सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
ओबरा(सोनभद्र) – कहते हैं कि किसी सड़क की गुणवत्ता मापने का एक ही तरीका है कि उस पर कोई गर्भवती महिला बिना किसी दिक्कत के सफर कर ले तो सड़क अच्छी है. बनारस से सोनभद्र पहुंचने के दो रास्ते हैं. एक सड़क और दूसरा रेलगाड़ी. इसे अखिलेश सरकार की उपलब्धि ही माना जाए कि बनारस से ओबरा या रेणुकूट पहुंचने में ट्रेन से कम वक़्त लगता है.
बनारस से लेकर रेणुकूट के पहले पड़ने वाले हाथीनाला तिराहे तक राज्य सरकार द्वारा नयी सड़क का निर्माण कराया गया है. इसे विकास की भाषा में फोरलेन कहते हैं. पहले की सड़क भी ठीक थी लेकिन भारी ट्रकों के आने-जाने से सड़क अक्सर मरम्मत में ही व्यस्त रहती थी. फिर सड़क को चौड़ा करने और जगह-जगह फ़्लाइओवर तैयार करने का रोडमैप तैयार किया गया. उसे अंजाम देने के लिए आसपास के घरों, दुकानों और कई सारे निर्माणों को तोड़ दिया गया. लगभग दो सालों तक लोग मुसीबत में सफ़र करते रहे लेकिन यह साफ़ है कि अब इस सड़क पर रोडवेज की ‘डग्गामार’ बसों में भी अच्छी नींद आ सकती है. सड़क ज़ाहिर तौर पर ऐसी है कि गर्भवती महिला बिना किसी परेशानी के सफ़र कर ले. गाड़ियां तेज़ी से रफ़्तार पकड़ती हैं और मोटरसाइकिल से लोग भी आराम से चल सकते हैं.
ऐसे में ऊपरी तौर पर देखें तो सोनभद्र को चीरती हुई यह सड़क अखिलेश यादव के विकास सूचकांक में कुछ अंक ज़रूर जोड़ देती है. मुख्य सड़क से ओबरा की ओर मुड़ते ही सड़क ऐसी हो जाती है, जिसे किसी गर्भवती महिला का सबसे बुरा ख्वाब कहा जाएगा. सड़क के दोनों ओर कई सारी खदानें हैं और क्रशर हैं. खदानों और क्रशर की संख्या में सरकारी और गैर-सरकारी आंकड़ों में बहुत बड़ा अंतर पसरा हुआ है. इस अंतर को ठीक करने की कोई आधिकारिक कोशिश की गयी हो, ऐसा नहीं दिखता. ओबरा की समस्या यह है कि यहां तापीय परियोजना है, कई खदाने हैं और जेपी समूह का पूरा साम्राज्य है. लेकिन सड़कों की हालत बेहद बुरी है.
ओबरा में समस्याएं ज्यादा नहीं हैं. बिजली बाज़ार में चौबीस घंटे मिलती है, बाज़ार से बाहर के इलाकों में महज़ दो घंटे के लिए कटती है. पानी मिल जाता है, बोरिंग करवाने पर ज़मीन में बहुत ज़्यादा गहरा नहीं जाना पड़ता है. लेकिन यहां सड़क पर कुछ देर भी चल लेने पर बहुत तेज़ी से शरीर में क्रशर से निकला चूरा और धूल भर जाते हैं. खदान मालिक पत्थर को तोड़ने के लिए लगाए गए क्रशर से निकले चूरे की डंपिंग का सही उपाय नहीं निकाला है. इसका खामियाजा यह है कि क्रशर के चूरे को सड़कों के किनारे-किनारे छींट दिया गया है. कई जगहों पर इस चूरे के पठार बन गए हैं. इस चूरे की वजह से इस इलाके की मुख्य सड़क भी खराब हो चुकी है.
ओबरा पिछले ही विधानसभा चुनावों के दौरान सीट के रूप में सामने आई है. यानी यहां विकास का उपक्रम बहुत नया है. इसे इस वजह से छोड़ा जा सकता था लेकिन लोग आरोप लगाते हैं कि यहां के मौजूदा विधायक पांच साल में इलाके को मूल बदहाली से निजात दिलाने के लिए बहुत कुछ कर सकते थे लेकिन उन्होंने नहीं किया.
ओबरा चौराहे पर रतनलाल वर्मा मिलते हैं, जो रॉबर्ट्सगंज में प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते हैं, इसलिए रोज़ दो घंटों का सफर बस से करते हैं. रतनलाल वर्मा कहते हैं, ‘मेरी उम्र है 34 साल. मैं रोजाना बस में सफ़र करता हूं इसलिए मेरी कमर की उम्र लगभग 50 साल के ऊपर की है. मुख्य सड़क तक जाने के बाद सब ठीक हो जाता है लेकिन आप बस या ऑटो कुछ भी पकड़ लीजिए, ओबरा शहर के अन्दर समस्या से निजात मुमकिन नहीं है.’ सुनील कुमार पर पहला विधायक होने का रौब झाड़ने का आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘ठीक है कि आप विधायक हैं, सांसद नहीं हैं. लेकिन किसी तरीके से शहर के अन्दर की मुख्य सड़क पर इन पांच सालों में कोई काम तो करवा सकते थे. लेकिन नहीं करवाया. क्यों? इसका जवाब भगवान ही जाने.’
