अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
नई दिल्ली : भारत के आम मुसलमान भले ही क़रीब तीन लाख रूपये में हज कर आते हैं, लेकिन बात जब ‘सरकारी मुसलमानों’ की आती है, तो ये ख़र्च क़रीब आठ-दस गुना अधिक हो जाता है.
साल 2014 में हज गुडविल डेलिगेशन में भारत से दो लोग सरकार की ओर से सऊदी अरब गए. इन दो लोगों में आरिफ़ बेग और अब्दुल रशीद अंसारी के नाम शामिल हैं. भारत सरकार की ओर से इन दोनों ने भारत का प्रतिनिधित्व किया. इसलिए इनके हज का खर्च भारत सरकार की ओर से अदा किया गया. इनके हज पर भारत सरकार का कुल 44,27,686 रूपये खर्च हुए.
साल 2013 में हज गुडविल डेलिगेशन के नाम पर भारत से सिर्फ़ गुलाम नबी आज़ाद सऊदी अरब गए और वहां से भारतीय दूतावास के अंबेस्डर हामिद अली राव ने इनका साथ दिया. और फिर दोनों लोगों के ऊपर सरकार का 29,26,687 रूपये खर्च हुआ तो वहीं साल 2012 में ई. अहमद भारत से सऊदी अरब गए और रियाद से भारतीय दूतावास के अंबेस्डर हामिद अली राव ने इन्हें ज्वाइन किया. इस बार इन दोनों के हज का खर्च 36,75,730 रूपये आया.
बताते चलें कि पहले हज गुडविल डेलिगेशन के नाम पर भारत से हर साल क़रीब 30-40 लोग जाते थे. जब इस पत्रकार ने आरटीआई के ज़रिए हज गुडविल डेलीगेशन पर जाने वाले लोगों के नाम और उनके ऊपर आने वाले खर्च का ब्योरा निकाला तो देश के आम मुसलमान भौचक्के रह गए.
सुप्रीम कोर्ट ने जब प्राइवेट टूर ऑपरेटरों द्वारा दायर स्पेशल लीव पेटिशन मामले में हज से जुड़े अन्य मामले भी आमंत्रित किए तो एक सामाजिक संगठन इस लेखक के ज़रिए लिखी न्यूज़ व दस्तावेज़ों के आधार पर हज सब्सिडी और हज गुडविल डेलिगेशन के मामले को भी सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में लाया.
तब सुप्रीम कोर्ट ने इस स्पेशल लीव पेटिशन (No. 28690/11) के मामले में 08 मई, 2012 को ये आदेश दिया कि ये हज गुडविल डेलिगेशन हर हाल में रोका जाना चाहिए. अगर भारत सरकार हज के मौक़े पर सऊदी अरब को ‘गुडविल’ का संदेश भेजने की इच्छा है, तो वह एक लीडर व उसके साथ एक सदस्य को भेज सकता है.
दरअसल, 70 के दशक में हज डेलिगेशन की परंपरा ये कहकर शुरू की गई थी कि भारत के कुछ लोग सऊदी अरब जाकर वहां के बादशाह और अधिकारियों को भारत के बारे में बताएंगे. वहां भारतीय हाजियों के साथ आने वाली समस्याओं पर नज़र रखेंगे और इस पर एक रिपोर्ट भारत सरकार को पेश करेंगे ताकि आगे से इन कमियों व समस्याओं को दूर किया जा सके. साथ इस गुडविल डेलिगेशन का असल मक़सद यह भी था कि हज के दौरान दो देशों के बीच संबंधों को बेहतर करना भी था.
शुरू में इसके लिए दो-चार लोग ही भेजे जाते थे. लेकिन धीरे-धीरे इस परंपरा के नाम पर लोगों का हुजूम सरकारी पैसे से हज करने जाने लगा. इस डेलिगेशन में कौन लोग जाएंगे और उनका चयन कैसे होगा, इसकी कोई रूपरेखा भी तय नहीं थी. प्रधानमंत्री कार्यालय का फैसला अंतिम होता था.
ज़ाहिर है इसका फ़ायदा नेताओं, रसूखदार लोगों और उनके दोस्तों, रिश्तेदारों ने उठाया. बाद में ये लिस्ट बढ़ती चली गई. अपने ख़ास लोगों को खुश करने का सरकार ने भी इसे बहाना बना लिया और इस लिस्ट में शामिल हो गए गवर्नर, हाई कोर्ट के जज और यहां तक कि आम पत्रकार भी. इनमें से कुछ ने एक बार नहीं, कई बार मुफ्त में हज किया.
बताते चलें कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले साल 2011 में इस गुडविल डेलिगेशन पर सरकार ने 4.70 करोड़, साल 2010 में 4.37 करोड़, साल 2009 में 4.45 करोड़ और साल 2008 में 4.37 करोड़ किए थे. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकारी पैसे से हज करने जाने ‘सरकारी मुसमलानों’ की बड़ी तादाद पर तो लगाम लग गई, लेकिन अब दो लोगों पर आने वाला खर्च ये बताने के लिए काफ़ी है कि ये ‘हज गुडविल डेलिगेशन’ नहीं, बल्कि ‘रॉयल स्टाइल ऑफ़ डेलिगेशन’ है!
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