जावेद अनीस, TwoCircles.net के लिए
आर्थिक विकास के मोर्चे पर तेज़ी से उभरते भारत के लिए बढ़ती असमानता और बेरोज़गारी सबसे बड़ी चुनौती है. देश में स्वरोज़गार के मौक़े घट रहे हैं और नौकरियां लगातार कम हो रही हैं.
श्रम ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि, आज भारत दुनिया के सबसे ज़्यादा बेरोज़गारों का देश बन गया है. समावेशी विकास सूचकांक में हम 62वें नंबर पर हैं और इस मामले में हम पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे अपने पड़ोसियों से भी पीछे हैं. लेकिन इसी के साथ ही एक दूसरी तस्वीर यह है कि भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती चोटी की अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है.
कुछ समय पहले ही हम ‘कारोबार संबंधी सुगमता’ सूचकांक में 30 पायदान ऊपर चढ़ने में कामयाब हुए हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हम विकास के जिस रास्ते पर चल रहे हैं, उससे सभी के लिए रोज़गार सृजन और समानता सुनिश्चित हो पा रही है?
दरअसल, भारत में विषमता बढ़ने की रफ़्तार ऐतिहासिक रूप से उच्चतर स्तर पर पहुंच गई है. अमीरों और ग़रीबों के बीच खाई चिंताजक रूप से बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. यह स्थिति हमारे रोज़गार विहीन विकास और बिना सार्वजनिक धन खर्च किए जीडीपी वृद्धि के रास्ते पर चलने का परिणाम है.
पिछले दशकों में दुनिया के अधिकतर देश आर्थिक विकास के जिस मॉडल पर चले हैं, उससे वहां की अर्थव्यवस्थाएं समृद्ध तो हुई हैं, किन्तु बड़े स्तर पर निजीकरण की वजह से सावर्जनिक पूंजी का हास हुआ है और संसाधन चुनिन्दा लोगों के हाथों में सिमटे हैं.
भारत में 90 के दशक में आर्थिक सुधारों को लागू किया गया था. सुधारों के लागू होने के बाद से देश में अभूतपूर्व तरीक़े से सम्पत्ति पर सृजन हुआ है.
“क्रेडिट सुइस ग्लोबल” के अनुसार साल 2000 के बाद से भारत में संपत्ति 9.9 फ़ीसद सालाना की दर से बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि इस दौरान इसका वैश्विक औसत छह फ़ीसद ही रहा है, लेकिन इसका लाभ देश की बड़ी आबादी को नहीं मिल पाया है.
आज वैश्विक संपत्ति में भारत की हिस्सेदारी 6वीं होने के बावजूद भारतीयों की औसत संपत्ति वैश्विक औसत से बहुत कम है. इस दौरान देश में सार्वजनिक संसाधनों के वितरण में विषमता व्यापक हुई है और क़रीब एक तिहाई आबादी अभी भी ग़रीबी रेखा के नीचे रहने को मजबूर हैं.
हालत यह है कि 2017 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 100वें स्थान पर पहुंच गया है और इस मामले में हमारी स्थिति बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार और कई अफ्रीक़ी देशों से भी ख़राब है. वहीं 2016 में हम 97वें पायदान पर थे.
ऑक्सफेम के अनुसार वैश्विक स्तर पर केवल एक प्रतिशत लोगों के पास 50 फ़ीसदी दौलत है, लेकिन भारत में यह आंकड़ा 58 प्रतिशत है. और 57 अरबपतियों के पास देश के 70 फ़ीसदी लोगों के बराबर की संपत्ति है.
ऑक्सफेम की ही एक और रिपोर्ट “द वाइडेनिंग गैप्स: इंडिया इनइक्वैलिटी रिपोर्ट 2018” के अनुसार भारत में आर्थिक असमानता तेज़ी से बढ़ रही है. देश के जीडीपी में 15 प्रतिशत हिस्सा अमीरों का हो चूका है, जबकि पांच साल पहले यह हिस्सा 10 प्रतिशत था.
