नीरज बंकर Two circles.net के लिए
जहाँ एक ओर ओटीटी प्लेटफार्म ने दुनियाभर की फिल्मों, वेब शोज और बाक़ी कलाओं से परिचय कराया जिससे भारत के लोगों में सिनेमा का स्वाद बदला.. वहीं दूसरी और भारतीय सवर्ण निर्माताओं ने इसे भी अपनी दक़ियानूसी और संकुचित दृष्टिकोण के जाल में बाँध लिया. एंटी-कास्ट(जाती-विरोधी) पृष्ठभूमि से आने वाले निर्माताओं और कलाकारों ने जहाँ ऐसी फ़िल्में पेश की जो पुरानी जितनी भी जाति और इससे जुड़े मुद्दे पर बनी फिल्में है उन सबको आईना दिखाया और उनके इस तरह के सामाजिक पहलुओं पर फिल्म बनाने के पैमाने को ही बदल डाला.. उन्होंने दिखाया की एक दलित ग़रीब तो हो सकता है मगर लाचार नहीं… अपनी आवाज ख़ुद उठाना जानता है. उसे किसी स्वर्ण मसीहा की ज़रूरत नहीं है.. वो अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ सकता है.. इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है: करणन, असुरन, काला, कबाली, एवं जय भीम..इस तरह की फिल्मों की अब लम्बी लाइन लग चुकी है जो की अनवरत जारी है… दूसरी तरफ सवर्ण निर्माताओं के द्वारा बनायी गयी फ़िल्में जिसमें दलितों का चित्रण संकीर्ण मानसिकता से सिनेमा की शुरूआत होने के साथ ही शुरू हो गया था दादा साहेब फाल्के, जिन्हें भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाता है, ने 1913 में पहली फ़िल्म बनायी राजा हरीशचंद्र जिसमें चांडाल(दलित)समुदाय से आने वाले परिवार का चित्रण और राजा की महानता को दर्शाया गया है..पौराणिक कथाओं से शुरू हुआ यें दौर अछूत कन्या (1936), नीचा नगर (1946), सुजाता(1959), सदगति (1981), निशांत(1975), मंथन(1976) और वर्तमान दौर में रिलीज हुयी फ़िल्में लगान (2001), आरक्षण (2011), राजनीती(2010)सीरियस मेन (2020), आर्टिकल 15 (2019), शमशेरा (2022) तक जारी है..
इन सब फिल्मों की खास बात यें है कि यें सभी फ़िल्में उन विशिष्ट पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों ने बनायी जिन्होंने दलितों को एक दबे-कुचले, भोले-भाले, अज्ञानी, अनैतिक, भृष्ट एवं एक उच्च जातिय मसीहा की बाट जोहता हुआ दिखाया गया है. और कई बार तो मुद्दे से भटकर कभी अमीरी-गरीबी के भेद में ढ़ाला तो कभी निजीकरण की समस्या को केंद्र में रख दिया जो की क्रमशः धड़क(2018) और आरक्षण में देखने को मिलता है.
यें सिलसिला ओटीटी पर भी आकर नहीं थमा हाल ही में आयी कई सारी वेब सीरीज़ में शामिल है दीपक कुमार मिश्रा द्वारा निर्देशित ‘पंचायत’ जो कि ब्राह्मण निर्माताओं द्वारा बनायी गयी उनके अपने समुदाय कि कहानी है जिसमें दलित किरदारों को एक प्रतीक के तौर पर जबरदस्ती शामिल करके रूढ़िवादी धारणा में पिरोया गया है जिस पर काफ़ी लोगों ने लिखा भी. दूसरी है प्रकाश झा द्वारा निर्देशित एवं निर्मित ‘आश्रम’ जो एक बाबा की कहानी है जो अपने आप को भगवान के रूप में स्थापित कर चूका है… लोग अंधभक्त है.. जिसमें दलित भी शामिल है मगर फ़िर पूरी कहानी एक पीड़ित दलित परिवार पर केंद्रित हो जाती है जिसमें दलित लड़की जिसका बाबा द्वारा बलात्कार कर दिया जाता है… वो इस जंझाल से निकलती है और उच्चजाति के लोगों के सहयोग से बाबा के खिलाफ मौर्चा खोल देती है और लगातार इधर से उधर अपनी जान बचाती फिरती है…इसके भी कुछ और सीजन आने बाक़ी है. फ़िर आती है ‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ जो की हाल ही में 26 मई 2022 को रिलीज हुयी.. जिस पर मैं विस्तार से चर्चा करूँगा हालांकि अभी पहला सीजन रिलीज़ हुआ है मगर इससे ही काफ़ी कुछ अंदाजा लग जाता है कि निर्माता की मंशा क्या है!
