अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
इसमें कोई शक़ नहीं है कि मुसलमानों से जुड़े जितने भी प्रतीक हैं, चाहे वो धार्मिक हो, ऐतिहासिक हो या फिर इस्लामिक लॉ से जुड़े हों, उनको व्यवस्थित तरीक़े से निशाना बनाया जा रहा है.
सरकार ये स्पष्ट संकेत देने की कोशिश कर रही है कि वो मुसलमानों को ‘ठीक’ कर रही है. मुल्क के बुहसंख्यक समुदाय को बता रही है कि देखो! हम इन्हें कैसे ‘लाईन’ पर ला रहे हैं.
ये बात भी सच है कि मुसलमानों के शरीअत या धार्मिक मामलों में अब तक सियासी पार्टियां दख़ल देने में बचती और डरती रही थीं. उनमें इतनी हिम्मत ही नहीं होती थी कि वो अपने इस वोट बैंक को किसी भी तरह से छेड़ने की कोशिश कर सकें.
उनके लिए मुसलमानों या उनके शरीअत से जुड़े मुद्दे अछूत हुआ करते थे, लेकिन अब सत्ताधारी पार्टी भाजपा बहुसंख्यक समुदाय को ये संदेश दे रही है कि देखो! आज हमने मुसलमानों को इतना कमज़ोर कर दिया है कि उनकी परंपराओं, उनकी संस्कृति और उनके धर्म पर हम जैसे चाहे चोट पहुंचा सकते हैं. और वो कुछ नहीं कर सकते हैं.
केंद्र सरकार की नीतियां हों या फिर इनके नेताओं के बयान, ये स्पष्ट संकेत देते हैं कि सरकार को मुसलमानों के मामलों की बहुत परवाह नहीं है.
इस माहौल में मुसलमानों का विरोध करना तो बनता है लेकिन सवाल ये है कि क्या वो विरोध सड़कों पर या मैदानों में होना चाहिए? क्या मुसलमान अपने दीन को सड़क पर उतर कर बचा सकते हैं? सच ये है कि मुसलमानों के सड़क पर उतरने से दीन नहीं बचेगा.
ऐसे में मुसलमानों को ये बात सोचनी होगी कि अगर लाखों की तादाद में मुसलमान गांधी मैदान में पहुंच भी गए तो क्या उनकी बात सुनी जाएगी? ये भी सोचना होगा कि आख़िर वो अपनी बात किससे कहना चाह रहे हैं? उनकी बात सुनने वाला कौन है? क्या उन सत्ताधारी पार्टियों को समर्थन देने वाले नेता उनकी बात सुनेंगे, जिनकी पार्टियों ने मुसलमानों के अस्तित्व को ही नकार दिया है. भाजपा नेता तो अब खुलकर बयान दे चुके हैं कि उन्हें तो मुसलमानों का वोट ही नहीं चाहिए.
मुसलमानों को इस बात पर ग़ौर व फ़िक्र करनी होगी कि आज अगर उन्हें अपनी कोई बात कहनी है तो उसका तरीक़ा क्या हो सकता है. सड़क पर उतरना, महिलाओं को बड़ी संख्या में लाना, इस मसले का हल क़तई नहीं हो सकता. एक तरह से तो ये मुसलमानों की बेइज़्ज़ती ही है कि कर तो ये सब कुछ रहे हैं, लेकिन हो कुछ नहीं रहा है. इसके पहले भी कई प्रदर्शन हो चुके हैं, उसका कोई असर कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आया. कड़वा सच तो यह भी है कि सांप्रदायिक शक्तियां भी यही चाहती हैं कि मुसलमान अपने धार्मिक मसलों में ही उलझे रहें.
पिछले साल अक्टूबर में राष्ट्रीय मुस्लिम मोर्चा भी ‘दीन बचाओ, दस्तूर बचाओ’ जैसे अभियान चला चुकी है. लाखों लोग सड़कों पर उतर चुके हैं. लेकिन सरकार की नीतियों में कहीं कोई बदलाव नज़र नहीं आया.
याद रखें —हिंसा का जवाब हिंसा कभी नहीं हो सकता. और विरोध-प्रदर्शन खुद में एक राजनीति होते हैं. आज गांधी मैदान में होने वाली ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ कांफ्रेंस को भी लोग राजनीति की तरह देख रहे हैं. सोशल मीडिया में कई तरह की बातें लगातार लिखी जा रही हैं. इसे लेकर उर्दू अख़बारों में विज्ञापन भी प्रकाशित कराया जा चुका है. बल्कि लोगों की मानें तो ये कांफ्रेंस दीन बचाने से ज़्यादा दीन को बेचने के ख़ातिर की जा रही है.
इसके आयोजकों में कई ऐसे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और उनकी ख़ासियत है कि वो एक ही मुर्गे को कई जगह हलाल कर सकते हैं. इस कांफ्रेंस के कन्वेनर पॉलिटिकल एम्बीशन रखते हैं. एमएलसी के चुनाव में खड़े हो चुके हैं, अब शायद ख़्वाहिश राज्यसभा सांसद बनने की है.