भारत आबादी के हिसाब से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है और देश की जनसंख्या में 65 प्रतिशत युवा आबादी है, जिनकी उम्र 35 से कम हैं. इतनी बड़ी युवा आबादी हमारी ताक़त बन सकती थी, लेकिन देश में पर्याप्त रोज़गार का सृजन नहीं होने के कारण बड़ी संख्या में युवा बेरोज़गार हैं.
आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के अनुसार देश की क़रीब 30 प्रतिशत से अधिक युवा बेरोज़गारी के गिरफ्त में हैं. इससे समाज में असंतोष की भावना उभर रही है.
इसी तरह से तमाम प्रयासों के बावजूद देश की कुल श्रमशक्ति में औरतों की भागीदारी केवल 27 फ़ीसदी ही है (श्रम शक्ति में घरेलू काम और देखभाल, जैसे अवैतनिक कामों को शामिल नहीं किया जाता है).
विश्व बैंक के ताज़ा आंकलन बताते हैं कि साल 2004-05 से 2011-12 तक की अवधि में 19.6 प्रतिशत महिलाएं श्रम शक्ति से बाहर हुई हैं, जो कि एक बड़ी गिरावट है.
श्रमशक्ति में औरतों की भागीदारी की महत्ता को इस तरह से समझा जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का आंकलन है कि यदि भारत की श्रमशक्ति में महिलाओं की उपस्थिति भी पुरुषों जितनी हो जाए तो इससे हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 27 फ़ीसद तक की वृद्धि हो सकती है.
भारत का कामगार एक तरह के संक्रमण काल से गुज़र रहा है. जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान क़रीब 13 प्रतिशत के आस-पास है, लेकिन अभी भी भारत की आधी आबादी कृषि पर ही निर्भर है. एक तरफ़ कृषि क्षेत्र इस दबाव को नहीं झेल पा रहा है, तो दूसरी तरफ़ यहां लगे लोगों के पास अन्य काम-धंधों के लिए अपेक्षित कौशल नहीं है. शायद इसीलिए मनरेगा की प्रासंगिकता बढ़ जाती है.
हमारे देश में मनरेगा एकमात्र ऐसा क़ानून है, जो ग्रामीण क्षेत्र में सभी को 100 दिनों तक रोज़गार मुहैया कराने की गारंटी देता है. हालांकि केवल ग्रामीण केन्द्रित होने, भ्रष्टाचार और क्रियान्वयन से सम्बंधित अन्य समस्याओं की वजह से इसको लेकर कई सवाल हैं, लेकिन इन सबके बावजूद मनरेगा की महत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता है.
मोदी सरकार ने हर साल एक करोड़ नौकरियों का सृजन करने का वादा किया था, लेकिन यह वादा अभी भी हक़ीक़त नहीं बन पाया है.
मोदी सरकार द्वारा साल 2014 में कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय का गठन किया था, जिसके बाद 2015 में प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना शुरू की गई, जिसका मक़सद था —युवाओं के कौशल को विकसित करके उन्हें स्वरोज़गार शुरू करने के क़ाबिल बनाना. लेकिन इस योजना का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है और इसमें कई तरह की रुकावटें देखने को मिल रही हैं.
जैसे योजना शुरू करने से पहले रोज़गार मुहैया कराने एवं उद्योगों की कौशल जरूरतों का आंकलन ना करना और इसके तहत दी जाने वाली प्रशिक्षण का स्तर गुणवत्तापूर्ण ना होना जैसी प्रमुख कमियां रही हैं.
समावेशी विकास की अवधारणा में समाज के सभी वर्गों महिलाओं, जाति और संप्रदाय के लोगों के विकास को समाहित किया गया है और इसके पैमाने में लोगों के रहन-सहन, स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरणीय स्थिति जैसे पहलुओं को आंका जाता है.
आने वाले दिनों में यदि हम समावेशी विकास को नज़रअंदाज़ करते हुए विकास के इसी मॉडल पर चलते रहें तो विषमताएं और गहरी होगीं. इसलिए ज़रूरी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी अन्य बुनियादी सेवाओं पर सार्वजनिक खर्चे को बढ़ाया जाए और रोज़गार सृजन की तरफ़ विशेष ध्यान दिया जाए.
(जावेद अनीस भोपाल में रह रहे पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)