एनआरसी की अंतिम लिस्ट से बाहर कर दिए गए 19 लाख 6 हज़ार 657 लोग खुद को भारतीय साबित करने की क़वायद में जहां अपनी नागरिकता को बचाने की जंग लड़ रहे हैं, वहीं ज़्यादातर लोगों में इस बात की भी ख़ुशी है कि चलो ‘घुसपैठिए’ और ‘बांग्लादेशी’ होने के लगे ठप्पे से तो बाहर निकलें. देश की सर्वोच्च न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता साबित के लिए 120 दिन का वक़्त दिया है. लेकिन ये पूरी प्रक्रिया कितना मुश्किलों से भरा है. यहां के लोग एनआरसी, फॉरनर्स ट्रिब्यूनल और सिटीजनशिप बिल के बारे में क्या सोचते हैं, इसी को लेकर TwoCircles.net एक सीरिज़ की शुरूआत कर रही है. इसमें 5 कहानियों के ज़रिए इससे जुड़ी तमाम बातों को समझ सकेंगे. पेश इस सीरिज़ के तहत अफ़रोज़ आलम साहिल की तीसरी स्टोरी…
गुवाहटी: 11वीं क्लास में पढ़ने वाली 16 साल की नाज़नीन पिछले 31 अगस्त से सदमे में हैं, क्योंकि उनका नाम एनआरसी की अंतिम लिस्ट में नहीं आया है.
असम के दरांग ज़िले के खारूपेटिया इलाक़े में रहने वाली नाज़नीन के पिता इस्माइलुद्दीन आमिर बताते हैं कि मेरे परिवार में पांच लोग हैं. एनआरसी लिस्ट में चार का नाम आया है, सिर्फ़ नाज़नीन का ही नाम नहीं आया है. जब लिस्ट आई तो उसके दोस्तों ने उससे कह दिया कि उसे अब जेल में जाना होगा, वो अब आगे नहीं पढ़ पाएगी. स्कूल से ही पुलिस उसे गिरफ़्तार कर लेगी.
दोस्तों की ये बातें नाज़नीन के दिलो-दिमाग़ में इस क़दर बैठ गई कि स्कूल से आते ही वो एक कोने में दुबक कर सिसकती रही. बाद में स्कूल जाने से भी ये कहकर इंकार करने लगी कि पुलिस मुझे स्कूल से गिरफ़्तार कर लेगी.
पिता कहते हैं कि हमलोगों ने उसे काफ़ी समझाया. हमारे समझाने पर अब स्कूल तो जा रही है, लेकिन अभी भी इसके दिमाग़ में कहीं न कहीं ये बात बैठी हुई है कि आगे भी नाम नहीं आया तो पुलिस उसे डिटेंशन सेंटर में डाल देगी. दूसरी तरफ़ उसके स्कूल के बच्चे उसे ‘बांग्लादेशी’ बोल देते हैं. इससे वो और भी ज़्यादा परेशान रहती है. घर वाले बताते हैं कि स्कूल के ड्रामे में नाज़नीन हमेशा भारत माता का रोल ही अदा करती थी.
एक ऐसी ही कहानी एक 8 साल की बच्ची की भी है. जब उसे मालूम हुआ कि उसका नाम एनआरसी की आख़िरी लिस्ट में नहीं आया है तो उसने खाना-पीना तक छोड़ दिया. फिर घर वालों के समझाने पर उसने खाना-पीना शुरू किया.
खारूपेटिया इलाक़े के लखटकिया गांव में रहने वाले अहमद बताते हैं कि एनआरसी से यहां के तमाम बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है. क्योंकि पुलिस यहां सुबह-शाम आकर तंग करती है, इस वजह से बच्चे यहां पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं. असम में सभी बच्चों के साथ ऐसा हो रहा है.
करीमगंज के मोहम्मद अज़हरूद्दीन बताते हैं कि मेरे परिवार में कुल 15 लोग हैं, उनमें से 6 भाई-बहन का नाम फाईनल लिस्ट में नहीं आया है. जबकि अम्मी-अब्बू का नाम आ गया है. अब सबलोग हमें ताना मार रहे हैं कि इतने पढ़े-लिखे हो, फिर भी नाम नहीं आया है. कॉलेज में भी मुझे काफ़ी परेशानी पेश आती है. अज़हरूद्दीन गुवाहटी के एक कालेज में बीएससी की पढ़ाई कर रहे हैं.
