मुजफ्फरनगर-
आस मुहम्मद कैफ, TwoCircles.net
मुजफ्फरनगर दंगे के 6 साल बीत चुके हैं। 7 सितंबर 2013 को महापंचायत के बाद हुई हिंसा की आग में आसपास के इलाके भी झुलस गए थे। मुजफ्फरनगर में एक सप्ताह कर्फ्यू रहा।सेना ने हालात संभाले।दंगे में सरकारी आंकड़ों में 65 लोग मारे गए और सैकड़ो घायल हुए।हजारों बेघर हुए और बहुत कुछ बदल गया।पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाट-मुस्लिम एकता टूट गई।राष्ट्रीय लोकदल का वज़ूद मिट गया।बहुत से नए माननीय मिल गए।मगर दंगा पीड़ितों को इंसाफ नही मिला। 6 साल बाद अब वो इसकी उम्मीद भी खो चुके हैं,यह रिपोर्ट पढ़िए:
सलीम की उम्र 66 है और उनके भाई नसीम की 70 वर्ष।सलीम अब सदमे में रहते हैं, किसी से बात नही करते। बस रोने लगते हैं।नसीम अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं।दोनों उस कवाल गांव के हैं जिसपर दंगे की वजह बनने का बदनुमा दाग है।
सलीम उस शाहनवाज़ नामक युवक के पिता हैं,जिसकी कवाल गांव में पहले दिन हत्या हुई थी।नसीम उन दो युवकों के पिता है जिन्हें गौरव और सचिन की हत्या में नामज़द किया गया था।दोनों थक चुके हैं।दोनो के चार बेटे उम्र कैद की सज़ा काट रहे हैं।दोनो अपने-अपने घर के कोने में (घर मे एकांतवास)गुमसुम पड़े रहते हैं।आंसू बहाते रहते हैं।
मुजफ्फरनगर दंगों में इस साल कई बड़े फैसले आये हैं जिनमें एक गौरव और सचिन की हत्या से जुड़ा मामला है।इस मामले में मृतक शाहनवाज़ के चार भाइयों को उम्र कैद की सज़ा हुई है।यह सभी दंगे के बाद से ही जेल में बंद थे।इन्हें जमानत भी नही मिल पाई थी।वहीं दूसरी तरफ शाहनवाज़ के क़त्ल में नामज़द लोगों को पुलिस ने क्लीन चिट दे दी थी।अदालत में कड़ी लड़ाई के बाद उन्हें तलब तो किया गया लेकिन एक महीने से कम वक़्त में वो जमानत पर आ गए।गौरव के पिता हाल ही में अदालत में आत्मसमर्पण करके जेल गए हैं।
शाहनवाज़ के पिता सलीम कहते हैं “उन्होंने जिंदगी के किसी हिस्से में इतना अन्याय नही देखा था। मेरे बच्चे का क़त्ल हुआ, जो उनका क़त्ल करने आए उन्हें भीड़ ने मार दिया। मेरा दूसरा बेटा चेन्नई जा रहा था और बल्लारशाह से वापस आया।पुलिस ने आते ही उन्हें मुज़रिम बना दिया और अब उन्हें सज़ा हो गई।हमारी कहीं नही सुनी गई, हमनें अदालत में पांच साल मुक़दमा दर्ज कराने की लड़ाई लड़ी और मेरे बेटे के कातिलों को 15 दिन में जमानत मिल गई”.
