अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
इमरान अहमद की बचपन से ख़्वाहिश तो एक साइंटिस्ट बनने की थी, लेकिन अचानक हालात ऐसे बने कि उन्होंने खुद के इस सपने का हमेशा के लिए गला घोंट दिया.
लेकिन अब इनकी आंखों में एक नया ख़्वाब था. ये ख़्वाब आईएएस बनने की है. और इस ख़्वाब को पाने के लिए इमरान अब भी दिन-रात लगे हुए हैं. हालांकि इस बार यूपीएससी के सिविल सर्विस परीक्षा में इनकी 725वीं रैंक आई है.
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इमरान कहते हैं कि, मेरी इस कामयाबी का पूरा श्रेय अल्लाह तअाला को जाता है. क्योंकि कभी मैंने इसके बारे में सोचा भी नहीं था और न ही लगता था कि मेरी औक़ात है. लेकिन बावजूद इसके मेरी ख़्वाहिश आईएएस बनने की ही है. इसलिए मैं दुबारा आईएएस के लिए कोशिश कर रहा हूं. बस प्रीलिम्स 3 जून को है.
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उत्तर प्रदेश के सोनभद्र ज़िला के बरवन गांव में जन्मे 31 साल के इमरान अहमद का परिवार अब राबर्ट्सगंज में रहता है. पिता अलाउद्दीन सीआईएसएफ़ में सब-इंस्पेक्टर के पद से रिटायर हुए हैं. मां अफ़सरी बेगम घर का कामकाज संभालती हैं. चार भाईयों में इमरान तीसरे नंबर पर हैं.
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इमरान ने दसवीं व बारहवीं उत्तराखंड में हल्द्वानी के केन्द्रीय विद्यालय से की. फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीएससी और दिल्ली के जामिया हमदर्द से टॉक्सीकोलॉजी में एमएससी की डिग्री हासिल की. आप यहां गोल्ड मेडलिस्ट थे. इसी बीच जेआरएफ़ भी हुए और पीएचडी के लिए लखनऊ का रूख़ किया. यहां इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ टॉक्सीकोलॉजी रिसर्च में बतौर रिसर्च फेलो काम शुरू किया.
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इमरान बताते हैं कि, यहां मैंने चार साल तक दिल लगाकर काम किया. क्योंकि मेरा एक ही सपना था —सिर्फ़ और सिर्फ़ साईंटिस्ट बनना. लेकिन अचानक मेरे गाईड ने वॉलेंट्री रिटायरमेंट ले लिया तो मेरे सामने अचानक मुसीबतों का पहाड़ आ गया. उनके जाने के बाद डायरेक्टर चाहते थे कि मैं फिर से किसी और टॉपिक पर काम करूं. ये मेरे लिए संभव नहीं था. क्योंकि मैं एक टॉपिक पर चार साल का समय पहले ही दे चुका था.
वो आगे कहते हैं कि, मुझे यहां मानसिक रूप से बहुत परेशान किया गया. मैंने 5-6 महीने कोई काम नहीं किया. दरअसल, एक संस्था की पॉलिटिक्स और वहां की पेचीदगियों को झेल रहा था. मैं डिप्रेशन का शिकार हो गया. ऐसा लगा कि अचानक सब कुछ ख़त्म हो गया है.
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इमरान बताते हैं, ‘डिप्रेशन की हालत में मैंने अचानक अपने वालिद से बोला कि पापा मुझे बस तीन साल दे दीजिए, कुछ न कुछ ज़रूर बेहतर करूंगा. इस वक़्त मेरी उम्र 28 साल थी. ये वो दौर था जब मां-बाप चाहते हैं कि बेटे की शादी हो जाए. इस बीच हालात ने मुझे एक और सदमा दिया. मेरी एक क़रीबी दोस्त का इंतक़ाल हो गया. वहीं मेरे एक दोस्त के भाई के भी इंतेक़ाल की ख़बर आई. ऐसा लगा कि 15 साल की पढ़ाई वाली ज़िन्दगी पीएचडी में आकर ज़ीरो हो गई.’
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वो आगे बताते हैं कि, जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में था तो कई लोग मुझे सिविल सर्विस में जाने के बारे में कहते थे. जामिया हमदर्द में भी मेरे सीनियर्स ने यही मश्विरा दिया था. बल्कि एक सीनियर ने तो 2010 के टॉपर रहे शाह फैसल से मेरी मुलाक़ात भी करवाई. लेकिन तब इनकी बातों का कुछ ख़ास असर नहीं हुआ. मैंने तय कर लिया था कि मैं जो भी करूंगा वो साईंस के फिल्ड में ही करूंगा. और मुझसे सिविल सर्विस हो भी नहीं पाएगा. ये इतना आसान भी नहीं है. लेकिन अब मैं अपनी ज़िन्दगी में इतना फेल हो गया था कि मेरे अंदर से फेल होने का डर ही ख़त्म हो गया था.
