राम पुनियानी
जनता दल यूनाईटेड (जदयू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महागठबंधन तोड़ कर अपने पुराने साथी भाजपा से एक बार फिर हाथ मिला लिया है.
उन्हें इसके लिए बहाना, भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने उपलब्ध करवाया. लालू यादव के परिवार पर छापे डाले गए और इनका जमकर प्रचार किया गया. इसके बाद, कई घटनाएं एक के बाद एक हुईं और अंततः नीतीश ने अपने पुराने साथियों के साथ पुनः सरकार बना ली.
पिछले कुछ दशकों में नीतीश कुमार ने यह दिखा दिया है कि उन्हें सत्ताधारी शिविर में बने रहने में महारथ हासिल है. वे भाजपा के साथ लंबे समय तक जुड़े रहे हैं और जब गोधरा में सन 2002 में ट्रेन जलाई गई थी तब वे रेलमंत्री थे.
भाजपा का साथ छोड़ते समय उन्होंने कहा था कि, वे धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण के लिए काम करेंगे और सांप्रदायिक आरएसएस-भाजपा के विरोध में खड़े होंगे. यह क्या आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस पार्टी में उन्हें बुराइयां ही बुराइयां नज़र आती थीं, अब वही पार्टी उनके लिए गुणों की खान बन गई है. उन्होंने इस आधार पर लालू से किनारा कर लिया कि वे और उनका परिवार भ्रष्ट है.
बिहार का महागठबंधन, जिसमें कांग्रेस, जदयू और राजद शामिल थे, सांप्रदायिकता-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन के निर्माण की दिशा में एक बड़ा क़दम था. इस महागठबंधन ने भाजपा के विजय-रथ को रोक दिया और यह अलग-अलग दलों के मिलकर भाजपा को चुनौती देने का एक मॉडल बनकर उभरा. असम और उत्तरप्रदेश में विपक्ष एक नहीं हो सका और उसने मुंह की खाई. ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि सन 2019 के चुनाव में बिहार मॉडल के अनुरूप देश की जनता के सामने एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प प्रस्तुत किया जाएगा.
यह सही है कि कई विपक्षी और क्षेत्रीय पार्टियों को यह एहसास हो चला है कि अगर वे एक नहीं हुए तो वे न केवल संकीर्ण, सांप्रदायिक ताक़तों के तेज़ी से बढ़ते क़दमों को नहीं रोक पाएंगे, वरन उनका अस्तित्व भी ख़तरे में पड़ जाएगा.
हम सब जानते हैं कि यद्यपि मोदी सरकार को लोकसभा में 282 सांसदों का समर्थन प्राप्त है तथापि उसे आम चुनाव में केवल 31 फ़ीसदी मत मिले थे. इससे यह ज़ाहिर होता है कि अब भी देश में ऐसे नागरिकों की बहुसंख्या है, जो बहुवादी प्रजातांत्रिक मूल्यों में निष्ठा रखते हैं.
धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का गठबंधन बनाने की ज़िम्मेदारी उन पार्टियों की है जो बहुवादी प्रजातंत्र को संरक्षित रखना चाहती हैं. ऐसी पार्टियों में से प्रमुख हैं कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी.
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, ऐसा लगता है कि वह इस तरह के गठबंधन के निर्माण की न केवल पक्षधर है वरन उसके लिए काम भी करना चाहती है. परंतु मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के मामले में ऐसा नहीं लगता. माकपा यद्यपि पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष है, परंतु वह न तो सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के पक्ष में आवाज़ उठाती है, ना ही धार्मिक अल्पसंख्यकों की बदहाली उसे परेशान करती है और ना ही वह दलितों के विरूद्ध हिंसा का दृढ़ता से विरोध करती है.
यूपीए-1 सरकार में माकपा का ख़ासा दबदबा था और इसी के चलते वह भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में वंचितों के पक्ष में कई नीतियों का निर्माण करवा सकी. परंतु उसने कई ऐसी बड़ी भूलें भी की हैं जिनका भारतीय राजनीति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा.
संयुक्त धर्मनिरपेक्ष गठबंधन का हिस्सा बनने से माकपा का इंकार ऐसी ही एक भूल है. इसके पहले माकपा ने अपने शीर्षतम नेता ज्योति बसु को प्रधानमंत्री के पद पर देखने का अवसर खो दिया था.