सलीम के बड़े भाई नसीम की हालत और भी ज्यादा खराब है वो अदालती कागजों के ढेर की अल्टा-पलटी करते रहते हैं।अजीब बात करते हैं,बीच-बीच मे चिल्लाने लगते हैं।नसीम कहते हैं “अब मैं अपनी जिंदगी में अपने बच्चों को आज़ाद नही देख पाऊंगा”।
मुजफ्फरनगर दंगे में 65 से ज्यादा मौतें,सैकड़ों घरों में आगजनी,हजारों लोगों का पलायन के बाद पीड़ितों को मिले इंसाफ में से कुछ समझना हो तो कवाल की इन दो एक जैसी घटनाओं में अंतर करके समझा जा सकता है।जिसमें एक में उम्र कैद हुई तो दूसरे में पुलिस ने तो कुछ किया ही नही और अदालत ने पांच साल बाद गिरफ़्तारी कराई जिसमे एक पखवाड़े में जमानत हो गई।
ऐसा क्यों हुआ यह हमें मुजफ्फरनगर के अधिवक्ता राव लईक बताते हैं। वो कहते हैं “अदालत में फैसले गवाही और सबूतों पर निर्भर करते हैं।साक्ष्य इकट्ठा करने का काम पुलिस करती है।अब कुछ मामलों में पुलिस अत्यधिक रुचि लेती है और कुछ मामलों में राजनीति से प्रभावित हो जाती है।कवाल वाले मामले में यही हुआ है।जहाँ एक पक्ष ने ज़बरदस्त पैरवी की जबकि दूसरा पक्ष कहीं स्टैंड नही कर पाया”।
ऐसा सिर्फ कवाल में ही नही हुआ है बल्कि यही कारण है कि मुजफ्फरनगर दंगों के तमाम मुक़दमो में अब सभी आरोपी बरी हो रहे हैं।राव लईक कहते हैं अब तो बस यही बाकी रह गया है की आरोपी पक्ष पीड़ितों पर ही मानहानि का मुक़दमा न दर्ज कर दे।
मुजफ्फरनगर के किदवईनगर मौहल्ले के एक रिटायर्ड शिक्षक नाम छापने के लिए तो मना करते हैं, मगर वो बताते हैं कि उन्हें उनके कुछ मित्र बताते हैं कि हिंदूवादी नेताओं ने आरोपियों से उनका कुछ भी न बिगड़ने देने का वादा किया था।जिसे उन्होंने पूरा किया है,जो मुक़दमे पुलिस ने अपनी तरफ से दर्ज किए थे उनमें ज्यादातर वापस ले रही है और जिन्हें पीड़ितों ने अपनी और से लिखाया था उनमें साक्ष्यों के अभाव में संदेह का लाभ देते हुए आरोपी को बाइज्जत बरी कर दिया गया है।
यह सच है कि मुजफ्फरनगर दंगों के लगभग सभी गंभीर मामले ख़त्म हो चुके हैं।इनमें से अधिकतर मामलों में समझौता हुआ है।मुजफ्फरनगर शहर के एक समाजसेवी बताते हैं कि “मुजफ्फरनगर दंगों के बाद में जब अमन बहाली हुई तो दोनों समूह के लोग कागज़ी कार्रवाई में सक्रिय हुए थे।दूसरे पक्ष में दंगो में आरोपियों बनाएं लोगो को बचाने के लिए कई समूह बने,इन्होंने अपने अपने तरीके से आरोपियों को बचाने की कोशिश की।कई अस्थाई कार्यालय बन गए और योजना बनाकर काम हुआ।जैसे उदारवादी जाटों ने फैसले के लिए प्रयास किये और दूसरे लोगो ने दबाव बनाने की राजनीति की.”