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2015 में इसी उधेड़बुन में मैं वापस दिल्ली आया. कुछ महीनों के बाद हमदर्द स्टडी सर्किल में टेस्ट दिया और सेलेक्ट हुआ. बस मेरी यहीं से ज़िन्दगी बदलनी शुरू हो गई. मुझे यहां बहुत अच्छे दोस्त मिले, जिन्होंने मुझे हमेशा नया जज़्बा और हौसला देने का काम किया. 2016 में यूपीएससी के ज़रिए हुए एम्प्लॉयमेंट प्रोविडेंट फंड ऑर्गनाइज़ेशन की परीक्षा पास की. आगरा में बतौर इंफोर्समेंट ऑफिसर ज्वाईन किया. इधर सिविल सर्विस का इंटरव्यू कॉल आया और एक साइंटिस्ट अब सिविल सर्वेन्ट हो चुका है.
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इमरान ने बतौर सब्जेक्ट पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन लिया. वो कहते हैं कि साईंस से मुझे इस क़दर धोका मिला कि इससे मेरा दिल भर गया. क्योंकि 15 साल लगातार साइंस पढ़कर ज़ीरो पर चला गया था. मैंने सोचा इस बार साइंस के अलावा कुछ और पढ़ते हैं. मैंने अपने सीनियर्स से पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के बारे में सुन रखा था. जब मैंने इसका सेलेबस देखा तो मुझे लगा कि इससे जेनरल स्टडीज़ के पेपर में काफ़ी फ़ायदा होगा. बस मैंने ले लिया.
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सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करने वालों से इमरान का कहना है कि, अब इसका इम्तेहान काफ़ी डायनामिक हो गया है. इसलिए इसके लिए थोड़ा रणनीति बनाकर पढ़ना होगा. बैल की तरह पढ़कर कुछ हासिल नहीं होने वाला. इस परीक्षा की मांग को समझना बहुत ज़रूरी है. पैटर्न देखना ज़रूरी है. और जितनी चीज़ें आपके मक़सद से आपको विचलित करती है, उससे आपको दूर रहना होगा. यक़ीनन मानिए जब मेरे जैसा इंसान सिर्फ़ ढाई साल की तैयारी में ये कर सकता है तो सब कर सकते हैं. बस ईमानदारी से मेहनत कीजिए.
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वो ये भी बताते हैं कि तैयारी के लिए एक अच्छे वातावरण का मिलना भी ज़रूरी है. मुझे अच्छा वातावरण मिला. हम चार लोग मिलकर तैयारी करते थे. चार में तीन इस बार सेलेक्ट हो चुके हैं.
इमरान अपनी इस कामयाबी के लिए सबसे पहले अपने अब्बू को क्रेडिट देना चाहते हैं. वो कहते हैं कि, मैं अब्बू का शुक्रगुज़ार हूं कि उन्होंने मुझे सबसे ज़्यादा सपोर्ट किया. कभी कोई कमी नहीं होने दी. अम्मी ने हमेशा मेरे लिए दुआ की. नमाज़ें पढ़ी. रमज़ान के अलावा भी रोज़े रखे. ये सब उनकी दुआओं का असर लगता है.
इमरान को स्पोर्ट्स का काफ़ी शौक़ है. फिल्मों के साथ-साथ खाना बनाना भी बहुत पसंद है.
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अपने क़ौम के नौजवानों से इमरान कहते हैं कि, आपको जो भी करना है, वो बहुत स्पष्ट रहना चाहिए कि आख़िर हमें करना क्या है. और हां, सिर्फ़ ख़्वाब देखने से कुछ नहीं होता, ख़्वाब तो हर कोई देखता है. लेकिन जो मेहनत करता है, वो ज़रूर कामयाब होता है. मेहनत बैल की तरह नहीं, बल्कि ज़रूरत और दिमाग़ के साथ कीजिए.
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इन नौजवानों के गार्जियनों से मैं ये कहना चाहूंगा कि, पढ़ाई को सपोर्ट कीजिए. मौक़ा तभी क्रिएट होगा, जब आप बच्चे को पढ़ाएंगे. अगर आप पढ़ाएंगे ही नहीं, तो बच्चे को मौक़ा कहां से मिलेगा. इसके लिए हम जैसे लोगों को भी आगे आना होगा. सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ मिल्ली तंज़ीमों का रोल भी बढ़ जाता है कि वो अपने क़ौम के बच्चों को तालीम की तरफ़ लाएं.