पंचायत की तरह यें भी ब्राह्मण निर्माताओं द्वारा बनायी गयी सीरीज है जिसमें 90 प्रतिशत ब्राह्मण कलाकारों को लिया गया है और यें कहानी भी एक ब्राह्मण परिवार की है… जिसमें दो तरह के ब्राह्मणों का चित्रण है… जिसे बाबा साहेब ने धर्म-निरपेक्ष/उदारवादी (सेक्युलर) एवं पुरोहित (प्रिस्टली) ब्राह्मण कहा है. इस परिवार के एक व्यक्ति के मन में दलितों के प्रति दया-भाव जागता है. वो नाली साफ करते समय थकान से गिर जाने की वजह से दुखु नाम के व्यक्ति को अपने कुएँ से पानी पिला देता है जिससे कुआँ अशुद्ध हो जाता है . और यहीं बात उस परिवार के बाक़ी सदस्यों को अखर जाती है.. उसे घर से निकाल दिया जाता है वो दुखु के घर जाकर रहने लगता है यहाँ तक की जेनेऊ भी उतार कर फेंक देता है ..यहीं बात इस मामले को और तूल दे देती है.. बात ज़्यादा बढ़ जाने पर वो व्यक्ति गांव छोड़कर अपने 3-4 साल के लड़के के साथ दिल्ली चला जाता है.. उसकी पत्नी भी उसके साथ नहीं जाती है.. वो उस घर और समाज जाति की मर्यादा के चलते वहीं रहना मंजूर करती है…..
कहानी 24 साल बाद फ़िर से उसी मोड़ पर आती है जब लंदन से एमबीए पढ़कर आया हुआ उस ब्राह्मण का बेटा निर्मल पाठक अपने पिता की अस्थियां लेकर गांव आता है… दरअसल वो यहाँ उसके चचेरे भाई की शादी के सिलसिले में आया होता है चूंकि उसके पिता ने मरते वक़्त इच्छा जतायी थी की उन्हें मरने के बाद गांव ले जाकर वहीं बहने वाली गंगा नदी में बहा दिया जाए..इसीलिए वो अस्थियां भी साथ लिए आता है…
यें निर्मल पाठक जो शहर में पला बढ़ा इसे जाति के बारे में कुछ मालूम नहीं जैसे की आर्टिकल 15 के आईपीएस अयान मुखर्जी को कुछ मालूम नहीं होता है.. मगर इसे यें सब देखकर अच्छा नहीं लगता है… शुरआत के दिनों में नोटिस करता है और बाद में बोलता भी है धीरे-धीरे वो गांव की सारी समस्याओं जिसमें शिक्षा का सवाल हो, बाल-मजदूरी , छूआछूत, किसानी, बेमेल(बिना-मर्ज़ी) विवाह, दहेज़ प्रथा, गुंडागर्दी इत्यादि पर सवाल खड़े करना शुरू कर देता है… कहानी का उद्देश्य क्या है समझ नहीं आता है.. दलितों के ऊपर बनाई है या इनके ख़ुद के ब्राह्मण परिवार के पारिवारिक ढांचे को उजागर करने के लिए या 24 साल बाद गांव आने पर अपने अतीत को तराशने का नॉस्टलजिया है…