उसके बाद मुस्लिमो ने क्या किया, खालापार के शाहजेब खान बताते हैं कि वो चंदा करने में लग गए। वो कहते हैं कि दंगे के बाद उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव की नेतृत्व वाली सरकार ने डेढ़ दर्जन से ज्यादा मुसलमानों को राज्य मंत्री के दर्जे जैसे लाभ के पदों पर बैठा दिया और इन्हें समाज मे डैमेज कंट्रोल के लिए भेज दिया।कोढ़ में खाज यह था कि मुजफ्फरनगर में दंगा पीड़ितों की मदद करने की बजाय सत्तासीन पार्टी के ज्यादातर मुसलमान नेता लखनऊ में लाभ के पद के लिए लार टपकाने में व्यस्त रहे।
समाजवादी पार्टी के नेता और युवजन सभा के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष फरहाद आलम के मुताबिक उन्होंने कई बार ऐसे लोगो की भीड़ सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के आसपास देखी।वो इन्हें मुजफ्फरनगर जाने के लिए कहते थे मगर इनका जवाब होता था “हुजूर किस मुँह(शक्ल) से जाएँ “।उसके बाद इनमे से कई लाल बत्ती की गाड़ी पा लिए, कुछ को संगठन में ओहदा मिला और कुछ को एमएलसी बना दिया गया।
सवाल तो अब आज़म खान पर उठते हैं जो पूरे दंगे के दौरान और उसके बाद भी एक बार भी मुजफ्फरनगर पीड़ितों की सुध लेने नही आए।पसमांदा मुस्लिम समाज के राष्ट्रीय महासचिव अंजुम अली एडवोकेट कहते हैं “अब चूंकि सभी आरोपी बरी हो गए है तो अखिलेश यादव और आज़म खान जैसे नेताओं की जवाब देना चाहिए क्योंकि मुजफ्फरनगर दंगे के बाद चार साल तक वो सत्ता में रहे। पुलिस ने विवेचनाएं उनके दौर में की।मुसलमानों को भाजपा की सरकार से शिकायत नही होनी चाहिए, वो अपने लोगो के साथ खड़ी है।मगर उनके वोटों पर राजनीति कर हुकूमत का ज़ायका चखने वालों से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने क्या किया।दंगो के मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट में मुक़दमे क्यों नही चलाये गए?अब कौन जवाब देगा?आखिर इतना भीषण दंगा किया किसने?यह लोग मर कैसे गए?क्या इन्होंने आत्महत्या कर ली या अपने घर मे खुद ही आग लगा ली!”
मुजफ्फरनगर दंगों में ज्यादातर फैसलों में स्थानीय मुस्लिम समाज से जुड़े कुछ प्रभावशाली लोगों की भी भूमिका है।यह बेहद चौंकाने वाला छिपा हुआ तथ्य है।जिनमें कुछ धार्मिक नेता भी शामिल है।सिर्फ पीड़ित के परिवार को गवाही न देने के लिए दोष नही दिया जा सकता,बल्कि उनके ही समाज के कुछ लोगो ने उन पर दबाव बनाया,लालच दिया अथवा प्रेरित किया।इनमें से अधिकतर एक विशेष पार्टी से जुड़े लोग थे।
जमीयत उलेमा हिन्द के सचिव मौलाना मूसा कासमी मानते हैं कि सारी कहानी पैरवी की है।हत्या के 69 आरोपियों में से 45 के नाम तो मुख्य चार्जशीट में ही शामिल नही किये गए थे।24 के ख़िलाफ़ मामला चला।इनमें गवाह पलट गए।असल बात यह है कि यह सब कमज़ोर और गरीब लोग है।इनकी हिम्मत टूट गई।
जैसे दो एक जैसी घटनाओं में अलग अलग परिणाम आयें,उस दिन महापंचायत से लौटते समय मीरापुर के मुझेड़ा के मोड़ पर सदरपुर के दो व्यक्ति मारे गए।जिसमे मुझेड़ा गांव के एक दर्जन लोगों के ख़िलाफ़ अभी भी मुक़दमा चल रहा है।इसी घटना के बाद पास के गांव सिकरेडा में नदीम की तथा मीरापुर के पड़ाव चौक में हुई मोनू कुरेशी की हत्या में नामजद किए गए आरोपियों को बरी किया जा चुका है।
नदीम के चाचा अब केथोड़ा गांव मे रहते हैं जबकि उसके पिता तेवड़ा चले गए। नदीम के चाचा इरशाद तकलीफ़ को साझा करते हुए कहते हैं कि”दंगे से 6 महीने पहले नदीम की शादी हुई थी, दंगे के दौरान हम लोगो को रात में गांव से भागना पड़ा जबकि नदीम को मार दिया गया।उसकी बीवी को सरकारी नौकरी मिली और मुआवजे में पैसा भी।इसके बाद उसके बूढ़े मां बाप को वो छोड़ कर चली गई।उनका कोई बेटा नही था,वो तेवड़ा गांव के पास दंगा पीड़ितों के लिए बनी कॉलोनी में रहते हैं।खाने के लिए भी पैसे नही होते।अब इस हालात में वो मुक़दमा कैसे लड़ते।एक स्थानीय नेता ने समझौता करा दिया।वो लड़ते कैसे!
