अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
नई दिल्ली : सूचना के अधिकार के मिले अहम दस्तावेज़ के मुताबिक़, 31 मार्च, 2017 तक हज कमिटी ऑफ़ इंडिया की कुल 825.5 करोड़ रक़म बैंक में फिक्स डिपॉजिट के तहत जमा है. ये पैसा शुद्ध रूप से मुसलमानों का है, जो हज कमिटी ऑफ़ इंडिया ने भारतीय मुसलमानों से हज के दौरान हासिल किए हैं या यूं कहिए कि कमाए हैं.
आरटीआई से हासिल अहम दस्तावेज़ बताते हैं कि, 522.5 करोड़ रूपये यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया में, 283 करोड़ केनरा बैंक में और 20 करोड़ ओरियंटल बैंक ऑफ़ कॉमर्स में बतौर फिक्स डिपॉजिट जमा हैं.
यहां बताते चलें कि हज कमिटी ऑफ़ इंडिया एक सरकारी संस्था है, जो पहले विदेश मंत्रालय के अंतर्गत थी, लेकिन अब अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत है.
वित्त मंत्रालय के मुताबिक़, ‘हज कमिटी ऑफ़ इंडिया एक ग़ैर-लाभ वाली निकाय है. बल्कि यू कहें कि यह विभिन्न अभिकरणों से समन्वय करने के लिए एक नॉडल अभिकरण है ताकि हज यात्रा को कारगर और बेहतर बनाया जा सके. राज्य हज कमिटी के ज़रिए काम करने वाली हज कमिटी ऑफ़ इंडिया हज का विनियमन और प्रबंधन करती है. हज के संबंध में हज कमिटी ऑफ़ इंडिया और राज्य हज कमिटी के ज़रिए मुहैया कराई जाने वाली सेवाएं एक द्वीपक्षीय समझौते के अंतर्गत अब अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय द्वारा कारगर बनाया जाता है तथा इन्हें सेवा कर से छूट प्राप्त है.’
हज कमिटी ऑफ़ इंडिया के एक अधिकारी नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताते हैं कि, भले ही हज कमिटी ऑफ़ इंडिया एक सरकारी संस्था है, लेकिन सरकार की ओर से हज कमिटी को कोई फंड नहीं मिलता है. हज कमिटी ऑफ़ इंडिया पूरी तरह से हज के दौरान मुसमलानों के ज़रिए हासिल रक़म से ही चलती है. इसके अलावा हज कमिटी ऑफ़ इंडिया मुंबई में अपना हज हाऊस का हॉल किराये पर लगाती है. शादी के लिए इस हॉल का किराया 50-60 हज़ार रूपये लिया जाता है, तो वहीं अन्य धार्मिक व सामाजिक प्रोग्रामों के लिए इस रक़म में डिस्काउंट किया जाता है. इसके अलावा कमाई का एक ज़रिया फॉरेन-एक्सचेंज भी है, इससे भी करोड़ों की कमाई हर साल हज कमिटी को होती है. यही नहीं, बैंक में रखे रक़म से भी हर साल करोड़ों की कमाई होती है.
आरटीआई से मिले दस्तावेज़ बताते हैं कि, हज कमिटी के ज़रिए किए गए फिक्स डिपॉजिट से साल 2014-15 में 46.22 करोड़ रूपये बैंक से ब्याज के तौर पर मिले थे. वहीं पिछले पांच साल में ब्याज की ये रक़म 1 अरब 20 लाख रही है. (ये आंकडा़ साल 2010-11 से 2014-15 तक का है.)
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि मुंबई का हज हाऊस या फिर अन्य राज्यों का हज हाऊस किसकी मिल्कियत है?
तो बताते चलें कि हज एक्ट और हज रूल —2002 में हज हाऊस की इमारत के संबंध में कोई ज़िक्र नहीं, कोई इशारा भी नहीं, लेकिन सूचना का अधिकार से मिले सूचना के मुताबिक़ मुंबई के हज हाऊस को हज कमिटी ऑफ़ इंडिया की मिल्कियत क़रार दिया गया है. अब चूंकि हज कमिटी ऑफ़ इंडिया एक सरकारी संस्था है, इस तरह से देश के तमाम हज हाऊसों की इमारत सरकारी हो जाती है. जबकि ये इमारतें सरकारी फंड से नहीं, बल्कि मुसलमानों की अपनी रक़म से वजूद में आई है.