इस कांफ्रेंस के असल हीरो मौलाना वली रहमानी हैं, जिनकी अपनी एक पॉलिटिकल आईडेंटिटी है. कांग्रेस से जुड़े हुए हैं. 1974 से 1996 तक बिहार में एमएलसी भी रह चुके हैं. विधान परिषद के डिप्टी स्पीकर भी बनाए जा चुके हैं.
जब भारत सरकार के लॉ कमीशन के ज़रिए यूनिफॉर्म सिविल कोड के सिलसिले में सवाल जारी किए गए तो मौलाना वली रहमानी दिल्ली के प्रेस क्लब में मीडिया से मुख़ातिब हुए और ट्रिपल तलाक़ पर अपनी बात रखी. उन्होंने इसे भी अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा को मज़बूत करने का ही मौका बना लिया था.
इससे पहले भी मुसलमानों के किसी मुद्दे को लेकर मौलाना वली रहमानी ने कई बार रैली करके अपना ‘वजूद’ दिखाया था और बदले में कांग्रेस का टिकट पाकर एमएलसी बनाए गए.
इस ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ कांफ्रेंस का आयोजन इमारत-ए-शरिया ने किया है, जिसके अनीसुर रहमान क़ासमी हमेशा से नीतिश कुमार के क़रीब रहे हैं. शायद यही वजह है कि इस कांफ्रेंस के कई प्रेस कांफ्रेंसों में नीतिश के पार्टी से जुड़े लोग नज़र आए हैं. नीतिश के मुस्लिम प्यादों ने खुलकर इसके पक्ष में जगह-जगह होर्डिंग भी लगाया है और मुसलमानों से लाखों की तादाद में गांधी मैदान में पहुंचने की अपील की है.
खुद क़ासमी ये बता चुके हैं कि सरकार इस कांफ्रेंस में पूरा सहयोग कर रही है. और सहयोग भी भला क्यों न करें, क्योंकि सबसे अधिक इसका फ़ायदा फिलहाल नीतिश कुमार को ही मिलता दिख रहा है. आप गांधी मैदान के इर्द-गिर्द चले जाईए, आपको सैकड़ों होर्डिंग्स मिल जाएंगे, जिसमें बताया गया है कि सरकार ने मुसलमानों के लिए क्या किया है. नीतिश कुमार को अपने प्रचार का इससे मौक़ा कहां मिल सकता था.
अब सोचने की बात यह है कि मोदी के दोस्त नीतिश कुमार आपके इस कांफ्रेंस का समर्थन करें, ये कैसे मुमकिन है?
ट्रिपल तलाक़ इस कांफ्रेंस का एक अहम मुद्दा है, लेकिन अभी भी इसे लेकर एक भी ड्राफ्ट मुसलमानों की ओर से पेश नहीं किया गया है. हालांकि 2011 के बाद से ये रिवायत देखी गई है कि कई मुद्दों पर लोगों ने अपने ड्राफ्ट सरकार के समक्ष रखे हैं. लोकपाल को लेकर कई ड्राफ्ट सरकार के समक्ष रखे गए थे. लेकिन मुसलमानों में उलेमा सिर्फ़ और सिर्फ़ बरगला रहे हैं, लेकिन मुल्क के मुसलमानों को ये नहीं बता रहे हैं कि ट्रिपल तलाक़ के ख़िलाफ़ जो बिल हो, वो कैसा हो या फिर इसे लेकर अदालत में हमें क्या करना चाहिए?
याद रहे कि मुसलमानों के संकट की घड़ी में इन धार्मिक संस्थाओं ने कभी उनके असली मुद्दे नहीं उठाए हैं. बिहार में कई स्थानों पर सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है, लेकिन तथाकथित क़ौम के ये ठेकेदार ख़ामोश नज़र आए हैं.
ये कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि ट्रिपल तलाक़ के मसले में ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने सही समय पर सही क़दम उठाया होता तो इस मामले में इतना छीछालेदर नहीं होता. शायद आज ये स्थिति ही नहीं आती. सुप्रीम कोर्ट को न इस पर प्रतिबंध लगाने की ज़रूरत पड़ती, न सरकार को क़ानून लाने की ज़रूरत पड़ती और न मुसलमानों को नीचा दिखाया जाता.
सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि मुसलमानों के भीतर कब सुधार की आवाज़ उठेगी. क्यों हम किसी की बात को अंतिम सच मान बैठते हैं, ये जानते हुए कि इस उलेमा का अपना राजनीतिक मक़सद है, वो कभी क़ौम को गिरवी भी रख सकता है.
दरअसल, मुसलमानों को ये समझने की ज़रूरत है कि मोदी के दौर में मुसलमानों में दीन को लेकर जो ख़तरे व ख़ौफ़ पैदा हुआ है. उस ख़ौफ़ को उलेमा कैसे बेच सकते हैं, इसकी ही मिसाल बिहार में होने वाली आज की कांफ्रेंस है.