बेटा चला गया,घर चला गया और जो सरकार ने दिया उसे बहु ले गई।उनके पास न हिम्मत थी और न ताक़त !
कांग्रेस की महिला जिलाअध्यक्ष एडवोकेट बिलकिस चौधरी पूछती है जब पीड़ित कमज़ोर हो तो सरकार को उनके साथ खड़े हो जाना चाहिए था तब पुलिस ने क्या किया!
आंकड़े बताते हैं कि पुलिस ने ज्यादातर मामलों में आला ए क़त्ल तक बरामद नही किया और सारे मामले गवाही पर टिक गए।ये सर्वविदित है कि मुजफ्फरनगर में मजबूत गवाहों की छाती भी छलनी की जाती रही है यह तो वैसे भी दबे कुचले और गरीब लोग थे।
बिलकिस कहती है “आप साक्ष्यों और विवेचना से अलग हटकर देखिये की दंगो के दौरान पुलिस में एक खास समूह के लोग खुलेआम एक पक्ष के साथ खड़े थे,हमलावरों की और गोली चला रहे थे।अखबारों में यह फोटो छप रहे थे ऐसे पुलिसकर्मियों से निस्पक्ष विवेचना के होने के उम्मीद कम ही थी मगर सरकार के नुमांइदे और गली मोहल्ले में पनपे नेता क्या कर रहे थे उन्होंने क्या किया!
मुजफ्फरनगर दंगों में सबसे अधिक प्रभावित बुढ़ाना विधानसभा हुई थी उस समय यहां समाजवादी पार्टी के नवाजिश आलम खान विधायक थे।नवाजिश के पिता पूर्व सांसद अमीर आलम का नाम उस समय अत्यधिक चर्चा में था,उनपर आज़म खान से सिफारिश करके डीएम एसएसपी को हटवाने का इल्ज़ाम लगाया जा रहा था!
शाहपुर के सलीम अहमद हमें बताते हैं कि “मुझे नही लगता कि इन्होंने कोई मदद की होगी क्योंकि पूरे दंगे के दौरान नवाजिश आलम ने अपना फोन बंद रखा।मुसलमानों पर गांव-गांव हमले होते रहे मगर वो मदद के लिए आगे नही आए,हालांकि शाहपुर के ही अकरम खान यह भी कहते हैं “अमीर आलम की छवि कभी साम्प्रदयिक नही रही। एक योजना के तहत उन्हें बदनाम किया गया जिसमें में वो फँस गए और अब तक उस द्वंद से बाहर नही निकल पा रहे हैं”।
सिर्फ अमीर आलम की ही बात नहीं बल्कि स्थानीय लोगो मे तमाम मुस्लिम नेताओ को लेकर नाराजगी आज भी देखी जा रही है।जैसे चरथावल के वाजिद त्यागी कहते हैं “क़ादिर राणा यहां चौधरी अजित सिंह को चुनाव लड़ने पर एक करोड़ रुपये और बंगला दे रहे थे अब वो यह बता दें कि दंगा पीड़ितों के न्याय के लिए उन्होंने क्या प्रयास किया?
