
नासिरूद्दीन, TwoCircles.net के लिए
पिछले दिनों हमारे मुल्क में यह माहौल बनाने की कोशिश की गई कि सभी मुसलमान महिलाएं तीन तलाक़ क़ानून के नाम से मशहूर ‘मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) बिल, 2017’ के साथ हैं.
मगर हक़ीक़त क्या ऐसी ही है? यहां हम कुछ महिलाओं की बात रखने जा रहे हैं. हम बिना अपनी कोई बात जोड़े उनकी बात यहां पेश करेंगे. हम सब इतने समझदार तो हैं ही कि उनकी बातों की तह तक पहुंचने की ख़ुद कोशिश कर सकें.
ये वे महिलाएं हैं, जो हमें आमतौर पर टेलीविज़न चैनलों के दफ़्तर में नहीं दिखती हैं. वे कोई इतिहास बनाने का दावा नहीं करती हैं. वे पुरातनपंथी और बुनियादपरस्त तंज़ीम से भी नहीं जुड़ी हैं. बल्कि ये वे महिलाएं हैं जो दशकों से मुसलमान महिलाओं की ज़िन्दगियों से ज़मीनी तौर पर जुड़ी हैं. उनके सुख-दुख की साझीदार हैं. वे शोरगुल से दूर भारत के अलग-अलग कोनों में काम करती हैं. वे संविधान के उसूलों में यक़ीन करती हैं. यह महज़ पांच नहीं हैं. पांच तो सिर्फ़ नुमाइंदगी के लिए हैं. तो आइए हम अगले चार सीरिज़ में इनकी बात सुनते हैं. पेश है इस सीरिज़ की तीसरी कहानी…
उत्तर प्रदेश के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने इकट्ठी तीन तलाक़ का मुद्दा ख़ूब ज़ोरों से उठाया था. गुजरात चुनावों के पहले भी इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री के क़दम के समर्थन में उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों में मुसलमान महिलाओं के प्रदर्शन की तस्वीरें हमें देखने को मिलीं. इसी उत्तर प्रदेश के दो कोनों से तीन आवाज़ें हैं. लखनऊ से शाहिरा नईम, मुज़फ़्फ़रनगर से रेहाना अदीब और सहारनपुर से डॉक्टर क़ुदुसिया अंजुम.
शाहिरा नईम का चार दशकों का पत्रकारिता का अनुभव है. वे महिला आंदोलन से भी सक्रिय रूप से जुड़ी हैं. वे ऐसी तंज़ीमों से जुड़ी हैं जो परेशान हाल महिलाओं के साथ खड़ा रहता है. शाहिरा नईम का मानना है —
मौजूदा केन्द्र सरकार का शायद यह पहला ऐसा फ़ैसला है, जो मुसलमान समाज के प्रति इनकी नीयत को इतने साफ़ तौर पर दिखाता है. जितनी जल्दबाज़ी में लोकसभा से इसे पास कराया गया, यह शक को और गहरा ही करता है.
यह बिल अंतर्विरोधों का एक क्लासिक नमूना है. जब अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले ने एक मजलिस में तीन तलाक़ को सिरे से ख़ारिज कर दिया था तो फिर ऐसी तलाक़ देने वाले शौहर के लिए फ़ौजदारी क़ानून लाना और मर्द को तीन साल के लिए जेल भेजने का प्रावधान करने की क्या वजह हो सकती है? मुझे तो लगता है कि क़ानून के जानकारों ने इतना बड़ा अंतर्विरोध तो जान-बूझ कर ही छोड़ा होगा. यही नहीं, लोकसभा में क़ानून पेश करने से पहले उन लोगों से कोई मश्विरा नहीं किया गया जो मुसलमान महिलाओं की जि़ंदगी और क़ानून समझते हैं.
