महमूद रियाज़ हाशमी
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटीन ने कहा था, “फीजिक्स से ज्यादा पॉलीटिक्स कठिन है” और जो लोग इस बात से सहमत हुए बिना राजनीति करते हैं, उनके सामने हाथरस जैसी चुनौती उभरती रहती हैं। समाज में अपराध हमेशा से रहे हैं और रहेंगे, लेकिन अगर आपराधिक घटनाएं सियासी हथियार बनने लगें तो समझिए कि निश्चित रूप से पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था में खोट है। हाथरस कांड को लेकर हम यहां पहले बात करेंगे घटना की, फिर उस पर होने वाली राजनीति और उसके नफा नुकसान की। दरअसल क्राइम को भले न रोका जा सके, लेकिन उसे कम किया जा सकता है और इसका बेहतर तरीका है कानून का खौफ, जो पुलिस निरंकुशता से कभी पैदा नहीं होता है। व्यवस्थाओं और प्रावधानों को निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से लागू करने से होता है। प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआइआर) की व्यवस्था कानून में इसलिए है कि जैसी सूचना वैसी रपट दर्ज की जाए। फिर इन्वेस्टिगेशन आफिसर को जो कम ज्यादा लगे, केस की विवेचना में वैसी आइपीसी की धाराएं घटाई या बढ़ाई जाएं। लेकिन पुलिस का जोर पहले तो इस बात पर होता है कि एफआइआर ही दर्ज न हो और यदि दर्ज करनी पड़े तो फिर पर जोर इस पर होता है कि गंभीर धाराओं में न हो। पैसे, पॉलीटिक्स और ऊंचे संबंधों के प्रभाव में मामूली अपराध भी गंभीर धाराओं में दर्ज हो जाते हैं। इस स्थिति में पीड़ित नहीं, बल्कि कानून ही अपने दरवाजे पर ठगा जाता है। लेकिन सरकार का अपना इंटेलीजेंस नेटवर्क इसलिए होता है ताकि स्थानीय प्रशासन का सच और झूठ पकड़ा जा सके।
अब बात राजनीति की जिसे हमेशा मुद्दों की भूख रहती है। सत्ता और विपक्ष हमेशा अपने हिसाब से मुद्दों का विश्लेषण करते हैं। सत्ता का सिद्धांत है कि मुद्दे को जन्म न लेने दिया जाए और इसका बेहतर तरीका है विपक्ष को साधकर रखना। एकतरफा जनसमर्थन से सत्ता में आए दलों के लिए विपक्ष को नजरअंदाज करने के पीछे शायद आइंसटीन के उक्त वाक्य को ही ना समझ पाना एक बड़ा कारण है। अपराधों पर राजनीति यूपी जैसे प्रदेश में महत्वपूर्ण और प्रासांगिक इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि यहां सरकार जिस ‘फॉर्मूला वन’ रेस में दौड़ है, उसकी ‘ठोको पॉलिसी’ में हर रोज अपराधियों के खिलाफ नए तेवर देखने को मिलते हैं। ऐसे में आम आदमी की हाथरस जैसे कांड पर सरकार से अपेक्षाओं का अंदाज लगाने में खुद सरकार से चूक होना लाजमी है। चूक होगी तो विपक्षी दल उसे मुद्दे के तौर पर लपकेंगे ही।
यूपी में सपा, बसपा और कांग्रेस तीन ही विपक्षी दल हैं। हाथरस में मामला दलित की बेटी का था तो उम्मीद के मुताबिक बसपा की वैसी तीखी प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। ब्राह्मणों पर अत्याचार को यूपी में मुद्दा बना चुकी कांग्रेस के लिए हाथरस कांड ने उसके पुराने दलित वोटबैंक का रास्ता खोल दिया। पहले बसपा और 2014 से भाजपा जिस बाल्मीकि समाज के वोट लेकर सत्ता में आई, उसकी लड़ाई कांग्रेस लड़ रही है। राहुल गांधी और प्रियंका की तरफ से यह संदेश फिलहाल साफ महसूस किया जा सकता है। इस मामले में भी राहुल गांधी को भाजपा ‘पप्पू’ भले समझ रही हो, लेकिन आम जनता को उनमें भविष्य की संभावनाएं दिखने लगी हैं। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि राजनीति में हमेशा एक वैक्यूम रहता है, जिसका आकार सत्ता का आचरण तय करता है और इसी वैक्यूम को फिलहाल कांग्रेस भरती दिख रही है। हाथरस जिला प्रशासन की स्क्रिप्ट पर चली सरकार से बेहतर कौन जान सकता है कि यह वैक्यूम उसके लिए कितना बड़ा और कितना छोटा चैलेंज है।