हालांकि हज कमिटी ऑफ़ इंडिया के एक अधिकारी TwoCircles.net से बातचीत में बताते हैं कि ज़्यादातर राज्यों में हज हाऊस, हज कमिटी ऑफ़ इंडिया के फंड से ही बने हैं. कुछ राज्यों में वहां की सरकारों ने थोड़ी-बहुत मदद ज़रूर की है.
वो बताते हैं कि विवादों में चल रहे ग़ाज़ियाबाद के हज हाऊस की बिल्डिंग के निर्माण में हज कमिटी ऑफ़ इंडिया ने अच्छी-ख़ासी रक़म की मदद की थी.
बताते चलें कि आरटीआई से मिले अहम दस्तावेज़ों के मुताबिक़, मुंबई हज हाऊस बिल्डिंग के निर्माण का काम 7 मार्च, 1983 से शुरू हुआ और इसके निर्माण में भारत सरकार से किसी भी तरह की कोई भी मदद या क़र्ज़ नहीं लिया गया है. इसके निर्माण पर होने वाले तमाम खर्च को हज कमिटी ने ही वहन किया. इस हज हाऊस बिल्डिंग में 102 कमरे और एक एसी हॉल है. हज कमिटी के इस हॉल का किराया न्यूनतम 25 हज़ार रूपये प्रति प्रोग्राम है. शादी में ये रक़म 50 हज़ार रूपये से अधिक होती है.
हज के मामलों पर काम करने वाले मुंबई के सामाजिक कार्यकर्ता अत्तार अज़ीमी का कहना है कि, हज हाऊस से जो आमदनी होती है और वो तमाम जायदाद व बैंक बैलेंस हाजियों की मिल्कियत है, जिन्होंने अपनी हलाल कमाई के चंदे से ये इमारत खड़ी की है. इनके बाद इनकी नस्लें इस हज हाऊस और अन्य जायदाद के मालिक होंगे. लेकिन सवाल ये पैदा होता है कि अगर मालिक को ही अपनी जायज़ प्रॉपर्टी से किसी भी क़िस्म का फ़ायदा न मिले तो जायदाद किस काम की?
वो आगे कहते हैं कि, ज़रूरत इस बात की है कि तमाम मसलक व फ़िरक़े के मुसमलान एक प्लेटफॉर्म पर जमा होकर अपने तमाम दानिश्वरों को जमा करें और कोई कमिटी या ट्रस्ट बनाकर सरकार से अपील करें कि हमने आपका बेहतरीन साथ दिया है और अब वादा-ए-वफ़ाई का वक़्त आ चुका है. जो हमारी चीज़ है वो बग़ैर किसी सियासत के हमें सौंप दें. इस तरह से मुसमलान हज हाऊसों की शानदार इमारतों को अपने क़ब्ज़े में लेकर मुसलमानों की तरक़्क़ी व कल्याण की सोच सकते हैं. वैसे भी हर साल हज से इतनी आमदनी है कि मुसमलानों को सरकार के ख़ज़ानों पर बोझ डालने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी.
स्पष्ट रहे कि हज कमिटी ऑफ़ इंडिया इस साल खुद अपने गाईडलाईंस में कहती है कि, ‘हज कमिटी बग़ैर किसी मुवाअज़े व मुनाफ़े के हाजियों के काम करती है. इसलिए ये कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट —1986 के अंतर्गत नहीं आती है. इसलिए हाजियों को दी गई ख़िदमात में किसी भी कमी पर आप हज कमिटी से कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट या किसी और क़ानून के तहत कोई हरजाना तलब नहीं कर सकते.’ ऐसे में सवाल ये उठता है कि जब हज कमिटी मुनाफ़ा नहीं कमाती है तो फिर हर साल हाजियों से ये जो करोड़ों रूपये वसूल कर बैंक में फिक्स डिपॉजिट किए गए हैं, ये क्या हैं?
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