अब नीतीश के विश्वासघात या दूसरे शब्दों में उनके अपना सही रंग दिखाने के बाद, माकपा के मुखपत्र, जिसके संपादक प्रकाश कारत हैं, में एक लेख प्रकाशित हुआ है जो बहुत निराश करने वाला है.
लेख में प्रकाश कारत कहते हैं कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का पंचमेल गठबंधन, भाजपा के विजय-रथ को नहीं रोक सकेगा. लेख में यह भी कहा गया है कि यदि ऐसे किसी गठबंधन में कांग्रेस शामिल होगी तो वह सफल नहीं होगा, क्योंकि कांग्रेस ने ही देश पर नवउदारवादी नीतियां लादीं और कुशासन और भ्रष्टाचार के कारण वह बदनाम है.
कारत ने अपने लेख में जो कहा है, उसमें कुछ सच्चाई हो सकती है परंतु वे शायद हिन्दू राष्ट्रवादियों की देश से प्रजातंत्र का सफ़ाया करने की क्षमता और इरादे को कम करके आंक रहे हैं. आज संघर्ष प्रजातंत्र को बचाने का है. यदि प्रजातंत्र बचा रहेगा तभी आर्थिक नीतियों के मोर्चे पर कोई संघर्ष करना संभव होगा.
आज मोदी से मुक़ाबला करने के लिए जो भी गठबंधन बनेगा, वह कांग्रेस, बसपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस आदि के बिना अधूरा रहेगा. कारत अपने लेख में कहते हैं कि ‘‘आज एक ऐसे व्यापक मंच का निर्माण करने की आवश्यकता है जो श्रमिक वर्ग और किसानों के मुद्दे उठाए और जो सांप्रदायिक ताक़तों से मुक़ाबला कर भाजपा और उसकी नीतियों का विकल्प प्रस्तुत करे.’’
इस लेख में कारत धार्मिक अल्पसंख्यकों की बात नहीं करते और ना ही वे दलितों को सामाजिक न्याय उपलब्ध करवाने की इच्छा व्यक्त करते हैं. चुनावी गणित के मद्देनज़र, कांग्रेस के बिना इस तरह के गठबंधन का निर्माण करने की बात कहना व्यावहारिक नहीं है.
माकपा शायद वर्तमान में देश के समक्ष प्रस्तुत ख़तरों का सही ढंग से आंकलन नहीं कर पा रही है. वह विचारधारा के स्तर पर इतनी हठधर्मी बन गई है कि वह केवल आर्थिक मुद्दों की बात कर रही है. वह सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर रही है. वह यह नहीं समझ पा रही है कि आज सांप्रदायिकता देश के लिए नवउदारवाद से कहीं ज्यादा बड़ा ख़तरा है.
माकपा में ही ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे नेता थे, जिन्हें चुनावी गठबंधनों की आवश्यकता का अहसास था. ऐसा लगता है कि कारत जैसे लोगों ने ही माकपा को यूपीए-1 से बाहर निकलने के लिए दबाव बनाया होगा. इसके बाद कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों पर निर्भर हो गई और माकपा को भी चुनावों में नुक़सान हुआ.
कारत शायद मानते हैं कि वर्तमान सरकार केवल एक तानाशाह सरकार है. वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि वह इस देश में प्रजातंत्र का गला घोंटने में भी सक्षम है. ऐसा लगता है कि वे मार्क्सवादी वैचारिक कट्टरता से इतने अधिक ग्रस्त हैं कि वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आज सांप्रदायिकता ही हमारे प्रजातंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है.
मोदी सरकार केवल एकाधिकारवादी ही नहीं है वह अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही है, वह देश की बहुवादी संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा है और उसका एजेंडा भारतीय संविधान के मूल्यों के एकदम उलट है.
यह सही है कि कांग्रेस ने ऐसी नवउदारवादी नीतियां लागू कीं, जिनके कारण आज देश का दलित तबक़ा बदहाली में है, परंतु सांप्रदायिकता की चुनौती इससे कई अधिक गंभीर हैं. सांप्रदायिक ताक़तें उस प्रजातंत्र को ही समाप्त करने के प्रयास में है जो हमें दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने की ज़मीन और अवसर देता है.
कहने की ज़रूरत नहीं कि आज चुनावी मैदान में सांप्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ संघर्ष हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. (अंग्रेज़ी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)