जैसे बुढ़ाना से शामली मार्ग पर लोई गांव में दंगा पीड़ितों की एक बड़ी कॉलानी बसाई गई।इन लोगो ने फुगाना,मोहम्मदपुर रायसिंह जैसे गांवों से आकर यहां शरण ले ली।जमीयत उलेमा हिंद ने इन्हें कॉलानी बनाकर दी।लोई के इस कॉलानी के मुन्तजिर एक बेहद चौकाने वाली बात कहते हैं। वो बताते हैं “स्थानीय गांव के लोग अपने कब्रिस्तान में हमारे मुर्दे दफनाने नही देते। वो कहते हैं हमे अपनी जमीन खरीदनी चाहिए हालांकि शुरुवात में हमसे हमदर्दी थी मगर अब वो हमें दोयम दर्जे का मानते हैं और हिकारत की नजर से देखते है”।
दंगा पीड़ितों की तक़लीफ़ की ये बात सिर्फ लोई की नही है।जौला की भी है।अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उस समय के वीसी जमीरउद्दीन शाह ने दंगा पीड़ितों के लिए जौला गांव में स्कूल बनाने की घोषणा की।एक करोड़ से ज्यादा यहां स्कूल बनाने में खर्च कर दिया गया।यहां जमीन एक किसान ने खैरात कर दी और स्कूल बन गया।फिलहाल स्कूल में अमीरों के बच्चे पढ़ रहे हैं।जौला के पूर्व जिला पंचायत सदस्य महबूब अली के मुताबिक स्कूल में भारी भरकम फीस है और दंगा पीड़ितों के बच्चे इसे वहन नही कर सकते।दंगा पीड़ित मेहरबान कहते हैं “जाटों के गांव में भी हम गरीब थे,यहाँ भी हम गरीब ही हैं। लोगों ने हमारी बहुत मदद की मगर हमें इंसाफ नही मिला। हमें किसी से कोई शिकायत नहीं। अल्लाह बदला लेगा”।
मुजफ्फरनगर दंगों में सबसे पहले गैंगरेप के मुकदमों में फैसला आया था।पुलिस ने इन केसों में ज्यादातर कांडों में पहले ही फाइनल रिपोर्ट(क्लोजिंग)लगा दी थी।कैराना के मलकपुर कैम्प में कुछ दंगा पीड़ित महिलाओं खुद के साथ गैंगरेप होने की बात कही थी।इस तरह की सात महिलाओं ने मुक़दमा दर्ज कराया था।यह सभी मुस्लिम समुदाय से थी।इनमें से एक फुगाना गाँव की फातिमा(बदला हुआ नाम) के साथ चार लोगों ने गैंगरेप किया था।गैंगरेप करने वाले उसी गांव के थे।फातिमा ने दावा किया था कि उसके परिवार को डराने धमकाने और लालच देने की कोशिशें हुई।
सामाजिक संस्था अस्तित्व की अध्यक्षा रेहाना अदीब के प्रयास से यह सभी महिलाएं मुक़दमा दर्ज कराने सामने आई थी। वो बताती है “पहली बात तो यह है शामली जनपद की अदालत अभी मुजफ्फरनगर में लगती है।आरोपी कार से पेशी पर जाते हैं।ट्रायल पीड़ित औरतों के लिए ज्यादा तकलीफदेह है।उनको लगातार डराया गया है और उनके परिजनों को प्रलोभन दिए गए हैं।उनका समाज भी उन्हें हिम्मत नही दे पाया।पीड़ित मानते हैं कि उन्हें उम्मीद के मुताबिक समर्थन नही मिला”।
दूसरी तरफ दंगे के आरोपियों को उनके समाज ने अकेला नही छोड़ा।उनका पूरा समाज उनके साथ खड़ा रहा जैसे मुजफ्फरनगर के सांसद संजीव बालियान के गांव कुटबा में हुई हिंसा के बाद में शाहपुर बस्ती में रहने वाले शरणार्थियों के पास पहुंचे और वापस गांव में चलने का अनुरोध किया।
शाहपुर बस्ती में दंगा पीड़ितों की इस बस्ती के मुंतियाज़ सैफी बताते हैं कि “वो आए थे नमस्ते किया और बुज़ुर्गों के पैर की तरफ बैठ गए।उन्होंने दंगे में हुए नुकसान पर अफसोस जताया और वापस गांव चलने का अनुरोध किया।हम समझ रहे थे वो क्या चाह रहे थे,वापस जाने का मतलब था मुक़दमे में फैसला करना।हम वापस तो नही गए मगर अब हम मुक़दमा लड़ना भी नही चाहते। लड़कर ही हम क्या कर लेंगे !”