इसमें दो दलित पत्रों को मुख्य रूप से शामिल किया गया है एक है दुखु जो 24 साल बाद भी वो ही नाली साफ कर रहा है.. और निर्मल पाठक को देखकर भावविभोर हो रहा है.. फटे हुए मैले कपड़े पहने हुए है… एक झोपड़ी है जिसमें वो और उसका परिवार रहता है…उसकी झोपड़ी के पास कुछ और भी झोपड़ियाँ है जिसमें उसकी ही जाति के लोग रहते है….. निर्मल पाठक इनसे मिलने इनके घर जाता है.. और दुखु को बताता है कि यें सामाजिक बदलाव कितना ज़रूरी है वरना यें सिस्टम ऐसे ही चलता रहेगा. इसके जवाब में दुखु कहता है “हमारे को इस व्यवस्था से कोई भी समस्या नहीं है”. निर्मल पाठक दुखु के घर खाना भी खाता है उसे लगता है की 24 साल पहले जो उसके पिताजी ने खाना खा कर इस समस्या का हल निकालने का प्रयास किया शायद इस बार काम कर जाए. ये दलितों के घर खाना खा कर किस प्रकार का एहसान किया जा रहा है मालूम नहीं। चाहे वर्त्तमान की भारतीय राजनीती में ये खाना खा कर बड़प्पन दिखाने की परम्परा हो या फिर फिल्मों और इस तरह के वेब शोज में हो|
दूसरा पात्र है लब्लबिया जो की 20-24 साल का युवा है और इस ब्राह्मण परिवार के युवाओं के साथ घूमता फिरता है, पूरा वफादार है, जिसे चाय एक मिट्टी के कप, जो की टुटा हुआ है, में पिलायी जाती है जिसे वो बड़े चांव से पीता है. जब निर्मल पाठक लब्लबिया से उसके इस तरह के बर्ताव पर ऐतराज नहीं करने के बारे में सवाल करते है तो लब्लबिया जवाब में कहता है कि “बड़का लोगन(ब्राह्मण) के घर में हमको पहली बार चाय मिला तो हम उसी में हम खुश हो गए। कप चीनी मिट्टी का है इस पर कभी ध्यान ही नहीं गया”| मतलब लब्लबिया को पता ही नहीं है की उसे मिट्टी के टूटे बरतन में चाय पिलायी जा रही है क्योंकि उस बेचारे ने अपने जीवन में कभी चाय देखी ही नहीं है उसे ब्राह्मण के घर की वो चाय गोया चाय नहीं बल्कि अमृत लग रही हो. उसे हर जगह साथ तो रखा जाता है मगर जहाँ खाने या रसोई का मामला हो दूर कर दिया जाता है.. लब्लबिया अपने जाति के लोगों को देखने पर मुँह बिचका लेता है.. ब्राह्मणों के साथ रहने पर उसे उच्चता महसूस होती है….वह शादी के दौरान ब्राह्मण लड़के के इशारे पर उठक-बैठक लगाता हुआ दिखाया जाता है.. लब्लबिया साथ रहता है पर सिर्फ एक नौकर की भांति जो अपनी सामाजिक भूमिका को पहचानता है. वो इन ब्राह्मण परिवार के लड़कों का दोस्त नहीं है क्योंकि इस वेब शोज़ के स्वर्ण निर्माताओं को लगता है की एक दलित लड़का उच्च जाति के लोगो का दोस्त नहीं हो सकता है अगर कुछ रिश्ता हो भी सकता है तो वो मालिक नौकर का ही हो सकता है.