हाथरसकांड में यूपीसरकार से पांच बड़ी चूक हुई हैं। इनकी शुरूआत जिला प्रशासन से हुई और सिलसिला यूपीसरकार तक जा पहुंचा। पहले जिन सवालों का स्थानीय स्तर पर जवाब दिया जा सकता था या समाधान किया जा सकता था, अब वे यूपीसरकार के लिए भी कठिन बन चुके हैं। एक कहावत है कि एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है, लेकिन यह भी सच है कि एक झूठ को सच साबित करने के लिए हालात इतने पेचीदा हो जाते हैं कि फिर सच भी झूठ लगने लगता है। फिलहाल हाथरस की नौकरशाही ने यूपी सरकार के लिए ऐसे ही हालात पैदा कर दिए हैं।
पहली चूक– पुलिस के स्तर से केस को सिर्फ छेड़खानी की धाराओं में दर्ज करना और जानलेवा हमले की धारा को भी नजरअंदाज करना। पीड़िता की हालत लगातार गंभीर होती गई और वह अस्पताल में बेहोशी की हालत में भर्ती कराई गई थी। 9 दिनों तक जब होश में नहीं आई।
दूसरी चूक- मौत के बाद रेप न होने की थ्योरी। 14 सितंबर की इस घटना को लेकर मीडिया में लगातार गैंगरेप की खबरें चल रही थीं। पुलिस ने एक भी बार भी इससे इन्कार नहीं किया। घटना के 15 दिनों के बाद पीड़िता की मौत हुई तो पुलिस ने चंद घंटों में ही रेप न होने की बात कही।
तीसरी चूक– पीड़िता का आधी रात को अंतिम संस्कार। हाथरस पुलिस और प्रशासन को ऐसी क्या जल्दी थी कि पीड़िता के शव को खुद ही आधी रात में जंगल में ले जाकर जला दिया। घरवालों को अंतिम संस्कार से भी वंचित कर दिया गया। कम से कम योगी जैसे महंत से यह उम्मीद नहीं थी।
चौथी चूक– राहुल-प्रियंका को रोकने की जिद। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी गया। पीड़िता के घर जाने के लिए निकले तो यूपी बॉर्डर सील कर दिया गया। उन्हें पैदल भी नहीं जाने दिया गया। अगर कुछ भी गलत नहीं था तो शासन प्रशासन को इनके जाने से कैसा डर था? नतीजा यह हुआ कि सरकार इन्हें हाथरस जाने से नहीं रोक पाई।
पांचवीं चूक– सरकार का इंटेलीजेंस फेल्योर। सब कुछ स्थानीय प्रशासन पर छोड़ना और उसे संदेह से परे मानकर विश्वास करना सरकार की बड़ी चूक रही। पहले पुलिस ने और फिर डीएम ने सरकार की किरकिरी कराई। लेकिन सरकार अपने इंटेलीजेंस और प्रशासनिक इनपुट में या तो कोई फर्क महसूस नहीं कर पाई या इंटेलीजेंस सिस्टम भी प्रशासन के दबाव में था।
सियासी बवंडर उठते देख सरकार ने हाथरसकांड में लापरवाह एसपी और उनके कुछ मातहतों को निलंबित कर दिया है, लेकिन डीएम पर सरकार की मेहरबानी बरकरार है। ऐसे में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने सरकार की तमाम बंदिशों के बावजूद पीड़ित परिवार के घर पहुंचकर यूपी की राजनीति में अपने इरादे भी साफ कर दिए। यूपी में एक लंबा वनवास झेल रही कांग्रेस के लिए मुस्लिम, दलित और ब्राह्मणों के मुद्दे तब किसी अवसर से कम नहीं हैं, जब अपराधियों के खिलाफ जीरो टोलरेस के मुद्दे पर काम कर रही सरकार में ये उपलब्ध हो जाएं। अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने राजनीति करने वालों के लिए एक बेहद तजुर्बे की बात कही थी-