जेंडर समानता की बात छोड़िए, मुझे तो लगता है कि फ़ौजदारी क़ानून बनाकर मुस्लिम पुरुष को जेल की हवा खिलाना, मुस्लिम महिला और उनके बच्चे- बच्चियों को दर-बदर करना ही, शायद भाजपा सरकार का असली मक़सद है.
बुनियादी मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए आया है बिल : रेहाना

रेहाना अदीब, अस्तित्व सामाजिक संस्था की प्रमुख हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महिलाओं और ख़ासतौर पर मुसलमान महिलाओं के मुद्दे पर काफ़ी सक्रिय रहती हैं. रेहाना इस बिल पर अपनी राय कुछ यों देती हैं —
अगर यह बिल राज्यसभा से पास हो जाता है और क़ानून बन जाता है तो यह मुसलमान महिलाओं के हक़ में नहीं होगा. यह उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करेगा. एक बैठकी में तलाक़ बोलने से अगर कोई पति जेल चला जाता है तो उनके बच्चे-बच्चियों और महिला के लिए गुज़र बसर का इंतज़ाम कौन करेगा.
मेरी राय में यह मुसलमान महिलाओं के साथ अन्याय होगा. मुसलमानों में बहुत सारी शादियां रिश्ते में भी होती हैं. इस बिल में जो सज़ा रखी गई है. यह सज़ा उन रिश्तों को गहरी चोट पहुंचाएगी. इस क़ानून के तहत बेवजह किसी को फंसाया जा सकता है. हमारी राय में यह बिल्कुल अंसवैधानिक है.
मुझे लगता है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बुनियादी मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए इस तरह का काम कर रही है.
यह बिल महिलाओं के हित में नहीं है : क़ुदुसिया

उत्तर प्रदेश का ही एक शहर है सहारनपुर. देवबंद की वजह से ख़ासा मशहूर है. डॉक्टर क़ुदुसिया अंजुम एक कॉलेज में प्रिंसिपल हैं. महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए काम करती हैं. परचम नाम की संस्था की मुखिया हैं. इनका वास्ता भी मुसलमान महिलाओं की ज़िन्दगी से पड़ता है. उनकी राय भी प्रस्तावित तीन तलाक़ क़ानून के बाक़ियों आलोचकों से मिलती है—
केन्द्र सरकार तीन तलाक़ पर बिल बहुत जल्दबाज़ी में लेकर आई है. इस बिल पर महिला या अन्य सामाजिक संस्थाओं से विचार-विमर्श नहीं किया गया. सरकार ने हठधर्मिता दिखाते हुए अपनी राय थोप दी है. इसे आपराधिक क़ानून बनाना ग़लत है. इकट्ठी तीन तलाक़ का ख़त्म होना अच्छी बात है. हम इसके समर्थन में हैं. सुप्रीम कोर्ट ने तो तीन तलाक़ को अवैध घोषित कर दिया है. फिर उस पर सज़ा कैसी.
मेरी राय में यह बिल महिलाओं के हित में नहीं है, बल्कि यह तो उसे नुक़सान पहुंचाने वाला ज़्यादा है. शौहर अगर जेल चला गया तो महिला और उसकी संतानों की गुज़र-बसर का क्या होगा. इसके बाद तो दोनों के बीच बातचीत या सुलह का रास्ता भी बिल्कुल ख़त्म हो जाएगा.
यही नहीं, महिला के गुज़ारे भत्ते के लिए कोई प्रक्रिया तय नहीं की गई है. मेरी राय में यह महिलाओं के मूल अधिकारों का उल्लंघन है.
इस क़ानून का सारा ज़ोर सज़ा देने पर है. इस बिल के तहत किसी तीसरे की शिकायत पर केस दर्ज हो सकता है, यह सही नहीं है. क़ानून बनने के बाद मुसलमान पुरुषों के ख़िलाफ़ इसका दुरुपयोग होने की पूरी आशंका है.
(नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार/शोधकर्ता हैं. सामाजिक मुद्दों और खास तौर पर महिला मुद्दों पर लिखते हैं.)
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