एनआरसी की अंतिम लिस्ट से बाहर कर दिए गए 19 लाख 6 हज़ार 657 लोग खुद को भारतीय साबित करने की क़वायद में जहां अपनी नागरिकता को बचाने की जंग लड़ रहे हैं, वहीं ज़्यादातर लोगों में इस बात की भी ख़ुशी है कि चलो ‘घुसपैठिए’ और ‘बांग्लादेशी’ होने के लगे ठप्पे से तो बाहर निकलें. देश की सर्वोच्च न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता साबित के लिए 120 दिन का वक़्त दिया है. लेकिन ये पूरी प्रक्रिया कितना मुश्किलों से भरा है. यहां के लोग एनआरसी, फॉरनर्स ट्रिब्यूनल और सिटीजनशिप बिल के बारे में क्या सोचते हैं, इसी को लेकर TwoCircles.net एक सीरिज़ की शुरूआत कर रही है. इसमें 5 कहानियों के ज़रिए इससे जुड़ी तमाम बातों को समझ सकेंगे. पेश इस सीरिज़ के तहत अफ़रोज़ आलम साहिल की चौथी स्टोरी…
गुवाहटी: एनआरसी की अंतिम लिस्ट से जो लोग बाहर कर दिए गए हैं, उनमें सबसे ज़्यादा प्रभावित यहां की महिलाएं ही हो रही हैं. नाम आया या नहीं, इससे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि हर हाल में परेशान ये महिलाएं ही हैं. इनकी परेशानी थोड़ी पुरानी भी है, क्योंकि जिनका नाम ‘डी’ वोटर लिस्ट में है, पुलिस उन्हें हर तरह से टारगेट करती है. ग़ौर करने वाली बात ये है कि महिलाओं के एनआरसी से बाहर किए जाने का असर हर समुदाय पर है.
तिनकोनिया बनाईपारा की 45 साल की विनिता बनाई बताती हैं, ‘मेरे पास सारे कागज़ात हैं, मेरे बच्चों का भी नाम आ गया है, बावजूद इसके मेरा नाम नहीं आया है.’
वो आगे कहती हैं, ‘मुझे डर लगता है क्योंकि मैं मज़दूर हूं. मज़दूरी करके खाती हूं. पता नहीं कब मुझे जेल भेज दिया जाए. मेरे पास केस लड़ने के लिए पैसे भी नहीं हैं.’
रेणुका बनाई की कहानी थोड़ी अलग है. उनका नाम तो एनआरसी लिस्ट में है, लेकिन इनके पति को इस लिस्ट से ग़ायब कर दिया गया है. अब ऐसे में ये सोचती हैं कि भले ही मेरा नाम नहीं होता, लेकिन मेरे पति का तो नाम होना ही चाहिए. वो हमेशा इसी टेंशन में रहती हैं कि कहीं पुलिस उनके पति को गिरफ़्तार न कर ले.
वो TwoCircles.net के साथ बातचीत में कहती हैं, ‘वो बुढ़ा हो गया है. उनके पास सारा कागज़ है. फिर भी मुझे डर लगता है कि पता नहीं कब पुलिस उन्हें पकड़ ले. हम दुबारा अप्लाई करेंगे.’
यही कहानी दरांग ज़िले के लटाखट गांव में रहने वाली 30 साल की अनवारा बेगम की भी है. हालांकि ये कहानी एनआरसी से थोड़ी अलग हटकर ‘डी’ वोटर की है.
अनवारा बताती हैं, ‘मेरे शौहर का नाम जबसे ‘डी’ वोटर लिस्ट में आया है, तब से वो घर छोड़ दिया है. एक साल से वो घर में नहीं है. अभी दूसरों के घर में काम करके और उनसे मांग कर खा लेती हूं. तीन बच्चे हैं. मेरा घर कैसे चलेगा, गुज़ारा कैसे होगा, मुझे पता नहीं.’
अनवारा की एक 7 साल की बेटी है. एक 16 साल का बेटा है. एक बेटे की शादी कर दी है. वो कहती हैं, ‘मेरा पति भारत का है. मुझे पूरी उम्मीद है कि मुझे इंसाफ़ मिलेगा.’
खारूपेटिया की 48 साल की ओमेला ख़ातून की आंखों में बात करते-करते आंसू आ जाते हैं. वो रो पड़ती हैं. आंखों से आंसू पोंछते हुए बताती हैं कि मुझको पहले ‘डी’ वोटर का नोटिस मिला. कोर्ट गई तो वहां मेरा नाम आ गया. मुझे इंडियन माना गया. लेकिन अब फिर से मेरा नाम नहीं है.
ये बोलते-बोलते उनका गला रूंध जाता है. वो बोलती हैं, ‘मेरे पास सारा कागज़ है. मेरा बाप-दादा सब यहीं का है. परिवार में सबका नाम है, सिर्फ़ मेरा ही नहीं है. पता नहीं मेरा नाम क्यों नहीं आया’.
वो आगे ये भी कहती हैं, ‘सब बोलते हैं कि पुलिस पकड़ कर ले जाएगी, इसलिए घर में नहीं रहती हूं. हर वक़्त डर लगा रहता है. पुलिस के डर से छिप-छिपकर रहना पड़ता है. बार-बार अदालत का चक्कर काटना पड़ता है. सुनवाई के लिए दिन भर वहीं बैठे रहना पड़ता है. पैसा भी बहुत खर्च हो रहा है.’
