संतोष कुमार झा
पश्चिम एशिया में बसा इज़राइल से केन्द्र में मोदी सरकार के आने के बाद भारत के आपसी संबंध प्रगाढ़ हुए हैं. पिछले दो साल में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का इज़राइल दौरा और इज़राइली राष्ट्रपति का भारत आना भी दोनों देशों के गहरे होते रिश्तों की तरफ़ साफ़ इशारा करते हैं.
तथ्यों की बात करें तो मोदी सरकार ने इज़राइल के साथ सर्वाधिक सामरिक समझौते किए हैं. भारत–इजराइल राजनायिक संबंधों की 25वीं वर्षगांठ पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 4 जूलाई से तीन दिवसीय यात्रा पर इज़राइल में रहे. इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहु ने हवाई अड्डे पर प्रधानमंत्री मोदी के आगवानी में खुद खड़े थे, जो इस बात को दर्शाता है कि इज़राइल के लिए भारत कितना अहम है.
हालांकि भारत ने 1947 में संयुक्त राष्ट्र में इज़राइल देश को बनाने के लिए फ़िलिस्तीन विभाजन प्रस्ताव का विरोध किया था, लेकिन तीन साल बाद 17 सितंबर, 1950 को भारत ने इज़राइल को एक संप्रभु राज्य के रूप में मान्यता दी. दोनों देशों के बीच पूर्ण राजनायीक संबंध स्थापित होने में 42 साल लग गए.
बदलते दुनिया में जहां अमेरिकी वर्चस्व हर क्षेत्र में छा रहा था, उस वक़्त मौजूदा प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने भारत की विदेश नीति में एक बड़ा बदलाव किया और इज़राइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंधों की बुनियाद रखी थी. उनको यह लग रहा था कि इज़राइल से दोस्ती भारत को अमेरिका के क़रीब लाने में कारगर साबित होगी.
मोदी का यह इज़राइली दौरा इसी कड़ी में देखा जा रहा है. आज देश के शासक–वर्ग को लग रहा है कि पहले से कहीं ज़्यादा आज भारत को इज़राइली के क़रीब जाने की ज़रुरत है, क्योंकि चीन और पाकिस्तान से मिल रही चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए भारत–इज़राइल सामरिक सम्बन्ध आवश्यक है. तभी तो अपने सारे आलोचकों को नज़रअंदाज़ करते हुए मोदी ने देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में इज़राइल का दौरा किया.
ग़ौरतलब है कि शीत–युद्द के समय विश्व दो धरा में विभाजित था. एक ओर पूंजीवादी देश, जिसका नेतृत्व अमेरिका कर रहा था, दुसरी ओर समाजवादी देशों का नेतृत्व सोवियत संघ रूस कर रहा था. भारत गुटनिरपेक्ष देशों का नेतृत्व कर रहा था. नेहरू की विदेश नीति इसी परिपेक्ष्य में इज़राइल से पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित नहीं कर सकी, क्योंकि इज़राइल अमेरिका कैम्प का एक अहम सदस्य था.
हालांकि 1953 में, इज़राइल को बॉम्बे में एक वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति दी गई, लेकिन नेहरू इज़राइल के साथ पूर्ण राजनीतिक संबंध स्थापित नहीं करना चाहते थे. नेहरू फ़िलिस्तीन के पक्ष का समर्थन करते थे और उनका मानना था कि नई दिल्ली में इज़राइल का दूतावास खोलने से अरब देशों के साथ भारत के संबंधों को नुक़सान होगा. शीत युद्ध के समय भारत का झुकाव सोवियत संघ की ओर था और भारत पाकिस्तान के प्रभाव को कम करने के लिए अरब देशों का सहयोग चाहता था.
