अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
आज मुहर्रम की दसवीं तारीख़ है. आज ही के दिन सातवीं शताब्दी में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे इमाम हसन-हुसैन मैदान-ए-कर्बला में शहीद हुए थे. तब से ये दिन ‘यौम-ए-आशुरा’ के नाम से मनाया जाता है. और इस शहादत को इस्लामी तारीख़ में बातिल पर हक़ की जीत के तौर पर देखा जाता है. ये जीत हमें याद दिलाती है कि ज़ालिम के आगे कभी झुकना नहीं है, चाहे हमारा सर ही क़लम क्यों न हो जाए. यही कारण था कि इमाम हसन-हुसैन ने न सिर्फ़ अपने जान-ए-अज़ीज़ की कुर्बानी दी, बल्कि अपने कुनबे के लोगों तक को कटवा दिया.
इसी इस्लामी दिन को याद करने के तरीक़े की जब बात आती है तो अचानक ज़ेहन अतीत की उन यादों में खो जाता है.
मेरा पूरा बचपन बेतिया में मुहर्रम व चेहल्लुम के अखाड़े को देखकर गुज़रा है. कभी मुहर्रम पर डॉक्यूमेन्ट्री बनाने के आईडिया ने इसे मेरे और क़रीब ला दिया. मैंने हर मुहल्लों में लुकारों को बनते देखा है. ताजिया व शिपर का बनना भी खूब देखा है. मुहर्रम के अखाड़े में निकाले जाने वाले बोर्डों पर तो मैं भी अपना हुनर दिखा चुका हूं. तो वहीं उस्तादों को लाठी-तलवार भांजने के तरीक़े सिखाते हुए भी देखा है.
मैंने भी बचपन में अपने उस्ताद भिखू चचा से लाठी भांजना सीखा था. अब वो इस दुनिया में नहीं हैं. मैंने यह भी देखा है कि ज़िला प्रशासन इसके लिए खुद कम्पिटिशन आयोजित करता था, जहां हर किसी को अपना हुनर दिखाने का मौक़ा मिलता था.
लेकिन आज जब अपने शहर के मुहर्रम के जुलूसों को याद करता हूं तो ज़ेहन में कई सवाल उठते हैं. मेरी रूह कांप उठती है. मेरे बचपन का छोटा सा सवाल मेरे ज़ेहन में आज भी गूंजता है कि ये कैसा मातम है, जहां जश्न भी है, और इस जश्न में इस्लाम के बुनियादी वसूलों की खुलेआम धज्जियां भी उड़ाई जाती हैं. कुछ लोग शराब के नशे में होते हैं. नाच या कूद रहे होते हैं. आज भी समझ नहीं आ रहा है कि ताजिया या अखाड़ा अगर पुरानी रिवायत है तो फिर ये कैसा ग़म है, जिसमें एक तरफ़ तो लोग अपने सीने को पीटकर, अपने पीठों को लहुलूहान करके मातम मना रहे हैं, तो वहीं एक तरफ़ लोग बैंड-बाजों की धुन पर जश्न मना रहे हैं.
हालात ये हो चले हैं कि कभी इस गम या जश्न के त्योहार में हिन्दू-मुस्लिम दोनों शामिल होते थे. दोनों के गलों में सेहलाबदी हुआ करता था. लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि यही अखाड़े हमारे बीच नफ़रतों या साम्प्रदायिक दंगों तक के कारण बन रहे हैं, आख़िर ऐसा क्यों?
अगर अपने शहर के मुहर्रम के इस अखाड़े के इतिहास की बात करें तो यहां राजा-महाराजाओं के दौर से ये रिवायत चली आ रही है. क़रीब सन् 1900 से बेतिया राज मुहर्रम के इस मौक़े पर ताजिया का अपने खर्च से निर्माण कराती रही है, ये रिवायत आज भी जारी है. बल्कि हक़ीक़त तो यह है कि इस शहर में बड़े ताजिए इस समय सिर्फ़ दो ही बनते हैं, जिनमें एक बेतिया राज का ताजिया भी शामिल है.
1927 तक इस मुहर्रम को मेरे शहर के हिन्दू-मुसलमान दोनों मिलकर बनाते थे. हालांकि 1923 में जब शहर में आर्य समाज व हिन्दू महासभा की गतिविधियां बढ़ी तो नागपंचमी के मौक़े से महावीरी झंडे भी निकलने लगे. लेकिन 2 अगस्त 1927 को एक साज़िश के तहत शहर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ. फिर यहीं से मुसमलानों के मुहर्रम के कम्पिटिशन में महावीरी अखाड़े निकलने शुरू हो गए. लेकिन मेरे अब्बू बताते थे कि बावजूद इसके मुहर्रम के अखाड़ों में पूरी ऋद्धा से हिन्दू भी शामिल होते रहे हैं. ये दौर 80 के दशक तक चला. इसके बाद इस अखाड़े की वजह से कई छोटे-मोटे दंगे हुए.
लेकिन पिछले 12 अगस्त, 2013 को महावीरी अखाड़े की वजह से हुए दंगे ने इस मुहर्रम की पूरी रिवायत ही बदल दी. ‘क़त्ल की रात’ यानी मुहर्रम की नवीं तारीख़ को रात में निकलने वाले अखाड़े पर पूरी तरह से पांबदी लग गई. इसमें सबसे अहम रोल यहां के इमारत-ए-शरिया का था. प्रशासन व इमारते-शरीया की वजह से अब सिर्फ़ दिन के समय ही अखाड़े निकाले जाते हैं.
बताते चलें कि अब तक अखाड़ों में ढोल-ताशे और बैंड बाजे बजने की रिवायत थी, लेकिन 2013 के बाद से सिर्फ़ दिन में ही अखाड़ा निकलने की वजह से डीजे कल्चर की शुरूआत हो गई. यानी 2013 से कल्चर बदल चुका है. साथ ही जो इस मुहर्रम के अखाड़े के बहाने हिन्दू-मुस्लिम एकता दिखती थी, वो अब लगभग समाप्त हो चुकी है. हालांकि मुझे यह भी याद है कि जब मेरे मुहल्ले का अखाड़ा हिन्दू इलाक़ों से गुज़रता था तो ‘मेरे देश प्रेमियों, आपस में प्रेम करो देश प्रेमियों…’ गाना बजने लगता था.
अब ये अखाड़े लोगों में नफ़रत व डर भरने का काम कर रहे हैं. दशहरा व मुहर्रम साथ आ जाने से ये डर और भी अधिक बढ़ गया है. नफ़रत फैलाने वाली ताक़तें सक्रिय हैं. प्रशासन के आदेश के बावजूद मूर्ति विसर्जन नहीं किया गया है.
काश, मेरे शहर में नफ़रत पैदा करने वाले लोग ये समझ पाते कि दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है. और मुहर्रम भी अच्छाई के लिए शहीद हो जाने की दास्तान है. इन दोनों का साथ-साथ आना, साम्प्रदायिक सदभाव और बुराई पर अच्छाई की जीत का शाश्वत संदेश-सा है. ये दोनों ही त्योहार हिन्दू और मुसलमानों को अपने हक़-हक़ूक़ और सच्चाई की ख़ातिर खड़े होने और टकराने का हौसला देते हैं. ज़रूरत इस बात की है कि हक़ की लड़ाई के लिए दोनों समुदाय फिर से एक साथ खड़े होकर नफ़रत का धंधा करने वाले तत्वों को सबक़ सिखाने का काम करें.