ओबरा में बाक़ी का बुरा हाल जेपी समूह ने कर रखा है. ओबरा से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित बरसों से बंद पड़ी डाला सीमेंट फैक्ट्री को जेपी समूह ने हाल में ही खरीदा है और यहां पर उत्पादन भी होता-रुकता रहता है. जेपी के भारी ट्रकों की वजह से ओबरा-डाला संपर्क मार्ग और ओबरा का मुख्य मार्ग दोनों ही बेहद खराब हो चुके हैं. धूल न उड़े इसके लिए जेपी ग्रुप रोज़ शाम सैकड़ों लीटर पानी सड़क पर बहा देता है जो कुछ देर बाद सूखकर फिर से धूल उड़ाने लगता है.
ओबरा के ही उम्मीदवार और अहिंसा सेवा पार्टी नाम के लोकल राजनीतिक दल से जुड़े हुए विजयशंकर यादव बताते हैं, ‘आप जो दिक्कतें बता रहे हैं, वह सब ओबरा की सबसे बड़ी दिक्कतें हैं. लेकिन इससे बड़ी दिक्कत तो यहां के खदान हैं. जहां कौन काम कर रहा है और कौन मर रहा है, इसके बारे में कुछ नहीं पता चलता है.’
विजयशंकर यादव आगे बताते हैं, ‘2015 में यहां की एक खदान में नौ ग्रामीण मजदूर दबकर मर गए थे. बहुत बड़ा धमाका हुआ तो हम लोग भागे देखने. पुलिस किसी को जाने ही नहीं दे रही थी, पुलिस छिपाना चाह रही थी कि घटनास्थल की असलियत क्या है? बाद में जब हम जोर-जबरदस्ती के साथ पहुंचे तो पता चला कि लोग मारे गए हैं.’ मौजूदा विधायक सुनील कुमार के बारे में विजयशंकर यादव बताते हैं, ‘आपके क्षेत्र में इतनी बड़ी घटना हुई. कम से कम विधायक को आना तो चाहिए था, लोगों से मिलना चाहिए था, मुआवज़े के लिए कार्रवाई करनी चाहिए थी. लेकिन आपने उतना भी नहीं किया, झांकने भी नहीं आए कि क्या हुआ है, कौन मरा है?’
खदान के हादसे से जुड़ा एक वीडियो भी है, जिसमें इस बात की तस्दीक भी होती है.
साथ में गए एक स्थानीय साथी इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि विधायक सुनील कुमार को शायद ही लोगों ने क्षेत्र में देखा होगा. इसके साथ अधिकतर लोग यह भी कहते हैं कि सुनील कुमार से ज्यादा जनता के बीच दिखने और समस्याएं सुनने-समझने वाले देवेद्र शास्त्री हैं, जो पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के टिकट से चुनाव लड़ने के बाद हार गए थे.
इस साल ओबरा सीट को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित कर दिया गया है, जिसके खिलाफ़ बहुत सारे लोग लड़ रहे हैं. रॉबर्ट्सगंज से 2014 में छोटेलाल खरवार सांसद चुने गए थे. भाजपा छोटेलाल खरवार के प्रभावशाली नेता हैं और जनजातियों पर उनका असर भी माना जाता है. ऐसे में यह कयास आम हैं कि यदि सीट के आरक्षण पर कोई बदलाव नहीं होता है तो भाजपा यह सीट निकाल सकती है, लेकिन फिर भी कुछ कहना अभी जल्दबाजी है.
विजयशंकर यादव की मुख्य मांग है कि ‘सोनभद्र में खुले एम्स’. यह मांग जायज़ और सही है. यहां आसपास स्वास्थ्य केन्द्रों को छोड़कर कोई बड़ा अस्पताल नहीं मौजूद है. दो साल पहले यहां करेंट लगने से झुलसे एक बच्चे का इलाज पहले बनारस और बाद में दिल्ली में कराया गया. बनारस से ओबरा के रास्ते के बीच रॉबर्ट्सगंज में पड़ने वाले अस्पताल यह लिखकर विज्ञापन करते हैं कि ‘बनारस जाने के पहले एक बार यहां आएं.’
यहां के वोटरों से अभी का हाल ही पूछा जा सकता है. ‘किसे चुनेंगे’ का सवाल यहां अवैध साबित हो जाता है क्योंकि सभी प्रत्याशियों ने चुनाव की तारीखें घोषित होने के साथ जनसंपर्क करना, मिलना-जुलना बंद कर दिया है. वे मीडिया से भी नहीं मिलना चाह रहे हैं. सभी हाईकोर्ट की ओर देख रहे हैं और इस कोशिश में हैं कि किसी तरीके से सीट को अनारक्षित श्रेणी में डाल दिया जाए.
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