस सिलसिले में हमारी टीम इसी साल 31 जुलाई को गृह मंत्री अमित शाह से मुलाक़ात कर चुकी है. साथ ही फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स को लेकर गुवाहटी हाई कोर्ट में एक पेटिशन भी डाला गया है, लेकिन उस केस में अभी तक सुनवाई नहीं हुई है.    

गोरखा समुदाय के लोगों ने असम में एनआरसी का शुरू से स्वागत किया है. लेकिन अब यही समुदाय इसका विरोध करती नज़र आ रही है. 

ऑल इंडिया गोरखा स्टू़डेन्ट्स यूनियन के अध्यक्ष प्रेम तमांग का स्पष्ट तौर पर कहना है कि हमारे गोरखा समाज का एक भी व्यक्ति फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स में नहीं जाएगा. कारण पूछने पर कहते हैं कि जिनका भी नाम एनआरसी लिस्ट में नहीं आया है, वो सब बेहद गरीब लोग हैं. और यहां वकीलों की लूट मची हुई है. अब वो अपने केस के लिए हज़ारों रूपये कहां से लाएंगे? ऐसे में हमारे संगठनों का फ़ैसला है कि हम फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स में नहीं जाएंगे. सरकार एनआरसी की सेवा केन्द्र की तरह ही हर ज़िले में सेवा केन्द्र स्थापित करे, ताकि तमाम केसों का निपटारा वहीं हो. 

वो कहते हैं, ‘गोरया मोरया देशी जातीय परिषद’ में ‘गोरया मोरया देशी’ जो हैं, वो मुसलमान लोग हैं. ये यहां के स्थानीय लोग हैं. यहां 12वीं शताब्दी से रहते आ रहे हैं. ऐसे में हम पूरी तरह से उनके साथ हैं. उनको बांग्लादेशी कहना कहीं से भी सही नहीं है. वो लोग हमसे पहले असम में रह रहे हैं. 

बता दें कि एक आंकड़ें के मुताबिक़ असम में क़रीब 25 लाख गोरखा समुदाय के लोग रहते हैं. एनआरसी में क़रीब एक लाख गोरखा लोग बाहर हैं, जो समुदाय की कुल आबादी का चार फ़ीसदी है. हालांकि ये आंकड़ा महज़ एक अनुमान है, जो यहां की गोरखा समुदायों की संस्थाओं ने ज़मीनी स्तर पर लोगों से मिलकर जुटाया है. 

ऑल इंडिया गोरखा स्टू़डेन्ट्स यूनियन और असम गोरखा सम्मेलन एनआरसी से ग़ायब मशहूर लोगों की एक फ़हरिस्त भी तैयार कर रही है ताकि दुनिया के सामने एनआरसी और  फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स के सच को सामने रखा जा सके.  

असम कांग्रेस के संस्थापक के परिवार का नाम है ग़ायब

प्रेम तमांग बताते हैं कि असम के विश्वनाथ ज़िले में मंजू देवी के परिवार का नाम एनआरसी में नहीं आया है. जबकि उनका परिवार स्वतंत्रता सेनानी का परिवार रहा है. उनके परदादा छबीलाल उपाध्याय असम में कांग्रेस पार्टी के संस्थापक थे. 1921 में असम के जोरहाट में जो कांग्रेस के स्थापना सम्मेलन का आयोजन हुआ था, जिसमें महात्मा गांधी के आने की भी बात की जाती है, उस सम्मेलन की अध्यक्षता इन्होंने ही की थी. इस तरह प्रेम तमांग के पास कई महत्वपूर्ण परिवारों का उदाहरण है, जिन्होंने असम और देश के लिए कुछ किया है. 

जब नेपाल का नागरिक यहां रह सकता है तो हम क्यों नहीं?

बता दें कि असम गोरखा समुदाय से जुड़े नेताओं व संगठनों की सक्रियता के बाद अब भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने फॉरनर्स ट्रिब्यूनल-1946 के मुताबिक़ असम में रह रहे गोरखा समुदाय के सदस्‍यों की नागरिकता की स्थिति के बारे में राज्‍य सरकार को स्‍पष्‍टीकरण जारी किया है.

गृह मंत्रालय ने असम सरकार से कहा है कि गोरखा या फिर नेपाली मूल के लोगों को फॉरनर्स ट्रिब्यूनल से नहीं जोड़ा जा सकता. संविधान लिखे जाने के समय गोरखा समुदाय के जो लोग भारतीय नागरिक थे या जो जन्म से भारत के नागरिक हैं या फिर जिन्‍होंने पंजीकरण अथवा नागरिकता क़ानून, 1955 के प्रावधानों के अनुसार नागरिकता हासिल की है, वो फॉरनर्स एक्ट -1946 के सेक्शन 2 (ए) के तहत ‘विदेशी’ नहीं हैं. 

इतना ही नहीं, 1950 के इंडो-नेपाल फ्रेंडशिप ट्रीटी का हवाला देते हुए गृह मंत्रालय ने असम सरकार से कहा कि अगर किसी व्यक्ति के पास नेपाल का पहचान पत्र है, तो उसे फॉरनर्स ट्रिब्यूनल का हिस्सा नहीं माना जाएगा. इंडो-नेपाल ट्रीटी ऑफ़ पीस एंड फ्रेंडशिप नेपाल और भारत के लोगों को एक दूसरे की धरती पर खुलकर आने-जाने का मौक़ा देती है. 

सरकार का ये पत्र स्थानीय मीडिया में आने के बाद असम के अन्य समुदायों के संगठनों के नेताओं में इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि जब असम में नेपाल का पहचान पत्र लेकर कोई भारत में रह सकता है तो फिर हम भारतीय नागरिक जिनके पास यहां का सबकुछ मौजूद है, वो यहां क्यों नहीं रह सकता?

भाजपा के साथ-साथ ममता दीदी को भी है गोरखाओं की चिंता

पश्चिम बंगाल की सीएम व टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी ने कहा कि हम यह देखकर हैरान हैं कि एक लाख से अधिक गोरखा लोगों के नाम एनआरसी सूची से बाहर कर दिए गए हैं. 

दार्जिलिंग से भाजपा सांसद राजू सिंह बिष्ट ने अपने एक बयान में कहा है कि ‘एक भी गोरखा नाम एनआरसी सूची में शामिल नहीं होगा, यह मैं आपको भरोसा दिलाता हूं. एनआरसी को लेकर परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं है, मोदी सरकार गोरखाओं के सपने को पांच साल के अंदर ही पूरा कर देगी.’ 

वहीं दार्जिलिंग से ही भाजपा विधायक नीरज जिम्बा ने कहा है कि गोरखाओं को एनआरसी से नहीं, बल्कि टीएमसी से ख़तरा है. असम में जो एनआरसी लागू हुआ है, वो असम सरकार और केन्द्र सरकार ने लागू नहीं किया है, वहां जो भी हो रहा है वो सर्वोच्च न्यायलय के निर्देश पर हो रहा है. कुछ लोग इस मसले पर जनता को भ्रमित कर रहे हैं. 

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