इस गांव की सरकारी स्कूल में अम्बेडकर की बड़ी-सी मूर्ति है.. इस स्कूल में दलित समुदाय के ही बच्चें पढ़ते है.. इसलिए स्कूल की हालत भी जर्ज़र है.. ब्राह्मण परिवार के बच्चें निजी स्कूल में पढ़ने जाते है… यें ही दलित बच्चे.. शादी के दौरान फेकें हुए जूठे खाने को खाने की फ़िराक में खड़े हुए दिखायी देते है…जिन्हें सेक्युलर ब्राह्मण निर्मल पाठक द्वारा अंदर लाकर बाक़ी उच्च जाति के लोगों के साथ पंगत में बिठा दिया जाता है जिसका पता प्रिस्टली ब्राह्मण को चलता है तो वो उन्हें सूअर, हरामखोर.. जगह को गंगा जल से शुद्ध करवाना पड़ेगा इत्यादि कहते हुए दुत्कार करके भगा देते है .. यें सभी देख कर बाक़ी लोग वहाँ से खाना खाये बगैर ही जाने लगते है..
आख़री यें गांधी का हरिजन इन निर्माताओं को इतना लुभाता क्यों है यें अम्बेडकर का दलित दिखाने से इतना डरते क्यों है..? लब्लबिया आंबेडकर को अपनाते तो इन्हे लब्लबिया में भी एक इंसान नजर आता जो अच्छे से कपडे पहन कर शादी में एन्जॉय कर रहा है, नौकर की तरह नहीं बल्कि एक दोस्त की तरह जिसे टूटे कप में चाय नहीं पिलायी जा रही है. दलितों में हमेशा चेतना (कॉन्शीयसनेस) सवर्ण समुदाय से आने वाले पात्रों के दखल के बाद ही क्यों आती है… जिस गांव के लोग इतने जागरूक हो कि एक सरकारी विद्यालय में अम्बेडकर की बड़ी-सी प्रतिमा लगा सकते है.. क्या उनके अंदर इतनी भी जागरूकता नहीं है कि वो अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को समझ सके और उसके खिलाफ कुछ करने का साहस कर सके. उन्हें अम्बेडकर के होते हुए गाँधी का हरिजन बनने की जरूरत ही क्यों पड़ती है? यें छोटी-सी बात इन सवर्ण निर्माताओ को क्यों समझ नहीं आती है.. इन्हें क्यों जाति के मुद्दे पर फ़िल्म या वेब शो बनाना है जिसमें दलित दयनीय स्थिती में हो.. ऐसा पहली बार नहीं दिखाया जा रहा है..मंथन फ़िल्म में भी एक सवर्ण जाति का व्यक्ति गांव जाकर दलितों को उनके ऊपर होने वाले अत्याचार के बारे में अवगत करवा रहा है और उनमें चेतना भर रहा है.. निशांत और आर्टिकल 15 में भी ऐसा ही है..सिर्फ़ अम्बेडकर दिखाने से काम नहीं चलेगा… आपको गाँधी के हरिजनवादी दृष्टिकोण से भी बाहर आना पड़ेगा. निर्मल पाठक दलित बच्चों को जिन्होने उसके भाई की कार पर पत्थर फेकें डॉ.अम्बेडकर की तरफ इशारा करते हुए समझा रहा है कि “हाथ में पत्थर नहीं वो उठाओ जो उन्होंने उठाया था”. ये सुनकर लब्लबिया मुँह बिचकाता है वो अम्बेडकर की वजह से असहज हो जा रहा है. उसे फक्र होने के बजाय उसके चेहरे पर जुगुप्सा का भाव क्या दिखाता है ? दलित पात्रों के नाम दुखु और लब्लबिया लगान के कचरा की याद दिलाते है..2001 में आयी थी वो फ़िल्म अभी 2022 चल रहा है 20 साल बाद भी इनके लिए दलित दुखु और गुनिया ही है.
(नीरज ब्रिटेन में रहते हैं और कास्ट सिनेमा सहित कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर शोध कर रहे हैं,यह उनके निजी विचार है)