असम में ऐसी कहानी ज़्यादातर पढ़ने वाले बच्चों की है. ख़ास तौर पर जिन बच्चों का नाम नहीं आया है, वो एक तरह से मानसिक प्रताड़ना से गुज़र रहे हैं. बता दें कि एनआरसी की फाईनल लिस्ट में ज़्यादातर बच्चों के नाम नहीं हैं, जबकि परिवार के कई अन्य सदस्यों को भारत का नागरिक मान लिया गया है. एनआरसी में शामिल होने की प्रक्रिया में 14 साल से छोटे ऐसे बच्चों के लिए कुछ विशेष प्रावधान हैं जिनके मां-बाप का नाम इस सूची में शामिल है लेकिन जो यह साबित नहीं कर पा रहे हैं कि वे उनकी ही संतान हैं. लेकिन इन प्रावधानों का फ़ायदा सभी को नहीं मिल सका है.
यहां सोचने की बात ये भी है कि जिन बच्चों का नाम एनआरसी लिस्ट में आ चुका है, लेकिन घर के अन्य सदस्य ख़ास तौर पर मां-बाप का नाम ग़ायब है, उन बच्चों की पढ़ाई और भी ज़्यादा प्रभावित हो रही है. असम में हमारी मुलाक़ात कई ऐसे परिवारों से हुई जिनके घर का मुखिया गिरफ़्तारी के डर से अपने घरों से ग़ायब है. ऐसे में ये बच्चे ही अपनी मां के साथ घर संभाल रहे हैं.
एनआरसी अपडेट के लिए लगाए गए थे यहां के सरकारी स्कूलों के टीचर
अगर उन बच्चों की बात छोड़ दी जाए जिनका नाम एनआरसी लिस्ट में नहीं आया है, तो भी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की पढ़ाई पूरे एनआरसी प्रक्रिया के दौरान प्रभावित रही, क्योंकि यहां के सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को एनआरसी के काम में लगाया गया था. ऐसे में सरकारी स्कूल शिक्षकों की कमी से जूझ रहे थे.
शिक्षा जगत में काम करने वाले जानकार बताते हैं कि असम के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी चल रही थी, एनआरसी अपडेट के काम में इन्हें लगा दिए जाने के बाद सरकारी स्कूलों की हालात और बिगड़ गए. ये हालात यहां 2015 से हैं. क्योंकि इस काम में क़रीब 55 हज़ार अधिकारियों को लगाया था, जिनमें अच्छी-ख़ासी तादाद यहां के सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की भी थी. जबकि साल 2007 में सुप्रीम कोर्ट के एक निर्देश के अनुसार शिक्षकों को पढ़ाई वाले दिनों में शिक्षा के अलावा दूसरे किसी काम में नहीं लगाया जा सकता. बावजूद इसके असम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया.
बता दें असम में सभी स्तरों के स्कूलों में शिक्षकों के लगभग 36 हज़ार 500 पद खाली पड़े हैं. यह जानकारी असम सरकार ने इसी साल फ़रवरी में विधानसभा में दी थी.
समस्या इससे कहीं बड़ी है…
गुवाहटी के सामाजिक कार्यकर्ता मोतिउर रहमान बताते हैं कि समस्या इससे कहीं बड़ी है. असम में बच्चों की शिक्षा 1997 से ही प्रभावित है.
वो बताते हैं कि बॉर्डर पुलिस और फॉरनर्स ट्रिब्यूनल ने जितने भी लोगों को ‘डी-वोटर’ क़रार दिया है या फॉरनर्स डिक्लेयर किया है या जिनका केस यहां पेंडिंग है. उन सबके बच्चों की शिक्षा यहां प्रभावित हुई है. ऐसे बच्चों की संख्या लाखों में है.
वो आगे कहते हैं कि हालांकि अभी तक स्कूल स्तर पर दाख़िले में इन्हें कोई रूकावट नहीं आई है, लेकिन उच्च शिक्षा में इनके लिए रूकावट ज़रूर खड़ी कर दी गई है. इनका दाख़िला उच्च शिक्षा में नहीं हो सकता. अब एनआरसी में जिन बच्चों का नहीं नाम आया है तो उनकी शिक्षा तो प्रभावित होनी ही है.
पार्ट १: एनआरसी से क्यों ख़ुश हैं असम के मुसलमान? जानिए वजह
पार्ट २” गोरखा संगठनों का फ़ैसला है कि ‘हम फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स में नहीं जाएंगे