एक संप्रभु राज्य की विदेश नीति राष्ट्रीय हित के अनुसार बदलती रहती है. आज सरकार को इज़राइल की तरफ़ झुकाव भारत के “राष्ट्रहित” में देखा जा रहा है. सोवियत संघ के विघटन के बाद हमने इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए. राव के बाद वाजपेयी सरकार के समय भारत–इज़राइल के रिश्ते बेहतर होने लगे थे. मनमोहन सिंह ने भी इस संबंध को आगे बढ़ाया. मगर मोदी सरकार इज़राइल के नज़दीक जाने में पिछले सरकारों की तुलना में और भी अधिक उत्साही दिखी. इज़राइल मोदी सरकार के लिए कितना अहम है, इसकी झलक मोदी के स्वागत भाषण में भी दिखा. मोदी ने अपनी इस यात्रा को “पाथ ब्रेकिंग” कहा और इज़राइल को भारत का महत्वपूर्ण साझीदार बताया.
इस यात्रा के दौरान जिन सात समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं, उनमें रक्षा और कारोबार के अलावा जल संरक्षण, साइबर सुरक्षा, औद्योगिक विकास, कृषि और अंतरिक्ष जैसे क्षेत्र शामिल हैं. संबंधों को मज़बूती के लिए मोदी के यात्रा के दौरान दिल्ली–मुंबई–तेलअबीब के बीच विमान सेवा प्रारंभ करने की घोषणा की गई है.
भारत–इज़राइल के बीच रक्षा संबंधों की शुरुआत 1962 के भारत–चीन युद्ध के दौरान ही हुई थी. इसके अलावा कारगिल युद्ध के वक़्त 1999 में जब देश के पास तोपों की कमी थी, तब इज़राइल ने भारत की ओर मदद का हाथ बढ़ाया.
बताते चलें कि भारत इज़राइली हथियार का सबसे बड़ा ख़रीदार देश भी है. इज़राइल ने पिछले 5 साल में हर साल औसतन एक अरब डॉलर के हथियार भारत को बेचे हैं. इस प्रकार अमेरीका के बाद इज़राइल अब भारत को हथियार सप्लाई करने वाला विश्व का दुसरा सबसे बड़ा देश बन गया है. यानी हथियारों की ख़रीद दोनों देशों के बीच आपसी संबंधों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू रहा है. भारत ने पिछले साल अत्याधुनिक प्रणाली से लैस राडार व मल्टी फ़ंक्शनल सर्विलांस सिस्टम से युक्त मिसाइल का परीक्षण किया है. यह मिसाइल इज़राइल के सहयोग से ही विकसित किया जा रहा है.
इज़राइल कम्पनी रफ़ाएल के साथ भी एक बड़ा समझौता हुआ है. भारत के चार युद्धपोतों पर बराक मिसायल स्थापित करने का भी 630 करोड़ डॉलर का समझौता हुआ है. इन समझौतों को इज़राइली रक्षा इतिहास की सबसे बड़ी बिक्री माना जा रहा है.
इज़राइल के साथ साझेदारी केवल सुरक्षा मामलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कृषि क्षेत्र में भी मदद से भारत की खाद्य सुरक्षा मज़बूत हो रही है.
बदली हुई विदेश नीति पर फ़िलिस्तीनी राष्ट्रपति ने सधा हुआ प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ‘हम अपने संबंध को मज़बूत करना चाहते हैं, हमें उम्मीद है कि इज़राइल से भारत के गहरे होते संबंध हमारे रिश्तों को प्रभावित नहीं करेंगे.’
अब सवाल उठता है कि क्या हम ईरान और सऊदी अरब के बीच जो संतुलन बनाए हैं, क्या वही संतुलन मोदी इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच बना लेंगे? भारत और इज़राइल के संबंधों में निकटता समय की मांग है, लेकिन दोनों के संबंध में असंतुलन पैदा नहीं किया जा सकता है. भारत को इज़राइल के साथ फ़िलिस्तीन के साथ भी संबंध रखकर ही आगे बढ़ना होगा.
(लेखक जेएनयू में शोधार्थी है. इनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.)