गोआलपाड़ा के जूरी गांव की अक़लीमा ख़ातून बताती हैं कि मज़दूरी करने के लिए तमिलनाडू गई थी, इसलिए पिछली बार वोट नहीं दे पाई. इसलिए मेरा नाम ग़ायब कर दिया गया. मुझे ‘डी’ वोटर बना दिया गया. अब एफ़टी में मेरा केस चल रहा है. अब वहां तय होगा कि मैं भारतीय हूं या बांगलादेशी. मुझे पूरी उम्मीद है कि मुझे न्याय मिलेगा. मैं बांगलादेशी नहीं, इंडियन हूं.
असम में लाखों महिलाओं की ऐसी ही कहानी है. जानकारों की मानें तो एनआरसी के फ़ाईनल लिस्ट में महिलाओं के साथ भेदभाव कुछ ज़्यादा ही हुआ है. बताया जा रहा है कि जिन 19 लाख लोगों के नाम एनआरसी में नहीं आए हैं, उनमें क़रीब 60-65 फ़ीसद से अधिक आबादी महिलाओं की है. इनमें भी ज़्यादातर महिलाएं ऐसी हैं जिनके पति, बच्चे और मां-बाप के नाम लिस्ट का हिस्सा हैं, बस अकेले उनका ही नाम ग़ायब है. ऐसे में बेशुमार परिवारों के बिखरने का डर यहां हर किसी को सताने लगा है.
महिलाएं ही सबसे अधिक निशाने पर क्यों?
हमने इसकी वजह जाननी चाही. इसके जवाब में इमराना बेगम बताती हैं कि ये सब पुरूषों की वजह से हो रहा है. उनका वरदान अब यहां की महिलाओं के लिए अभिशाप साबित हो रहा है.
कैसे? ये सवाल पूछने पर वो बताती हैं कि हमारे समाज में ज़्यादातर लोग लड़कियों को पढ़ाते नहीं, अब जब स्कूल गए ही नहीं तो कागज़ात कहां से आएंगे. और जिन्होंने पढ़ाई भी की तो ज़्यादा से ज़्यादा प्राइमरी स्तर तक के स्कूलों में ही गई, लेकिन एनआरसी अधिकारी ऐसे दस्तावेज़ों को मानते ही नहीं.
उनके मुताबिक़ दूसरी बड़ी समस्या कम उम्र में ही लड़कियों की शादी कर देना है. वो कहती हैं, ‘दो दशक पहले तक असम में बाल विवाह आम बात थी. अब भी कई गांव में छोटी-छोटी बच्चियों की शादी कर देते हैं. और फिर ज़मीन जायदाद के हिस्से से भी महरूम रखा जाता है. ऐसे में अब उनके पास ज़मीन के भी कागज़ात नहीं हैं.’
हालांकि वो ये भी कहती हैं कि कम से कम एनआरसी से यहां के लोगों को ये ज़रूर समझ आएगा कि लड़कियों को पढ़ाना कितना ज़रूरी है. और हां, इतना तो ज़रूर है कि अब कोई कम उम्र में अपनी लड़कियों की शादी नहीं करेगा. कम से कम इतना तो इस एनआरसी से हमें सीख मिलनी ही चाहिए.
इसी बारे में नवीन साहा कुछ अलग तरीक़े से अपनी बात रखते हैं. वो कहते हैं, एक तो लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में कर दी गई, लेकिन उनके नाम वोटर लिस्ट में आ गए और तक़रीबन सभी मामलों में उनका रिश्ता सिर्फ़ पतियों के साथ दिखाया गया. लेकिन एनआरसी प्रक्रिया में इन दस्तावेज़ों की कोई वैल्यू नहीं है.
नवीन आगे ये भी बताते हैं कि असम में जन्म या मृत्यु को रजिस्टर कराना 1985 तक ज़रूरी नहीं था. लेकिन एनआरसी प्रक्रिया इसे नहीं मानती है. ऐसे में अब महिलाएं क्या दस्तावेज़ दें? जबकि वे पूरी तरह से इंडियन हैं. उनका ये भी मानना है कि दस्तावेज़ों के इन घनचक्कर में सबसे गरीब घर की महिलाएं ही पिस रही है, अमीरों के लिए इस देश में सबकुछ मुमकिन है.
दूसरे राज्यों की सभी दुल्हनें असम की एनआरसी से हैं बाहर
इधर मेघालय के मुख्मयंत्री रह चुके कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मुकुल संगमा ने दावा किया कि असम के एनआरसी से उन सभी महिलाओं को बाहर कर दिया गया है, जो देश के दूसरे राज्यों से विवाह कर असम में आई हैं. ख़ास तौर पर पश्चिम बंगाल, नागालैंड, बिहार और मेघालय में पैदा हुई दुल्हनों को एनआरसी से बाहर रखा गया है.
उन्होंने मेघालय सरकार से आग्रह किया है कि वह उन महिलाओं की मदद करे जो मूल रूप से मेघालय की हैं, लेकिन उनका विवाह असम के निवासियों से हुआ है और जिनका नाम एनआरसी में नहीं है.
पार्ट १: एनआरसी से क्यों ख़ुश हैं असम के मुसलमान? जानिए वजह
पार्ट २: गोरखा संगठनों का फ़ैसला है कि ‘हम फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स में नहीं जाएंगे
पार्ट ३: एनआरसी का असम के बच्चों पर असर, उनकी शिक्षा हो रही है प्रभावित